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Sunday, 22 December, 2024
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बीजेपी भले ही राज्यों में सिकुड़ रही हो लेकिन विचारधारा फल-फूल रही है

भाजपा की सत्ता अब भले ही केवल कुछ बड़े और महत्वपूर्ण राज्यों तक सीमित हो गई है लेकिन उसकी हिंदुत्ववादी विचारधारा ने अपना वर्चस्व कायम कर लिया है और देशभर में इसका कोई बड़ा विरोध नहीं हो रहा है. 

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हाल में ‘इंडिया टुडे’ ने एक ग्राफिक प्रस्तुत किया है जिसमें 2017 से अब तक भारत के राजनीतिक नक्शे पर भगवा रंग के तुलनात्मक विस्तार को दर्शाया गया है. इसे देखकर कोई यह कह सकता है कि ‘गिलास आधा खाली है’, तो कोई यह भी कह सकता है कि ‘गिलास आधा भरा हुआ है’. पहली नज़र में इस ग्राफिक से यह तथ्य उभरता है कि भारतीय राज्यों पर भाजपा की सत्ता इन दो वर्षों में 71 प्रतिशत से घटकर 40 प्रतिशत पर पहुंच गई है. यह तब है जब आप सोच रहे होंगे कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की लोकप्रियता और उसका अजेय वर्चस्व अपने शिखर पर पहुंच गया है.

लेकिन यह वही ‘आधा खाली या आधा भरा’ वाले पुराने तर्क जैसा है. ‘आधा भरा’ वाला तर्क कहता है— जरा पिछली मई से लोकसभा चुनाव के जो नतीजे आए हैं उनके हिसाब से ऐसा ही नक्शा तैयार करके देखिए. इसके मुताबिक आपको किस पार्टी का वर्चस्व दिखता है? पूरे उत्तर भारत यानी हिन्दी पट्टी में, तटवर्ती पश्चिम और पूरब/उत्तर-पूर्व के बड़े भाग में भाजपा को कोई चुनौती नहीं दिखती है. यानी अगर फिर से चुनाव करवाया जाए तो नतीजे मई 2019 वाले नतीजों से अलग नहीं मिलेंगे. तो फिर, मोदी के आलोचक भला किस बात पर खुश हो रहे हैं?

लेकिन राजनीतिक हकीकत तो जटिल, कई परतों वाली है, और भगवा रंग की कई छवियों में दिखता है. आइए, इन परतों को एक-एक करके उठाकर देखें—

+ नरेंद्र मोदी अपने आप में विशाल व्यक्तित्व हैं, लेकिन वे इंदिरा गांधी नहीं हैं. या इसे दूसरी तरह से देखें तो कह सकते हैं कि भारतीय मतदाता इंदिरा युग के मुक़ाबले आज काफी समझदार हो गया है. वह लोकसभा और विधानसभा चुनाव में साफ फर्क करता है.

इसलिए, इंदिरा गांधी की तरह मोदी भी ‘बिजली के खंभे वाला चुनाव’ करवा सकते हैं यानी अपनी पार्टी के टिकट पर बिजली के खंभे को भी चुनाव जितवा सकते हैं, लेकिन केवल लोकसभा चुनाव, भी तब जब वे अपने नाम पर वोट मांग रहे हों. लेकिन इंदिरा गांधी की तरह वे यह करिश्मा विधानसभा चुनावों में नहीं कर सकते. महाराष्ट्र का मामला जरा जटिल है, जिस पर हम आगे विचार करेंगे. हरियाणा पर विचार करें. लोकसभा चुनाव के महज पांच महीने बाद भाजपा का वोट प्रतिशत 58 से घटकर 36 हो गया यानी 22 अंकों की गिरावट आ गई. और जहां यह उम्मीद की जा रही थी कि वह स्पष्ट बहुमत आसानी से हासिल कर लेगी, वहां उसे बहुमत के लाले पड़ गए. और यह एक ऐसे राज्य में हुआ जो अपनी सैन्य तथा राष्ट्रवादी परंपरा, अल्पसंख्यकों के गैरमहत्वपूर्ण वोट प्रतिशत के लिए जाना जाता है, और जहां अनुच्छेद 370 को रद्द किए जाने के महज 11 सप्ताह बाद चुनाव हुए हों.


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अब आंकड़ों को जरा उलटी तरफ से देखें. 2014 में भारी जीत के बावजूद मोदी किसी राज्य में ऐसा जादू नहीं कर पाए, हालांकि 2017 में उत्तर प्रदेश या कुछ छोटे राज्य जैसे हरियाणा, उत्तराखंड, हिमाचल और असम अपवाद हैं. लेकिन याद रहे कि इससे पहले 2015 में दिल्ली और फिर पंजाब में उन्हें शिकस्त मिल चुकी थी. गुजरात (2017) को तो उन्हें हंसते-खेलते जीत लेना चाहिए था मगर वहां कांटे की टक्कर ने उनके पसीने छुड़ा दिए. कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार के खिलाफ असंतोष के बावजूद और बेल्लारी बंधुओं के साथ शर्मसार करने वाले सौदे के बावजूद भाजपा बहुमत से वंचित रह गई थी. बाद में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ हाथ से निकल गए.

