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Friday, 20 December, 2024
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निर्भया से बिलकिस बानो तक, गैर-लामबंद पड़ी है सिविल सोसायटी और उसकी जगह लेने के लिए तैयार है RSS

भारतीय नागरिक समाज अपने बुनियादी अस्तित्व संबंधी मुद्दों से जूझने और अपने राष्ट्रवाद को साबित करने में पहले से ही इतना व्यस्त है कि यह सत्ता के सामने सच बोलने में सक्षम हो नहीं हो पा रहा है.

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नई दिल्ली: इंडियन सिविल सोसाइटी (नागरिक समाज) ने पिछले एक दशक में एक लंबी दूरी तय कर ली है. जरा याद कीजिए साल 2012 को और सोचिये कि कैसे निर्भया गैंगरेप कांड के बाद यह गुस्से और आक्रोश से उबल पड़ा था. अब जरा आगे बढ़ते हुए साल 2022 पर नजर डालें और इस बात पर ध्यान दें कि कैसे यह खबर आने के बाद कि केंद्रीय गृह मंत्रालय ने सीबीआई और एक विशेष अदालत की संस्तुति को खारिज करते हुए, दो सप्ताह के भीतर बिलकिस बानो के साथ सामूहिक बलात्कार करने वाले 11 दोषियों की समय से पहले रिहाई को मंजूरी दे दी है. इसी नागरिक समाज ने ‘चूं’ भी नहीं की निकाली. इन दोनों के बीच का विरोधाभास इससे तीक्ष्ण नहीं हो सकता.

इससे निकलने वाले निष्कर्ष से पीछा छुड़ा पाना मुश्किल है. हमारा नागरिक समाज जिसे कभी भारतीय लोकतंत्र की चारदीवारी माना जाता था, धीरे-धीरे, लेकिन निश्चित रूप से, गैर-लामबंद (डिमोबिलाइज) हो चुका है. यह अपने आप में बंटा हुआ है.

यह उसी बात का एक और स्पष्ट संकेत है जिसे मैंने अपने पहले के एक लेख में एक ऐसी ‘राजनीति’ के रूप में वर्णित किया था जो एक ‘आंदोलनकारी दल’ के प्रभाव में आ गई है. ऐसी पार्टी लोकतांत्रिक नवीनीकरण के एकदम खिलाफ होगी और ‘लोकप्रिय लामबंदी’ को रोकने के लिए अपने पास पर्याप्त रूप से मौजूद संगठनात्मक संसाधनों को लगा देगी. यह देखते हुए कि संघ परिवार के शीर्ष बुद्धिजीवी हमें यह याद दिलाने का कोई मौका नहीं चूकते कि कैसे वर्तमान सरकार ने हमारे मन-मस्तिष्क को ‘उपनिवेशवाद से मुक्त’ करने के लिए एक ऐतिहासिक परियोजना शुरू की है. वे निश्चित रूप से अपने कहे के अनुसार ही काम कर रहे हैं. ‘डिवाइड एन्ड रूल’ (फूट डालो राज करो) को अब कचड़े में डाल दिया गया है. अब नया मंत्र है – डिमोबिलाइज एन्ड रूल (लामबंदी तोड़ो, राज करो).


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भारत में सिविल सोसायटी का वर्गीकरण

साल 2007 में ‘जर्नल ऑफ डेमोक्रेसी’ द्वारा प्रकाशित एक निबंध में, राजनीतिक सिद्धांतकार नीरजा जयल ने भारत के नागरिक समाज के एक चार-स्तरीय वर्गीकरण के बारे में सोचने का सुझाव दिया था: पहले स्तर, (सीएस-1) के रूप में थे, नागरिक समाज और नागरिक संघ. इसके बाद आते थे- राज्य के विरुद्ध एक कॉउंटर-वेट (प्रतिरोधी भार) के रूप में काम करने वाला नागरिक समाज (सीएस-2), अत्यधिक पेशेवर रूप से कार्यरत विकासात्मक गैर सरकारी संगठन (सीएस3), और असभ्य समाज (अनसिविल सोसाइटी- सीएस4).

