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Friday, 15 November, 2024
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दूसरे चरण में बीजेपी के लिए बड़ी समस्या, वह काफी सीटों को गंवा सकती है

दूसरे चरण के चुनाव में BJP के भाग्य का फैसला बहुत कुछ कर्नाटक, राजस्थान और महाराष्ट्र में सीटों के लिए हुई चुनावी लड़ाई के नतीजों पर निर्भर है. पिछली बार बीजेपी ने इन राज्यों में बेहतर प्रदर्शन किया था, लेकिन इस बार उसे तगड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है.

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साल 2024 के लोकसभा चुनाव के दूसरे चरण में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का सामना एक विचित्र मुश्किल से था. उसे शुरुआत ऐसे भारी भरकम बढ़त से करनी पड़ी जिसका बचाव कर पाना लगभग असंभव है. साल 2019 में बीजेपी और उसके साथी दलों ने इस चरण में 87 में से 62 यानी लगभग तीन चौथाई सीटों पर जीत दर्ज की थी. तब इंडिया गठबंधन के दलों के हाथ महज़ 24 सीटें आई थीं. फिर भी, सत्ताधारी गठबंधन इस दूसरे चरण के चुनाव में कई कारणों से इत्मीनान नहीं पाल सकता.

साल 2019 के आंकड़े तब के वक्त से हुए विधानसभा चुनाव से झलकती ज़मीनी सच्चाइयों से मेल नहीं खाते. आप जैसे ही 2019 के बाद हुए विधानसभा चुनाव के आंकड़ों में झलकती बढ़त (तालिका 1 में कोष्ठकों में लाल अक्षरों में लिखे गए अंक) का तालमेल साल 2024 के दूसरे चरण की सीटों के साथ बैठाते हैं, आपको साफ दिखेगा कि मुकाबला बिल्कुल बराबरी का है : 44 सीटें एनडीए के खाते में जाते दिख रही हैं तो 43 सीटें इंडिया गठबंधन के खाते में. इसके अलावा, बीजेपी की एक मुश्किल यह भी है कि दूसरे चरण के चुनाव में चंद राज्यों को छोड़कर हर जगह उसकी अपनी सीटें अलग-अलग कोण से असुरक्षित हैं, जबकि इंडिया गठबंधन में शामिल दलों की पकड़ अपनी सीटों पर इतनी मजबूत है कि भाजपा के लिए वहां पंख पसार पाना भी मुश्किल है. बीजेपी को इस चरण के चुनाव में केवल नुकसान उठाना पड़ेगा और अगर एनडीए के कब्जे वाली सीटों पर मतदान का प्रतिशत इंडिया गठबंधन के कब्जे वाली सीटों पर हुए मतदान की तुलना में कम रहता है, जैसा कि 19 अप्रैल को हुए पहले चरण के चुनाव में हुआ था तो, एनडीए को सीटों का अच्छा-खासा घाटा होगा.

अपने हिस्से में मौजूद सीटों पर इंडिया गठबंधन की पकड़ मजबूत होने की बड़ी वजह है केरल, जहां दूसरे चरण के चुनाव में 20 सीटों पर मतदान हुआ. लोकसभा चुनाव के लिहाज़ से देखें तो बीजेपी अभी तक इस राज्य में अपना खाता भी नहीं खोल पाई है. हालांकि, पार्टी का वोट-शेयर लगातार बढ़ा है. साल 2019 में तिरुवनंतपुरम की सीट पर हुए मुकाबले में बीजेपी दूसरे स्थान पर रही और इस सीट पर पार्टी की लगभग 10 प्रतिशत वोटों से हार हुई, जबकि दो अन्य सीटों पर बीजेपी को कुल वोटों का लगभग एक चौथाई हिस्सा हासिल हुआ था. पार्टी अगर केरल में अपनी पहली जीत दर्ज करती है तो बेशक यह उसके लिए जश्न का मामला होगा, लेकिन ऐसा होने पर भी पार्टी की झोली में जा रही कुल सीटों की संख्या पर खास फर्क नहीं पड़ने वाला.

