अब जबकि वर्ष 2019 खत्म होने को आया, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भारतीय राजनीति के सर्वाधिक निराश करने वाले किरदारों में से एक बनकर उभरे हैं. कभी नए ज़माने के प्रगतिशील और काम से मतलब रखने वाले नेता के रूप में प्रसिद्ध रहे नीतीश आज खुद का बेजान संस्करण नजर आते हैं – दिशाहीन, मित्रविहीन, अधीर तथा राजनीतिक विचारधारा और सामंजस्य से रहित.
राज्य में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र नीतीश कुमार उन नेताओं में से एक हैं जिन पर कि 2020 में सबकी गहरी नजर रहेगी.
नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और उस पर नीतीश के जनता दल (यूनाइटेड) के रवैये ने भारत के तेज बदलावों वाले राजनीतिक परिदृश्य में उनकी अप्रासंगिकता और कमजोर होती पकड़ को एक बार फिर से उजागर किया है.
बिहार में भाजपा गठबंधन के साथ सत्तारूढ़ नीतीश की पार्टी जदयू ने संसद में एक अनुदार सीएए कानून का समर्थन किया. हालांकि इसको लेकर विवाद भी हुए क्योंकि कई पार्टी नेताओं ने इस कदम का खुला विरोध किया, और कुछ ने परोक्ष रूप से ऐसा किया.
भले ही बिहार के मुख्यमंत्री का भाजपा से संबंध कभी नरम तो कभी गरम वाला रहा हो, पर वे अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि बनाए रखने के लिए प्रयासरत रहे हैं और मुसलमानों को अपना वोट बैंक भी मानते रहे हैं. लेकिन नागरिकता संशोधन विधेयक को जदयू के समर्थन के बाद उनके राजनीतिक और वैचारिक रुझान को लेकर एक बड़ा सवालिया निशान लग गया है और ये पूछा जाने लगा है कि क्या उन्होंने नरेंद्र मोदी के समक्ष घुटने टेक दिए हैं और इस तरह राजनीति के हाशिए पर धकेले जाने की बात मान ली है.
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अभी लोग उनकी बदली हुई प्राथमिकताओं को लेकर भ्रमित ही थे कि नीतीश ने एक बार फिर पलटी मारते हुए – शायद चिढ़े बैठे पार्टी नेताओं और मुस्लिम मतदाताओं को शांत करने के लिए – राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) को अपने राज्य में लागू नहीं होने देने का ऐलान कर दिया.
नरम-गरम रिश्ता
दोस्तों और दुश्मनों की फेहरिस्त बदलते रहने से लेकर अपनी मूल विचारधारा से डगमगाते रहने तक – नीतीश कुमार भारतीय राजनीति के शीर्ष पलटमार साबित हुए हैं.
इस परिदृश्य पर गौर करें. जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तो बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश ने 2002 के गोधरा दंगों में कथित भूमिका को लेकर मोदी के बिहार आने पर अघोषित रोक लगा रखी थी. और जब 2013 में मोदी को उसके अगले साल के चुनावों के लिए प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया गया तो उन्होंने भाजपा से संबंध तोड़ लिया था. वैसे ये नहीं भूलें कि वे भाजपा के साथ 1996 में तब आए थे जब पार्टी की हिंदुत्व की नीति तथा सांप्रदायिक रुख और राजनीति बिल्कुल स्पष्ट हो चुकी थी.
नीतीश राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के लालू प्रसाद से अलग होने के कुछ ही वर्षों के बाद 2017 में फिर से एनडीए के पाले में लौट आए. लालू उनके पुराने समाजवादी सहयोगी रहे हैं जो अपनी तमाम खामियों के बावजूद हमेशा धर्मनिरपेक्षता पर अडिग रहे हैं. वास्तव में, नीतीश अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार में कुछ समय के लिए केंद्रीय मंत्री भी रहे थे.
बिहार में विधानसभा चुनावों से पूर्व 2015 में जब नरेंद्र मोदी स्पष्ट ‘खतरा’ बन चुके थे, नीतीश कुमार ने राजद और कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने के लिए दोस्त से दुश्मन बने लालू यादव से दोबारा हाथ मिला लिया. इस एकजुटता को 2013 में शुरू हुए उस दौर के संदर्भ में देखा गया जब नीतीश मोदी के खिलाफ आक्रामकता दिखा रहे थे.
बिहार के 2015 के चुनाव में महागठबंधन को बड़ी जीत मिली और नीतीश कुमार एक बार फिर मुख्यमंत्री बन गए, हालांकि उनका राजनीतिक कद पहले जैसा नहीं रह गया था. पर ये हमजोली भी अल्पकालिक ही रही, जोकि नीतीश की पहचान है. वर्ष 2017 के आधा बीतते-बीतते नीतीश मोदी से अपनी नफरत को भूल प्रेमकमल खिलाते हुए भाजपा के पाले में लौट आए.
नीतीश कुमार जिस निरंतरता के साथ खास कर धुर विरोधियों के बीच पाला बदलते हैं, उसको देखते हुए हरियाणा की ‘आया राम, गया राम’ की व्यंग्योक्ति तक सहज लगती है. हालांकि नियमित पलटमारी का परिणाम ये हुआ है कि आज नीतीश पर किसी का भी भरोसा नहीं है, खास कर ‘मित्र’ नरेंद्र मोदी का तो बिल्कुल ही नहीं.