जयल का कहना था कि अंतिम श्रेणी में ऐसे संगठन शामिल थे जो खुले तौर पर कुछ सामाजिक समूहों के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त थे- इसके उदाहरण के तौर पर वह संघ परिवार के सदस्य संगठनों का उपयोग करती हैं- भले ही उनके कुछ उद्देश्य सीएस1 संगठनों के साथ ओवरलैप (आंशिक रूप से मिलते-जुलते) हो सकते हैं.

उल्लेखनीय रूप से, जयल ने तर्क दिया कि सीएस2 संगठनों और मुट्ठी भर सीएस1 संगठनों को छोड़कर, भारत में अधिकांश नागरिक समाज संगठन के लोकतंत्र के साथ अस्पष्ट, और कुछ मामलों में संघर्षपूर्ण, संबंध है. फिर भी यह निबंध भविष्य प्रति एक आशावादी दृष्टिकोण के साथ समाप्त हुआ था.

जयल द्वारा इस निबंध को लिखे जाने के 15 साल बाद उनके वर्गीकरण पर फिर से विचार करना और यह सवाल पूछना लुभावना लगता है कि भारत में आज के दिन का नागरिक समाज लोकतंत्र के संबंध में कहां खड़ा है? यह प्रश्न विशेष रूप से इसलिए भी प्रासंगिक है क्योंकि इसके बीच के अंतराल वाली अवधि में भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में आने का दूसरा दौर इसके 1990 और 2000 के दशक की तुलना में कहीं अधिक ‘लोकप्रिय अवतार’ में देखा गया है. जिसका अर्थ है कि जिस वर्ग को जयल ने ‘असभ्य समाज’ के रूप में वर्णित किया था, उसके प्रभाव क्षेत्र में नाटकीय रूप से वृद्धि हुई है. श्री राम सेना, गौ रक्षा दल, समाधान सेना, गौ रक्षा वाहिनी, हिंदू राष्ट्र दल- स्वयंभू रूप से नीतिपरायण, हिंदू बहुसंख्यक क्रोध से भरे ‘समाज सेवी’ संगठनों की सूची तेजी से बढ़ रही है.

इसलिए, यहां प्रासंगिक प्रश्न यह है कि क्या भारतीय नागरिक समाज के तत्व- जो परंपरागत रूप से लोकतंत्र के समर्थक रहे हैं- असभ्य समाज के इस ‘विकास’ के साथ आगे बढ़ रहे हैं.

आइए इसके विश्लेषण की शुरुआत सीएस 2 क्षेत्र के ‘घटनाक्रमों’ पर नजर डालने के साथ करें. यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि मोदी 1.0 और 2.0 सरकारें इस क्षेत्र को ‘अवैध बनाने’ के अपने दृढ़ संकल्प में एकनिष्ठ रही हैं.

चाहे वह उनकी गतिविधियों को आपराधिक ठहराने के लिए कठोर गैर-कानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (अनलॉफुल एक्टिविटीज (प्रिवेंशन) एक्ट – यूएपीए) का अत्यधिक उपयोग हो, उनके राष्ट्रवाद पर सवाल उठाने के लिए विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम (फॉरेन कंट्रीब्यूशन रेगुलेशन एक्ट-एफसीआरए) पर लगाम लगाना हो, या फिर रोज़मर्रा की बहसों में ‘अर्बन (शहरी) नक्सल’ शब्द का रणनीतिक रूप से प्रयोग करना हो, सत्ताधारी दल ने हरसंभव यह सुनिश्चित किया है कि सीएस2 संगठन अपने बुनियादी अस्तित्व से संबंधी मुद्दों में ही इतने व्यस्त रहें, कि सत्ता के सामने सच बोलने में सक्षम ही न हो सकें.

