आपको क्या लगता है, अगले चुनाव में कौन जीतेगा: वी.डी. सावरकर या इंदिरा गांधी? और डॉ. भीमराव अंबेडकर किसे समर्थन देंगे?
अगर आप यह सोच रहे हैं कि आखिर क्या हो रहा है, तो भारतीय राजनीति की अजीब दुनिया में आपका स्वागत है, जहां राजनेता 50 साल पहले के व्यक्तित्वों और घटनाओं पर लड़ते हैं.
भारतीय राजनीति का आम नियम बन गया है: जो देश में वास्तव में हो रहा है, उस पर कभी सवाल मत उठाइए.
यह भी पढ़ें: महाराष्ट्र के नतीजों का स्पष्ट संदेश — जनता समृद्धि चाहती है, पापाजी की जागीर नहीं
भारतीय राजनीति का फैंटम ज़ोन
क्या हमारी अर्थव्यवस्था धीमी हो गई है और विकास गिरकर खतरनाक स्तर पर आ गया है? राजनेता कहते हैं, तो क्या हुआ? चलो किसी मध्ययुगीन मस्जिद पर बात करते हैं.
शेयर बाजार इतना अस्थिर हो गया है कि मिडिल क्लास, जिन्होंने म्यूचुअल फंड जैसे सुरक्षित निवेश किए थे, अपनी बचत को लेकर परेशान हैं. इस पर नेता कहते हैं, “हो सकता है, शायद.” फिर शुरू होता है “वैश्विक कारण,” “चीन का आकर्षण,” “निवेश का बदलाव” जैसे जटिल शब्दों का खेल. लेकिन इससे किसी को राहत नहीं मिलती.
आर्थिक मुद्दों की अनदेखी से भी बुरा है, शासन न करना. राजनीतिक माहौल और खराब है. मणिपुर में हिंसा जारी है, लेकिन कोई बात नहीं करता. मंदिर-मस्जिद को लेकर विवाद बढ़ रहे हैं. बांग्लादेश में सताए जा रहे हिंदुओं की मदद के लिए सरकार द्वारा कुछ भी करने से इनकार करने पर भावनाएं आहत हैं.
इन सब पर चर्चा नहीं होती. मुझे ऐसा लगता है कि हमारे नेता एक ऐसी दुनिया में रहते हैं, जो असली मुद्दों से अलग हैं. वे किसी साइ-फाई कॉमिक बुक में फैंटम ज़ोन के सदस्यों की तरह व्यवहार करते हैं. वे अपने अपनी अलग दुनिया में रहते हैं, जो कभी-कभी हमारी वास्तविकता में आते हैं, आमतौर पर जितना हो सकता है उतना नुकसान पहुंचाने के लिए.
इसीलिए सावरकर और इंदिरा गांधी की बातें हो रही हैं. जब राहुल गांधी संसद में भाजपा द्वारा संविधान के साथ किए जाने वाले काम का विरोध करने के लिए खड़े हुए, तो उन्होंने सावरकर के संदर्भ में अपने तर्क दिए. चतुराई भरा तर्क था. सावरकर ने कहा था कि “संविधान में कुछ भी भारतीय नहीं है” और इसे मनुस्मृति से बदल देना चाहिए. और फिर भी, राहुल ने कहा, बीजेपी यहां कह रही है कि वह उसी संविधान की रक्षा करना चाहती है.
“मैं आपसे पूछना चाहता हूं,” उन्होंने बीजेपी सदस्यों से कहा, “क्या आप अपने नेता के साथ खड़े हैं? क्योंकि जब आप संसद में संविधान की रक्षा के बारे में बात करते हैं, तो आप सावरकर का अपमान कर रहे हैं, आप सावरकर को गाली दे रहे हैं.”
हां, तंज़!
असल में, राहुल गांधी को सावरकर की आलोचना से कोई आपत्ति नहीं है. वो तो यह मानते हैं कि संविधान की रक्षा होना जरूरी है. वो बस स्कूल के डिबेट में किए जाने वाले पॉइंट्स की तरह एक तर्क दे रहे थे.
राहुल गांधी 1950 के दशक में चले गए, लेकिन दूरदर्शी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तेज़ी से 1970 के दशक की राजनीति पर पहुंच गए. उन्होंने पूछा, “इंदिरा गांधी का क्या? उन्होंने संविधान में जो बदलाव किए, और आपातकाल, जो इतना बुरा था? यह सब कांग्रेस की गलती थी.”
कांग्रेस ने कहा कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने अंबेडकर का अपमान किया है. इस पर मोदी ने ट्विटर पर जवाब दिया, “ये कुछ नहीं है. नेहरू ने अंबेडकर के साथ जैसा व्यवहार किया था, उसका क्या?” और चर्चा फिर वहीं पहुंच गई, जहां से राहुल ने शुरू किया था — 1950 के दशक में.
नेताओं के लिए वर्तमान में देश का माहौल और नागरिकों का भविष्य को लेकर डर कोई मायने नहीं रखता. जब नेता अपनी ‘फैंटम ज़ोन’ से बाहर झांकते हैं, तो उन्हें अंबेडकर, सावरकर और इंदिरा गांधी के पुराने झगड़े ज़्यादा मज़ेदार लगते हैं. क्या उन्होंने कभी सोचा है कि ये बहस आज हमारे लिए कितनी प्रासंगिक है? या उनकी ‘फैंटम ज़ोन’ में समय थम सा गया है?