केरल में हमेशा की तरह इस बार भी असली सवाल यही रहने वाला है कि इंडिया गठबंधन के दो सहयोगी दलों यानी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व में चलने वाले यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) और सीपीआई-एम के नेतृत्व में चलने वाले लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट(एलडीएफ) के बीच किसके हिस्से में कितनी सीटें जानी हैं. साल 2019 में मौजूदा यूडीएफ में शामिल दलों ने सूबे की दो सीटों को छोड़कर बाकी सारी सीटें जीती थीं और यूडीए के वोट-शेयर में 7 प्रतिशत का इजाफा हुआ था. इसके बाद विधानसभा के चुनाव हुए तो एलडीएफ ने बाजी पलट दी और उसके वोट-शेयर में 6 प्रतिशत का इजाफा हुआ और वोटों में हुए इस इजाफे को ध्यान में रखें तो एलडीएफ को लोकसभा की 20 सीटों में 14 सीटों पर बढ़त हासिल होती दिख रही है. बहरहाल, केरल में विधानसभा चुनाव का तर्क लोकसभा चुनाव पर लागू नहीं होता. बीते तीन दशक में केवल 2004 को छोड़कर लोकसभा के सभी चुनाव में यूडीएफ ने एलडीएफ से बेहतर प्रदर्शन किया है क्योंकि सूबे के बेहद समझदार मतदाता अपनी राष्ट्रीय मौजूदगी जताने के लिए यूडीएफ को महत्वपूर्ण मानते हैं. इस बार यूडीएफ की झोली से 2-3 सीटें एलडीएफ झटक ले तो यही उसके लिए बड़ी खुशी की बात होगी.


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दूसरे चरण में जबरदस्त चुनावी जंग वाले राज्य

दूसरे चरण के चुनाव में बीजेपी के भाग्य का फैसला बहुत कुछ कर्नाटक, राजस्थान और महाराष्ट्र में सीटों के लिए हुई चुनावी लड़ाई के नतीजों पर निर्भर है. पिछली बार बीजेपी ने इन राज्यों में बेहतर प्रदर्शन किया था, लेकिन इस बार उसे तगड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है. कर्नाटक में दूसरे चरण के 14 सीटों पर मतदान के साथ सूबे में लोकसभा के चुनाव की शुरुआत हुई है और ये सभी सीटें सूबे के दक्षिणी हिस्से यानी पुराने मैसूर, कूर्ग तथा तटीय इलाके में हैं.

बीजेपी तटीय इलाके में परंपरागत तौर पर मजबूत है, लेकिन पुराने मैसूर में नहीं. साल 2019 में कांग्रेस को सूबे में मिली एकमात्र जीत पुराने मैसूर वाले इलाके में हासिल हुई थी जबकि एक सीट जनता दल(सेक्युलर) के खाते में गई थी. प्रभुत्वशाली वोक्कालिगा जाति का इस ग्रामीण इलाके में दबदबा है ठीक वैसे ही जैसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट समुदाय के लोगों का है. बीजेपी की उम्मीद वोक्कालिगा के नेतृत्व वाले जनता दल(सेक्युलर) के साथ उसके गठबंधन पर टिकी हैं ठीक वैसे ही जैसे कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय लोक दल(आरएलडी) के साथ गठबंधन पर. इस गठबंधन के सहारे बीजेपी सीटों के मामले में होने जा रहे नुकसान की भरपायी की उम्मीद लगाए बैठी है. पिछले रिकॉर्ड को देखें तो यह गठबंधन बड़ी समझदारी का फैसला जान पड़ता है. अगर साल 2013 के विधानसभा चुनावों के नतीजों को ध्यान में रखें तो कांग्रेस को दूसरे चरण के चुनाव में शामिल 14 सीटों में से 9 पर जीत हासिल होनी चाहिए, लेकिन इन्हीं सीटों पर अगर हम बीजेपी और जेडी(एस) के वोट-शेयर को जोड़ दें तो कांग्रेस की बढ़त घटकर महज़ तीन सीटों पर सिमट जाती है. बेशक यहां ये मानकर चला जा रहा है कि बीजेपी और जेडी(एस) को गठबंधन के कारण एक-दूसरे के वोट शत-प्रतिशत हासिल हो जाएंगे, लेकिन ऐसा नहीं भी हो सकता है. दूसरी बात ये कि कांग्रेस की उम्मीद सिद्धरमैया की सरकार की लोकप्रियता और उसकी पांच गारंटियों पर टिकी है जो ज़मीनी तौर पर स्पष्ट नज़र आ रही हैं. अगर सिद्धरमैया की सरकार की लोकप्रियता का रंग दूसरे चरण के चुनाव पर चढ़ता है तो बीजेपी-जेडी(एस) गठबंधन को अपने गढ़ में 3-5 सीटें गंवानी पड़ सकती हैं और ऐसा होने पर सूबे में आगे के चरण में गठबंधन को और भी नुकसान उठाना होगा.

