पीएम नरेंद्र मोदी की बीजेपी कई बार ऐसे पत्ते खेलती है जिससे विपक्ष सकते में आ जाता है. सत्तारूढ़ दल से लड़ने के उसके सभी हथियार कई बार धरे रह जाते हैं. पिछले कुछ समय से देखा जा रहा है कि विपक्षी सदस्य बीजेपी के फैसलों का चाह करके विरोध नहीं कर पाते और उसी दिशा में चलने की उनकी मजबूरी हो जाती है. इसका ही परिणाम है कि विपक्ष न तो किसी तरह का संयुक्त मोर्चा बना पा रहा है और न ही एक मुद्दे पर कायम हो पा रहा है.
भारत में राजनीतिज्ञों और दलों ने चुनाव जीतने के लिए कई तरह के वोट बैंक बनाये हैं. उनके जरिये ही वे सत्ता में आते रहते हैं. संविधान के निर्माताओं ने तो ऐसी कोई व्यवस्था नहीं की थी लेकिन संविधान लागू होने के कुछ ही वर्षों के बाद यह खेल शुरू कर दिया था. इसकी वज़ह यह थी कि कांग्रेस आजादी के बाद के वर्षों में अपनी लोकप्रियता खोती जा रही थी और उसे सत्ता में बने रहने के लिए कुछ न कुछ करना था. इसलिए उसने जाति और धर्म के आधार पर वोट बैंक बनाने शुरू किये. जातिवादी वोट बैंक सबसे सफल रहे और राजनीतिज्ञों ने समय-समय पर इसका खूब इस्तेमाल किया. अभी भी बेधड़क कर रहे हैं. लेकिन लालू प्रसाद और मुलायम सिंह ने इससे एक कदम आगे बढ़कर एम-वाय कॉम्बिनेशन बनाया जो दशकों तक सफल रहा और अभी भी.
लेकिन जो वोट बैंक सबसे प्रचलित और पॉपुलर है वह दलित वोट बैंक है. इसकी चाहत में सभी दलों के नेता और यहां तक कि कई पत्रकार भी रहते हैं. वे गाहे-बेगाहे दलित कार्ड खेलते रहते हैं. माननीय कांशीराम के परिदृश्य से जाने और बहन जी के कमज़ोर पड़ जाने के बाद पार्टियों में इस बैंक को पाने की होड़ लगी हुई है. किसी समय कांग्रेस का सबसे बड़ा वोट बैंक कई वर्षों पहले उसके हाथ से फिसल गया और अब बीजेपी सहित कई पार्टियां इसमें हिस्सा बंटा रही हैं. देश के अन्य हिस्सों में भी जातियों के कई वोट बैंक है और राजनीतिक नेता उनके जरिये चुनाव में विजय पाते रहते हैं, मसलन कर्नाटक में लिंगायत, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में जाट, महाराष्ट्र में मराठा, गुजरात में पटेल, आंध्र में कप्पु वगैरह. इन्हें अपनी ओर चुनाव में खींचने का काम उनकी पार्टी के नेता करते रहे हैं.
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लेकिन अब तक भारत में आदिवासियों को कभी भी वोट बैंक नहीं माना गया. देश में साढ़े 10 करोड़ की आबादी के बावजूद उनके प्रति राजनीतिक नेताओं में उदासीनता रही. हां, झारखंड मुक्ति मोर्चा जैसी पार्टी है जो उस बैंक को संभाले हुए है. लेकिन कुल मिलाकर आदिवासियों के वोट बैंक में अन्य पार्टियां दिलचस्पी नहीं लेती हैं क्योंकि वे राजनीति में बहुत कम हिस्सा लेते हैं. इसके अलावा एक और बात यह रही है कि देशभर में लगभग एक हजार जनजातियां हैं जो एक दूसरे से अलग किस्म की जिंदगी बसर करती हैं. कई तो ऐसी भी हैं जो एक-दूसरे से बैर भी रखती हैं. उनकी जिंदगी कुछ इस तरह से होती है कि वे अपने-आप में खुश रहते हैं. आदिवासियों के कई कबीले तो ऐसे हैं जो शहरी लोगों से दूर ही रहना चाहते हैं जैसे संताल परगना की पहाड़ी जनजाति. ये पहाड़ियों पर ही रहती हैं और शहरों की जिंदगी से कटी रहती हैं.