वास्तव में, जयल के वर्गीकरण को सिर के बल खड़ा करते हुए सरकार ने असभ्य समाज के अपने सहयोगियों को उस स्थान को हथियाने के लिए प्रोत्साहित किया है, जिसे खाली करने के लिए सीएस2 संगठनों को मजबूर कर दिया गया है. उदाहरण के लिए, जरा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के महासचिव, दत्तात्रेय होसबले के उस हालिया बयान पर ध्यान दें कि भारत में व्याप्त गरीबी का वर्तमान स्तर एक ‘दानव’ है जिसका ‘वध’ करने की आवश्यकता है. उदारवादी कमेंट्री में शामिल कई लोगों ने इसे सत्तारूढ़ प्रतिष्ठान द्वारा इस बात की मौन स्वीकृति के रूप में देखा कि इसके बड़े व्यवसाय का समर्थन करने वाली ‘नज इकोनॉमिक्स’ (किसी चीज को अपनाने के लिए धकेले जाने वाले अर्थशास्त्र) से प्रेरित महामारी से उबरने की नीति में सुधार की आवश्यकता है. कुछ ही लोगों ने ध्यान दिया कि होसबले ने यह बयान स्वदेशी जागरण मंच द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम के संदर्भ में दिया था जो कि ‘स्वावलंबी भारत अभियान’ के शुभारंभ की पहली वर्षगांठ के अवसर पर आयोजित किया गया था, और यह कार्यक्रम ‘नज इकोनॉमिक्स’ को बढ़ावा देने के लिए चलाया गया है न कि इसे कम करने के लिए.

इससे भी बहुत कम संख्या में लोगों ने होसाबले के बयान पर भाजपा की आधिकारिक प्रतिक्रिया पर गौर किया. इस बात को स्वीकार करते हुए कि होसाबले ने सरकार की आर्थिक नीति की ‘आलोचना’ की थी, भाजपा नेता करुणा गोपाल ने अपने एनडीटीवी वार्ताकार को याद दिलाया कि यह किसी कंपनी के ग्राहक संबंध प्रबंधन (कस्टमर रिलेशन्स मैनेजमेंट) टीम द्वारा उसके शीर्ष प्रबंधन को दी जाने वाली ‘रचनात्मक प्रतिक्रिया’ से ख़ास अलग नहीं है.

सीएस2 संगठनों के रक्षात्मक मुद्रा में होने, यदि वे पूरी तरह से हाशिए पर नहीं चले गए हैं तो, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि सीएस1 संगठन कमोबेश किसी भी प्रकार की विवादास्पद राजनीति में पड़ने से पीछे हट गए हैं.

हालांकि यह महामारी के बाद के माहौल, जहां गैर-राज्य वित्त पोषण के स्रोत सूख से गए हैं, में इन संगठनों की एक रणनीतिक प्रतिक्रिया भी हो सकती है, मगर यह तथ्य भी निर्विवाद है कि इन संगठनों द्वारा राज्य की शक्ति पर सवाल उठाने के लिए एक जीवंत सीएस2 स्थान की उपस्थिति एक महत्वपूर्ण पूर्व शर्त है.

अन्य एशियाई लोकतंत्रों पर एक तुलनात्मक नज़र इस तथ्य को और बल देने का काम करेगी. उदाहरण के लिए, जापान में, 1960 के दशक के बाद के नागरिक समाज के कार्यकर्ताओं ने नागरिक समाज की सक्रियता के लिए ‘प्रस्ताव शैली (प्रपोजल स्टाइल)’ वाले मॉडल की ओर रुख किया, जिसे उन्होंने पिछली पीढ़ी के सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा अपनाये गए अपेक्षाकृत अधिक संघर्षपूर्ण शैली से मिलने वाले ‘निराशाजनक रूप से धीमी गति से लाभ’ को देख कर अपनाया था.

जैसा कि साइमन एवेनेल ने तर्क दिया है, इस प्रक्रिया में जापानी नागरिक समाज देश के शीर्ष निगमों के हितों के प्रति समर्पित हो गया, जिससे वह बहुत से ऐसे कॉर्पोरेट सुधारों के रास्ते में आ गया, जो कि कुख्यात ‘विकास के खोए हुए दशक’ के बाद जापानी अर्थव्यवस्था को फिर से गति पकड़ाने के लिए आवश्यक थे.’