बदलता रुख
ऐसा नहीं है कि नीतीश कुमार सिर्फ दोस्त और दुश्मन ही बदलते रहते हैं. विचारधाराओं को लेकर भी उनकी यही स्थिति है. वह धर्मनिरपेक्ष रहना चाहते हैं, फिर भी मुखर हिंदुत्व वाली एक पार्टी के साथ मित्रता करते हैं. उन्हें मुसलमानों के वोट चाहिए और इसके लिए 2006 में उन्होंने 1989 के भागलपुर सांप्रदायिक दंगा मामले को दोबारा खोलने का कदम तक उठाया था, पर इसके बावजूद उन्होंने संसद में संदिग्ध उद्देश्यों वाले नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएबी) का समर्थन किया. असल में सीएबी का विरोध नहीं करने के नीतीश के रुख ने ही उनकी अनिश्चित और ढुलमुल राजनीति और विचारधारा को एक बार फिर उजागर करने का काम किया है.
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विधेयक का समर्थन करने के नीतीश के फैसले का जदयू के भीतर विरोध हुआ तथा प्रशांत किशोर और पवन वर्मा जैसे खुद उनके चुनिंदा नेताओं ने खुलकर उनकी आलोचना की.
इसके बाद एनआरसी को खारिज करने के पीछे नीतीश का अच्छा इरादा हो सकता है, पर इस बारे में एक सहज सवाल भी पैदा होता है – उन्होंने सीएए जैसे एक पक्षपाती और बहुसंख्यक नजरिए वाले कानून का समर्थन ही क्यों किया? सीएए का साथ देने की क्या बाध्यता थी जब भाजपा हमेशा इसे एनआरसी से जोड़ने की मंशा जताती रही है और दो-टूक शब्दों में कह चुकी है कि सीएए के बाद राष्ट्रव्यापी एनआरसी आएगा?
साख पर लगा बट्टा
नीतीश कुमार पहली बार 2005 में बिहार का मुख्यमंत्री बने थे. वह बिहार के काले अध्याय को खत्म कर नई इबारत लिखने के वायदे के साथ सत्ता में आए थे. उन्हें एक स्थिर, प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष नेता माना जाता था.
उनके प्रथम कार्यकाल को ‘सुशासन’ की उनकी शैली के लिए जाना गया जब राज्य में माहौल में स्पष्ट बदलाव दिखा, बुनियादी सुविधाओं का विकास हुआ तथा महिलाओं के लिए अधिक अनुकूल परिस्थितियां निर्मित हुईं और इसी कारण दशकों तक असुरक्षित और पिछड़े राज्य के रूप में बदनाम रहे राज्य में लड़कियों के अपनी साइकिलों पर स्कूल जाने की छवि ने 2010 के विधानसभा चुनाव के समय लोगों का ध्यान खींचा.
नीतीश उदारवादियों के प्रिय बन गए और उनकी छवि एक ऐसे क्षेत्रीय नेता की बन गई जो तमाम अच्छी बातों का प्रतीक था और जिसमें राष्ट्रीय परिदृश्य पर छाने की भरपूर संभावना थी. वह 2010 के चुनावों में जीतकर दोबारा सत्ता में आए. उस चुनाव को भी बिहार के अतीत के चुनावों के विपरीत एक निष्पक्ष और हिंसा रहित चुनाव के रूप में देखा गया.
पर 2010 और 2015 के बीच बहुत कुछ बदल गया. उन पांच वर्षों में नीतीश कुमार की राजनीतिक दिशा में आए भटकाव और उनकी सार्वजनिक छवि खराब होना उल्लेखनीय है. लेकिन 2015 के विधानसभा चुनाव के बाद जो हुआ वह कभी उदयीमान रहे एक नेता की साख के लिए और भी ज्यादा नुकसानदेह था.
वास्तव में बिहार में शराब पर 2016 के प्रतिबंध की उन अनेक लोगों ने भी आलोचना की थी, जो कभी नीतीश के लिए ‘उदार’ और ‘व्यावहारिक’ जैसे विशेषणों का इस्तेमाल किया करते थे. उनकी सरकार को आगे 2018 में शराबबंदी कानून में सजा के कतिपय प्रावधानों को हल्का करने पर बाध्य होना पड़ा.
नीतीश कुमार का मतदाता आधार – अत्यंत पिछड़ी जातियां, महादलित और महिलाएं – निकट भविष्य में उनके लिए काफी महत्वपूर्ण साबित होने वाला है. यह शायद दोबारा उनकी साख बनाने में सक्षम एकमात्र कारक भी है.
मित्रताओं और नीतियों को ताक पर रखकर सत्ता में बने रहने की अपनी उत्कट इच्छा और दिग्भ्रमित राजनीति के मद्देनजर नीतीश कुमार अपने पुराने व्यक्तित्व का धुंधला साया भर रह गए हैं. वह अब विकास का प्रतीक नहीं रह गए हैं, जिसके लिए कि उन्होंने बहुत प्रयास किए थे. आज घोर अवसरवादिता और निरंतर यू-टर्न के अलावा नीतीश की राजनीति और उनके व्यक्तित्व को परिभाषित करने वाली कोई बात नहीं दिखती है.
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सीएए-एनआरसी पर नीतीश के रवैये का एक अनपेक्षित परिणाम ये हुआ है कि वो राजनीति में एक बार फिर चर्चा में है जोकि नीतीश कुमार की पहचान बन चुकी है और जिसे इस फिल्मी गाने में अच्छे से व्यक्त किया गया है: इधर चला, मैं उधर चला, जाने कहां मैं किधर चला…
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