इस तरह की कई जन जातियां हैं जो जंगलों से निकलकर शहरों या गांवों की तरफ जाती हैं तो महज कपड़े या इस तरह की इंडस्ट्रियल चीजों के लिए ही. उनकी अपनी दुनिया है. ऐसा नहीं है कि उनमें शिक्षा का प्रसार नहीं है लेकिन वह बहुत कम है. ईसाई मिशनरियों ने जगह-जगह स्कूल खोल रखे हैं. लेकिन थोड़े शर्मीले होने के कारण वे दूसरे लोगों से घुलते-मिलते नहीं हैं. ऐसे में वे किसी तरह का वोट बैंक नहीं बन पाते हैं. नतीजतन राजनीतिक दलों की प्राथमिकता की लिस्ट में वे बहुत पीछे रहते हैं.
नरेंद्र मोदी को भले ही टाइम मैगेजीन या कुछ आलोचक डिवाइडर इन चीफ ऑफ इंडिया मानकर कुछ भी लिख लें लेकिन उन्हें और उनका पार्टी को इस बात का श्रेय तो जरूर जायेगा कि उन लोगों ने देश की टुकड़े-टुकड़े में बंटी बहुत सी जातियों को एक मंच पर ला खड़ा कर दिया और जाति के आधार पर राजनीति करने वाली पार्टियों की दुकान में ताले लगा दिये. लेकिन इस बार पार्टी ने आदिवासियों को साथ लेने की बड़ी कवायद की और उड़ीसा की सादगी से भरपूर एक संताल महिला द्रौपदी मुर्मू को देश का राष्ट्रपति मनोनीत किया और उस शीर्ष पद पर बिठा भी दिया. इस घटना ने सारे देश ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियां बटोरीं. एक आदिवासी और वह भी महिला का इस तरह से राष्ट्रपति पद पर आसीन होना राजनीति की बहुत बड़ी घटना है. इसने दूसरी पार्टियों को चौंका दिया है.
बीजेपी ने इस अवसर को एक ऐतिहासिक इवेंट बनाकर एक बाजी जीत ली है. दूर-दराज के इलाकों में भी बीजेपी ने अपने तरीके से इसका पूरा प्रचार किया. बंगाल, झारखंड, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात में यह मैसेज लाउड और क्लियर ढंग से दिया गया कि बीजेपी आदिवासियों के हितों की रक्षा करने वाली पार्टी है. उन राज्यों के आदिवासी इलाकों में तो यह खबर अखबारों और टीवी चैनलों में प्रमुखता से दी गई और अभी भी इस पर चर्चा हो रही है. इसने बीजेपी को सुर्खियां बटोरने का ही नहीं बल्कि आदिवासियों के बीच पॉपुलर होने का मौका भी दिया. बीजेपी की इस घोषणा से विपक्षी पार्टियों में भी दरार पड़ गई.
तृणमूल कांग्रेस ने यशवंत सिन्हा को राष्ट्रपति चुनाव में विपक्षी उम्मीदवार बना तो दिया लेकिन जब द्रौपदी मुर्मू का नाम सामने आया तो पार्टी धर्म संकट में पड़ गई और उसके सदस्यों में से कइयों ने उन्हें वोट दे दिया. कई अन्य पार्टियों ने बीजेपी से बैर के बावजूद उन्हें वोट दिया. इस नये वोट बैंक ने राजनीतिक समीकरण बदल दिया.
संसद में जिस तरह से बीजेपी ने कांग्रेस नेता अधीर रंजन द्वारा राष्ट्रपति की बजाय राष्ट्रपत्नी शब्द के इस्तेमाल ने हंगामा बरपाया, वह उसकी इस रणनीति को रेखांकित करता है. उसने वोटरों का एक नया वर्ग तैयार कर लिया है जो उसके साथ अब जुड़ती दिख रही है. दलित-दलित चिल्लाने वाली पार्टियों या फिर नेताओं के सामने एक नया वोट बैंक आ गया है जिसमें सेंध लगाना आसान नहीं है और यह बैंक अब बढ़ता ही जायेगा.
आदिवासी राजनीतिक रूप से अन्य जातियों या जमात की तरह राजनीतिक रूप से जागरूक नहीं रहे हैं लेकिन इस अभूतपूर्व घटना ने उन्हें जगाया है. जातिवादी पार्टियों या फिर उन नेताओं के लिए यह एक घंटी है जो आदिवासियों की उपेक्षा करते रहे हैं सिर्फ इसलिए कि वे गोलबंद होकर वोटिंग नहीं करते. अब परिस्थितियां बदल दी गई हैं.
(मधुरेंद्र सिन्हा वरिष्ठ पत्रकार और डिजिटल रणनीतिकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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