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Thursday, 14 November, 2024
होममत-विमतघाट से अपार्टमेंट की छतों तक पहुंचा छठ, क्या लोक उत्सव से धार्मिक पूजा में बदल रहा है

घाट से अपार्टमेंट की छतों तक पहुंचा छठ, क्या लोक उत्सव से धार्मिक पूजा में बदल रहा है

छठ का दायरा इतना बड़ा हो गया है कि महानगरों के बाजार छठ पूजन सामग्री से सज जाते हैं. यही नहीं ई-कॉमर्स साइट्स भी छठ पूजन सामग्री बेचने लगी हैं. छठ की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि रेलवे ने इस साल देश के विभिन्न हिस्सों से 250 छठ स्पेशल ट्रेनें चलाईं.

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नई दिल्ली: छठ पर्व का दायरा लगातार बढ़ रहा है और इसके साथ साथ इसका रूप भी बदल रहा है. छठ आमजन यानी लोक का त्यौहार रहा है. इस अर्थ में इसका देश और दुनिया में मनाया जाना लोक संस्कृति की जीत है. संस्कृति की दिशा अक्सर ऊपर से नीचे की ओर होती है. देश और समाज का अभिजन यानी इलीट जिस फैशन, कला, संस्कृति, भाषा, खान-पान, उत्सव को मनाते या अपनाते हैं, नीचे की जनता उसकी नकल करती है. इसे समाजशास्त्री एमएन श्रीनिवास ने संस्कृतिकरण कहा है हालांकि उन्होंने ये बात जाति क्रम में ऊंची और नीची मानी गई जातियों के बारे में कही है.

छठ ने इस मामले में उल्टी गंगा बहा दी है. अमीर या सामाजिक इलीट आमतौर पर जिन्हें अपने से नीचे मानते हैं, उनकी संस्कृति और परंपरा की नकल नहीं करते. लेकिन छठ उत्सव लोक से इलीट के पास जा रहा है. इसलिए इसे एक दिलचस्प अपवाद के रूप में देखा जाना चाहिए. ये जरूर है कि लोक से इलीट तक पहुंचने के क्रम में छठ का त्यौहार बदल रहा है और उसका लोक तत्व नष्ट हो रहा है.

मैं इस पूरी सांस्कृतिक प्रक्रिया को तीन हिस्सों में देखता हूं.


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छठ का क्षेत्र बड़ा हो रहा है

चार या पांच दशक पहले तक छठ मुख्य रूप से बिहार और नेपाल के तराई इलाकों में मनाया जाता था. मैं खुद अविभाजित बिहार के दक्षिणी हिस्से, यानी अब के झारखंड का हूं और मैंने इस त्यौहार के लोकप्रिय और व्यापक होते हुए खुद देखा है. बाद में कोलकाता, दिल्ली और मुंबई में रहने के दौरान इस त्यौहार के विस्तार का मैं गवाह रहा हूं. 1980 तक झारखंड में इस त्यौहार को उत्तर बिहार से आए लोग, जिनमें ज्यादातर मजदूर थे, ही मनाते थे. लेकिन झारखंड के औद्योगिक अंचलों में आबादी की संरचना बदलने के साथ बिहार की संस्कृति, भाषा और लोक जीवन का असर व्यापक हुआ और झारखंड के लोग भी छिटपुट इसे मनाने लगे. लेकिन ये बिहारी त्यौहार बना रहा.

दरअसल, बिहार से निकले लोग अपने साथ छठ लेकर देश और दुनिया के विभिन्न हिस्सों में गए. महानगरों में बिहार एसोसिएशन ने इस त्यौहार के लिए व्यवस्था करने का काम संभाला. अमेरिका में भी बिहार से गए लोग ही छठ मनाते हैं. बिहार के लोगों की संख्या शहरों में बढ़ने से वे कई जगह चुनाव के प्रभावित करने की स्थिति में भी आ गए. राजनीतिक दलों ने इस संभावना को भांप लिया. अब कई सरकारें और राजनीतिक दल छठ का इंतजाम करने में जुटते हैं. राजनीतिक दल से लेकर प्रधानमंत्री तक छठ की बधाई देना नहीं भूलते.

छठ का दायरा इतना बड़ा हो गया है कि महानगरों के बाजार छठ पूजन सामग्री से सज जाते हैं. यही नहीं ई-कॉमर्स साइट्स भी छठ पूजन सामग्री बेचने लगी हैं. छठ की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि रेलवे ने इस साल देश के विभिन्न हिस्सों से 250 छठ स्पेशल ट्रेनें चलाईं.


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छठ का मूल स्वरूप लोक यानी जनता वाला रहा है

ये एक ऐसा त्यौहार है, जिसमें कोई पौराणिक देवी-देवता नहीं हैं, कोई मूर्ति नहीं है, किसी संस्कृत मंत्र या श्लोक का स्थान नहीं है, पुजारी की इस पर्व में कोई आवश्यकता नहीं है और न ही दक्षिणा का कोई रिवाज है. छठ का कोई प्राचीन मंदिर भी नहीं है. किसी ग्रंथ में इस पर्व का कोई उल्लेख भी नहीं है. जनता अपने तरीके से छठ मनाती है और मनाने के तरीके में इलाके के हिसाब से काफी विविधता भी है. छठ गीतों की भाषा संस्कृत तो छोड़िए, हिंदी भी नहीं है. शारदा सिन्हा से लेकर अनुराधा पौडवाल ने बड़ी संख्या में बेहद लोकप्रिय छठ गीत गाए हैं जिन्हे छट के दौरान अभी भी बजाए जाता है, और मगही, भोजपुरी, वज्जिका और मैथिली समेत विभिन्न बिहारी लोक भाषाओं में हैं. ये गीत करोड़ों लोगों तक पहुंचे हैं.