अब जरा आंकड़ों को पलटकर देखें. पंजाब को छोड़कर इनमें से हर राज्य में, जहां भाजपा हार गई या स्पष्ट बहुमत न ला सकी वहां वह लोकसभा चुनाव में सबका सफाया कर चुकी थी. अब देखें कि दिल्ली, राजस्थान, एमपी, छत्तीसगढ़ में, जहां वह ‘आप’ या कांग्रेस से हारी, वहां क्या हुआ.

+ सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह उभरता है कि, इंदिरा युग (जिसमें एक दल के वर्चस्व को नियति मान कर कबूल कर लिया गया था) के विपरीत भारत का संघीय ढांचा अब ज्यादा प्रखर दिखता है. अगर मतदाता लोकसभा और विधानसभा चुनाव में अलग-अलग विकल्प चुनने का फैसला करने लगा है तो यह नवीन पटनायक, के. चंद्रशेखर राव, वाइएस. जगन मोहन रेड्डी सरीखे नेताओं का साहस बढ़ाता है, जो अपना किला बचाना जानते हैं, भले ही वे भाजपा के प्रति बहुत आक्रामक न हों. यह अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी सरीखे नेताओं को भी सुकून देता है, जो भाजपा के प्रतिद्वंद्वी हैं. इस सप्ताह ममता को तीन उपचुनावों में जो जीत मिली है वह मतदाता की इसी मानसिकता को उजागर करती है. इनमें से दो सीटों पर तो उन्हें भारी अंतर से जीत मिली है जबकि छह महीने पहले लोकसभा चुनाव में उन्हें कड़ी मशक्कत करनी पड़ी थी.

इस प्रवृत्ति से खुश होने वाले तीसरी तरह के नेता वे हैं, जो भाजपा के सहयोगी हैं. ऐसे नेताओं में सबसे आगे नीतीश कुमार हैं. याद रहे, बिहार में अगले साल ही चुनाव होने हैं. लेकिन असम के प्रफुल्ल कुमार महंत भी नागरिकता संशोधन विधेयक के खिलाफ फिर से विरोध शुरू कर सकते हैं, और दुष्यंत चौटाला अपने से ऊपर की ‘वेट कैटेगरी’ से मुक्केबाज़ी करने की महत्वाकांक्षा पाल सकते हैं.

+ ‘इंडिया टुडे’ का ग्राफिक फिलहाल 17 राज्यों को भाजपा की झोली में दिखा रहा है. मगर यह आधा सच ही हो सकता है. इनमें से कुछ, खासकर बिहार और हरियाणा में उन सहयोगियों का साथ है जिनकी विचारधारा भी बिलकुल अलग है और निहित स्वार्थ भी अलग हैं. मेघालय, नागालैंड, और मणिपुर ऐसे राज्य हैं जिन्हें राजनीतिक वजहों से खरीदा हुआ कहा जा सकता है. इसलिए उन्हें भाजपा के राज्य नहीं कहा जा सकता. सिक्किम, मिज़ोरम एनडीए के हिस्से हैं मगर भाजपा के नहीं हैं. इसका दूसरा और असुविधाजनक अनकहा आधा सच यह है कि भाजपा के कब्जे में केवल तीन बड़े राज्य हैं— उत्तर प्रदेश, गुजरात और कर्नाटक. इनमें आखिरी जो है वह ढुलमुल ही है.

+ मोदी-शाह मानक के प्रभावी होने के बाद से भाजपा एक सरल फार्मूले पर चल रही है. हिन्दी हृदयप्रदेश और पश्चिम के दो बड़े राज्यों को जीतो, और फिर अपनी झोली में यहां-वहां से छिटपुट कुछ डाल लो तो भारत पर बहुमत के साथ राज किया जा सकता है.


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अगर इसे राज्यों में नहीं दोहराया जा सकता, तो आप संघवाद के मुक़ाबिल हैं. इसका अर्थ है, मुख्यमंत्रियों से सौदे करो, कुछ ले-दे कर बात बनाओ और इस हकीकत को कबूल कर लो कि विरोधी राज्य पुलिस, कानून-व्यवस्था पर अपना नियंत्रण रखेंगे ही. हो सकता है कि कुछ राज्य (मसलन ममता) तुम्हारी ग्रांड योजनाओं, ‘आयुष्मान भारत’ सरीखी अच्छी योजनाओं को भी लागू करने से मना कर देंगे. उन पर हुक्म नहीं चलाया जा सकता. उनके साथ सम्मान और सद्भाव का व्यवहार करना ही होगा, उन्हें बराबरी का दर्जा भी देना पड़ सकता है. इसके लिए शैली और तौर-तरीके में बुनियादी बदलाव लाने की जरूरत है. क्योंकि, प्रधानमंत्री अक्सर जिस ‘सहकारी संघीय व्यवस्था’ की बात करते हैं वह केवल मंत्र नहीं है, एक जरूरत भी है.