भारतीय नागरिक समाज द्वारा निर्भया मामले से बिलकिस बानो मामले तक तय की गई की दूरी को इस प्रकार एक साधारण सूत्र ‘नो सीएस 2=नो सीएस 1’ द्वारा परिभाषित किया जा सकता है और शायद यही इस तथ्य को बताता है कि सीएस 2 पर अपने हमलों को लेकर वर्तमान सरकार इतना अथक परिश्रम क्यों कर रही है.


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संकीर्ण रूप से परिभाषित सिविल सोसायटी

भारतीय नागरिक समाज के बारे में आशावादी लोग किसानों के सफल आंदोलन या शाहीन बाग विरोध की ओर इशारा कर सकते हैं. जबरदस्त उकसावे के बावजूद ये आंदोलन जिस तरह से लोकतंत्र और वैधता के पक्ष में मजबूती के साथ खड़े रहे, उसके लिए वे उल्लेखनीय हो सकते हैं, मगर कोई भी गंभीर विश्लेषक इन दो विरोधों के सीमित भौगोलिक और जातीय आधार की अनदेखी नहीं कर सकता है. एक असभ्य समाज का मुकाबला एक संकीर्ण रूप से परिभाषित नागरिक समाज द्वारा नहीं किया जा सकता है.

लेकिन, ‘अग्निपथ योजना’ या ‘रेलवे भर्ती प्रक्रिया’ के विरोध जैसे लामबंदी वाले आंदोलनों के बारे में क्या कहा जाये? क्या वे सभी समुदायों और भौगोलिक स्थानों से प्रतिनिधियों को एकजुट करने की हमारे नागरिक समाज की क्षमता की गवाही नहीं देते हैं? ऐसे सवालों के विपरीत, इस तरह की लामबंदी सीएस 1 और सीएस 2 संगठनों के घटते प्रभाव को ही और अधिक प्रमाणित करती है.

तुलनात्मक राजनीति की अवधारणात्मक शब्दावली के आधार पर, उन्हें ‘एनीमिक इंटरेस्ट ग्रुप’ वाली गतिविधि के स्वरूपों के रूप में चित्रित किया जा सकता है. ये सत्ता के दुरुपयोग को उजागर करने के लिए उपयोगी हो सकते हैं- जैसे चीन में लगातार होने वाले किसान आंदोलन का उदाहरण ले लें- लेकिन उनके पास राज्य को उस तरह से अपनी गलतियों को दुरुस्त करने के लिए मजबूर करने की शक्ति नहीं होती है, जैसे कि अधिक संसाधन प्राप्त और संगठित सहयोगी हित समूह (अस्सोसिएशनल इंटरेस्ट ग्रुप्स) कर सकते हैं.

अंत में, यह भी सवाल किया जा सकता ही कि, क्या यह सच नहीं है कि मोदी सरकार कश्मीर में स्थानीय निकाय चुनावों को बढ़ावा देकर ‘निचले स्तर से लोकतंत्र’ का समर्थन कर रही है? इन ‘विरोधी स्वरों’ के लिए, यह कहना पर्याप्त होगा कि पार्टी-विहीन स्थानीय लोकतंत्र लंबे समय से दक्षिण एशिया में तानाशाही नेताओं, पाकिस्तान में अयूब खान, बांग्लादेश में जियाउर्रहमान से लेकर नेपाल में राजा महेंद्र तक- का पसंदीदा शगल रहा है. सच तो यह है कि चीन में भी ग्राम स्तर के चुनाव होते रहते हैं.

(सुभाशीष रे, ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के जिंदल स्कूल ऑफ गवर्नमेंट एंड पब्लिक पॉलिसी में में प्रोफेसर और एसोसिएट डीन (रिसर्च) हैं. वे @subhasish_ray75 से ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें )


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