छठ के बारे में एक धारणा ये भी है कि संभवत: ये बौद्ध संस्कृति का त्यौहार है. भाषाविद और वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय, आरा के प्रोफेसर डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह का तर्क है कि छठ त्यौहार का मूल भौगोलिक क्षेत्र वही है, जहां तथागत गौतम बुद्ध गए थे. उनके मुताबिक छठ के मुख्य प्रसाद ठेकुआ में दो आकृतियां सबसे ज्यादा बनाई जाती हैं. पहली आकृति है पीपल का पत्ता और दूसरा है धम्म चक्र. ये दोनों बौद्ध प्रतीक हैं.

वे छठ घाटों पर बनाए जाने वाली मिट्टी की वेदी और बौद्ध मनौती स्तूपों में काफी समानता पाते हैं. हालांकि उनके ये तर्क अभी प्रारंभिक रूप में हैं और इन पर और अध्ययन की आवश्यकता है. पुराने छठ गीतों से भी इस दिशा में कुछ संकेत मिल सकते हैं.

छठ के लोक स्वरूप का एक प्रमाण ये है कि शुरुआती दौर में खासकर शहरों और कस्बों में ये सामूहिक रूप से मनाया जाता था. छठ घाटों में जाति या हैसियत को लेकर कोई स्पष्ट विभाजन नजर नहीं आता. हालांकि परिवार और कुनबे के लोग एक जगह इकट्ठा नजर आ सकते हैं. गांवों में जाकर छठ जाति और समुदाय के विभाजन से प्रभावित हो जाता है. दिप्रिंट के लिए लिखे एक आलेख में द मूकनायक की संपादक मीना कोटवाल बताती हैं कि चुनाव कवर करने के लिए जब वे बिहार गई थीं तो उसी दौरान छठ हुआ था और उन्हें घाटों पर अलग अलग जातियों के लोग अलग अलग छठ मनाते दिखे. उन्होंने देखा कि दलित समुदायों के घाट अलग बने हुए थे. ये कहना मुश्किल है कि ये नया चलन है या पहले से चला आ रहा है.


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छठ का स्वरूप बदल रहा है

कभी नदी और तालाबों के किनारे तक सीमित रहा छठ अब महानगरों और शहरों की कॉलोनियों और अपार्टमेंट में पहुंच गया है. कॉलोनियों में अस्थाई गड्ढे खोदकर उनमें पानी भरकर घाट बना दिए जाते हैं, जहां जाहिर है, सभी लोग नहीं आ सकते. अब तो छतों पर भी पानी भरकर या हवा से फूलने वाले छोटे स्वीमिंग पूल के किनारे भी छठ पूजा हो रही है. ऐसी भी खबर छपी हैं कि पटना में कुछ बिल्डर इस बात का ध्यान रख रहे हैं कि छत पर छठ मनाने का बंदोबस्त हो. निजी तौर पर या कॉलोनी के अंदर अपने जैसे लोगों के साथ छठ मनाने के पीछे कारण ये बताया जाता है कि घाट अक्सर बहुत गंदे होते हैं और भीड़ भी ज्यादा होती है.

लेकिन इस क्रम में छठ का मूल स्वरूप यानी सामूहिकता नष्ट हो रही है. कॉलोनी या अपार्टमेंट में छत पर छठ मनाने का मतलब है कि अक्सर एक ही तरह के लोग एक जगह पर होंगे. भारत में शहरों की बनावट में जाति एक महत्वपूर्ण फैक्ट है. जनगणना के आंकड़ों के अध्ययन के आधार पर पाया गया है कि महानगरों में 60 से 70 प्रतिशत तक बसावट में दलित नहीं रहते. ये समस्या सभी जगह है, लेकिन ज्यादा गंभीर स्थिति गुजरात और पश्चिम बंगाल में है. इसका मतलब ये हुआ कि छठ का प्रसाद तमाम तरह के लोगों से लेना और देना भी नहीं हो पाएगा.

इसके अलावा एक और चीज जो छठ के साथ हो रही है, वह है इसमें धार्मिकता डालने की कोशिश. खासकर हिंदी के चैनल और अखबार लगातार ऐसे फीचर दिखा और छाप रहे हैं, जिसमें छठ के साथ एक धार्मिक कथा जोड़ दी गई है. इस कथा में बताया गया है कि षष्ठी नाम की देवी है, जो ब्रह्मा की बेटी हैं. एक राजा और रानी ने बेटा न होने पर उनका व्रत किया तो उन्हें बेटा हुआ. चूंकि लाखों लोगों तक पहुंचने वाले मीडिया प्लेटफॉर्म (1, 2, 3, 4 , 5) ये सब छाप रहे हैं, इसलिए इनके लोक में प्रचलित हो जाने की आशंका है. इसे बेटे की कामना में किया जाने वाले त्यौहार बनाया और बताया जा रहा है. यहीं नहीं, मीडिया द्वारा कुछ मंदिरों को छठ से जुड़ा हुआ भी बताया जा रहा है. एक संस्कृत मंत्र भी इस अवसर के लिए लाया गया है. अब मंत्र होगा तो पुजारी भी कितने दूर होंगे!

चूंकि हिंदू धार्मिकता इस समय का प्रभावी विचार है और मीडिया की ताकत इतनी ज्यादा है कि किसी भी विचार को वह जन जन तक पहुंचा सकता है, इसलिए इस लोक उत्सव को अपने मूल स्वरूप में बचा पाना शायद संभव नहीं होगा. इलीट इसे मना रहे हैं तो वे भी इस त्यौहार को बदलेंगे. इस बात के काफी आसार हैं कि छठ एक और धार्मिक उत्सव बन कर रह जाएगा.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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