+ महाराष्ट्र के मामले पर गहरी नज़र डालिए. एनसीपी और कांग्रेस ने शिवसेना का साथ क्यों दिया? इसकी सीधी-सी व्याख्या यह है— वे अपने अस्तित्व, और सत्ता (भले ही वे इसके हकदार न माने गए हों) के लिए जद्दोजहद कर रहे थे. लेकिन शिवसेना ने साथ क्यों छोड़ा? क्योंकि उसके अपने राज्य में भाजपा जिस तरह से निरंतर विस्तार कर रही थी उससे उसे अपने वैचारिक आधार के लिए खतरा महसूस होने लगा था. शिवसेना की बगावत एकदलीय वर्चस्व का है, भले ही वह समान विचारधारा वाल दल क्यों न हो, साफ नकार है.

+ केंद्र-राज्य समीकरण अब उसी स्वरूप में पहुंच सकते हैं जिस स्वरूप में वे 1989-2014 वाले 25 वर्षीय दौर में थे. महाराष्ट्र से परेशान करने वाली आवाज़ें उठ रही हैं— बुलेट ट्रेन का विरोध, मेट्रो के खिलाफ दुखद धमकियां. आंध्र प्रदेश ने अमरावती की योजना को रद्द करके और सिंगापुर से लेकर यूएई के लूलू ग्रुप जैसे प्रसिद्ध विदेशी साझीदारों को खारिज करके भारत के इन दावों की धज्जी उड़ा दी है कि वह ‘एफडीआई-फ्रैंडली’ है. प्रधानमंत्री को आगे बढ़कर इन मुख्यमंत्रियों को भी उसी तरह गले लगाना होगा जिस तरह वे विदेशी नेताओं को लगाते हैं.

+ और सबसे बड़ा मसला तो एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर) का है. इसे औपचारिक तौर पर खारिज करने में पहल भले ही ममता बनर्जी ने की हो, इस बात की संभावना नहीं नज़र आती कि गैर-भाजपा राज्य सरकारें इस तरह के विभाजनकारी, खतरनाक और अपने लिए प्रतिकूल विचार को कबूल करेंगी. उत्तर-पूर्व के छोटे राज्यों को अपने यहां के जनमत से निपटना है, जो नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएबी) का विरोधी है. जहां तक इसे लागू करने का मामला है, एनआरसी शुरू से ही बेजान है. संभावना यही है कि इसे चुनावी कारणों से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण वाला विचार माना जाता रहेगा, जैसा कि राम मंदिर मामले को तीन दशकों से माना जाता रहा है. जो भी हो, इसे एनआरसी-सीएबी के मेल के तौर पर आगे नहीं बढ़ाया जा सकेगा.

+ अंत में, अगर आप यह सोच रहे हों कि मैं केवल भाजपा की गिरावट की ही बात कर रहा हूं, तो कृपया इंडिया टुडे के उक्त ग्राफिक पर दोबारा नज़र डालिए, जिसमें भगवा रंग का विस्तार सिकुड़ता दिख रहा है. यह एक सीमित चुनावी हकीकत है. विचारधारात्मक/दार्शनिक तस्वीर की जांच कीजिए. पूरे भारत में एक भी ऐसा मुख्यमंत्री नहीं मिलेगा जिसने अनुच्छेद 370 को खारिज किए जाने या अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध करना तो दूर, उसका स्वागत करने से परहेज किया हो.


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पिछले दशकों में ये भाजपा/आरएसएस के प्रिय मुद्दे थे, जिन्होंने भारतीय राजनीति का ध्रुवीकरण किया. आज, कश्मीर और राम मंदिर मसलों पर जिस तरह की आम सहमति दिख रही है, वैसा ही कुछ समान नागरिक संहिता (यूनिफार्म सिविल कोड) के मसले पर उभरता दिख रहा है. यहां तक कि केरल की वाम मोर्चा सरकार भी सबरीमाला पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को लागू करने की हिम्मत नहीं कर पा रही. राहुल गांधी अपना जनेऊ दिखाने, अपना ब्राह्मण गोत्र बताने या मंदिरों के भ्रमण का दिखावा करने से परहेज नहीं करते.

भारत के नक्शे के राजनीतिक रंग जो भी हों, जहां तक आरएसएस/भाजपा के प्रमुख विचारों का मामला है, यह नक्शा भगवा रंग में रंग गया है. भाजपा नहीं, तो आरएसएस अब अपने विजय की आसानी से घोषणा कर सकता है. स्वर्ग में बैठे हेडगेवार, गोलवलकर और सावरकर इस पर सहमति में सिर हिलाएंगे.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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