यह भी पढ़ें: महाराष्ट्र, झारखंड के नतीजे दिखाते हैं भारत में चुनाव टेनिस मैच जैसे होते हैं : कार्ति चिदंबरम
एक देश, एक चुनाव एजेंडा
यह ऐतिहासिक चर्चा सरकार के नए “भव्य ध्यान भटकाने” के तौर पर सामने आई. प्रधानमंत्री कई सालों से कहते आ रहे हैं कि भारत में हर पांच साल में एक ही बार चुनाव होना चाहिए. सभी राज्य विधानसभा चुनाव लोकसभा चुनाव के साथ ही कराए जाने चाहिए.
यह उनकी ओर से एक अजीब स्थिति है, क्योंकि 1967 तक यही प्रक्रिया चलती थी. लेकिन बीजेपी के अनुसार, 1947 से 1967 का समय भारत के इतिहास का एक अंधकारमय दौर था. जब हमने इतने साल बर्बाद किए, जब “दुष्ट” नेहरू ने हमारे भविष्य को खराब कर दिया और संविधान को नुकसान पहुंचाने वाली इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं.
तो फिर, अगर बीजेपी मानती है कि उस समय भारत को खराब तरीके से चलाया जा रहा था, तो वह क्यों उस दौर में वापस जाना चाहती है?
इस सवाल का कोई ठोस जवाब नहीं है. इस बदलाव को सही ठहराने के लिए कई कमेटियां बनाई गई हैं, लेकिन उनके नतीजे कमजोर और असंतोषजनक रहे हैं.
एक साथ चुनाव से सरकार का खर्चा कम होगा. (क्या वाकई? तो फिर नए ईवीएम खरीदने पर खर्च होने वाले पैसे का क्या – या क्या यही इस योजना का आकर्षण है?)
आचार संहिता हर पांच साल में सिर्फ थोड़े समय के लिए लागू होगी, जिससे नेता बिना किसी रुकावट के वोट जीतने के लिए कल्याणकारी योजनाओं की घोषणा कर सकेंगे.
अगर एक साथ चुनाव हो, तो हमें बार-बार उन राज्यों में सुरक्षा बल नहीं भेजने पड़ेंगे, जहां चुनाव हो रहे हैं. (सच में? लेकिन क्या हमें एक साथ चुनाव में हजारों बूथों पर बहुत अधिक सुरक्षा बल तैनात नहीं करने होंगे? तो यह लाभ कैसे हुआ?)
जैसा कि आप देख सकते हैं, इनमें से कोई भी बात निर्णायक नहीं है. शायद एक साथ चुनाव हमारे लोकतंत्र के लिए बेहतर हो, शायद नहीं. निश्चित रूप से इसकी व्यावहारिक समस्याएं बहुत बड़ी होंगी.
चाहे जो भी हो, यह देश का सबसे बड़ा मुद्दा नहीं है. तो फिर हम इस पर इतना समय क्यों बर्बाद कर रहे हैं और सावरकर, इंदिरा गांधी और इतिहास की अन्य शख्सियतों को इस बेकार बहस में क्यों घसीट रहे हैं?
जब मोदी ने पहली बार स्पष्ट किया कि एक साथ चुनाव योजना उनकी प्रिय पसंद है, तो मैंने देखा कि क्या इससे उन्हें और बीजेपी को कोई राजनीतिक फायदा हो सकता है. उस समय ऐसा लगा कि यह उनके लिए फायदेमंद होगा. हर चुनाव एक राष्ट्रपति-शैली का चुनाव बन जाएगा. मोदी देश भर में प्रचार करेंगे, जिससे लोग क्षेत्रीय मुद्दों को भूलकर उनकी लोकप्रियता और उनकी सोच के आधार पर वोट देंगे.
दस साल पहले, यह तर्क सही लग सकता था. लेकिन पिछले आम चुनाव के नतीजों के बाद, मुझे यकीन नहीं है कि यह अब भी लागू होगा. कुछ महीने पहले, मोदी ने देश का व्यापक दौरा किया और अपने नाम और एजेंडे पर वोट मांगे. यह हमेशा कारगर नहीं रहा. यूपी, महाराष्ट्र और हरियाणा जैसे राज्यों में बीजेपी उम्मीद से काफी खराब प्रदर्शन किया. इन्हीं राज्यों में हुए विधानसभा और उपचुनावों में, जब मोदी कम नजर आए, तो बीजेपी और उसके सहयोगियों ने बेहतर प्रदर्शन किया.
यह स्पष्ट नहीं है कि बीजेपी को राष्ट्रपति-शैली के चुनावों से फायदा होगा, बल्कि यह भी तय नहीं है कि जब यह योजना लागू होगी, तब मोदी पार्टी के नेता भी होंगे या नहीं – अगर यह योजना संसद से पारित होती भी है.
तो फिर, वह ऐसा क्यों कर रहे हैं? यह उनके लिए इतना जरूरी क्यों हो गया है कि वह दो-तिहाई बहुमत पाने के लिए लगातार संघर्ष कर रहे हैं? हो सकता है कि उन्हें यह बहुमत न मिले और योजना खत्म हो जाए. फिर भी वह इसे लेकर इतने अड़े हुए क्यों हैं?
आपका अनुमान मेरा भी अनुमान हो सकता है. लेकिन इतना तो तय है कि इससे राजनीति ‘फैंटम ज़ोन’ में ही बनी रहती है, जहां वर्तमान वास्तविकता कभी दख़लअंदाज़ी नहीं करती और आम जनता को आकर्षित करने वाली सभी चीजें स्वागत योग्य होती हैं.
वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार हैं और टॉक शो होस्ट हैं. उनका एक्स हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)
यह भी पढ़ें: बंगाल में अभिषेक बनर्जी की महत्वाकांक्षाओं के बारे में कानाफूसी बढ़ रही है, ममता ने उन्हें कमतर आंका