दूसरे चरण के चुनाव में इंडिया गठबंधन के लिए राजस्थान में भी अवसर हैं, लेकिन उतने दमदार नहीं जितने कि पहले चरण के चुनाव में थे. सूबे में दूसरे और अंतिम चरण के चुनाव में मारवाड़, मेवाड़ और हरौती इलाके की सीटों पर मतदान हुए. इन इलाकों में साल 2019 में बीजेपी ने सारी सीटें जीती थीं और साल 2023 के विधानसभा चुनावों में भी पार्टी का प्रदर्शन बेहतर रहा था. अगर मानकर चलें कि विधानसभा चुनावों के वक्त जिस तरह वोट पड़े थे वैसे ही सूबे में लोकसभा चुनावों के इस दूसरे चरण में भी पड़ते हैं तो फिर राजस्थान में 26 अप्रैल को जिन 13 सीटों पर मतदान हुए उसमें कांग्रेस के लिए संभावनाएं 4 सीटों पर बनती हैं, लेकिन पार्टी बढ़त वाली इन सीटों में तीन सीटें और जोड़ सकती है क्योंकि इस बार कांग्रेस ने राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी(आरएलपी) के साथ गठबंधन किया है और चुनाव के बिल्कुल आखिर के समय में भारत आदिवासी पार्टी के साथ भी सहमति कायम हुई है. एनडीए को बाड़मेर में एक युवा करिश्माई स्वतंत्र उम्मीदवार के हाथों मुश्किलों का सामना करना पड़ा है. तो, बीजेपी राजस्थान में दूसरे चरण के चुनाव में 3-5 सीटें गंवा सकती है.

महाराष्ट्र में चुनाव को पांच चरणों में बांटा गया है और दूसरे चरण के चुनाव में मुकाबला कुछ आगे बढ़ा क्योंकि सूबे की ताकतवर पार्टी के टूटे हुए धड़े के साथ एनडीए के बनाए नए गठबंधन की जटिलताएं और भी ज्यादा खुलकर सामने आई हैं. मौजूदा सांसदों और विधायकों के लिहाज़ से देखें तो एनडीए को महाराष्ट्र में दूसरे चरण के चुनाव में बड़ी बढ़त हासिल है. एनडीए के घटक दल यानी एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली शिवसेना तथा अजित पवार के नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) ने पार्टी का मूल नाम और चुनाव-चिन्ह अपने हिस्से में रखने में कामयाबी हासिल तो की है, लेकिन पार्टी के प्रतीक-चिह्न पर नियंत्रण का मतलब ये नहीं होता कि आपका मतदाताओं की पार्टी-निष्ठा पर भी कब्ज़ा हो गया. तमाम संकेत यही बता रहे हैं कि ये धड़े जिन पार्टियों को तोड़कर बने यानी शिवसेना(उद्धव बालासाहब ठाकरे) और एनसीपी-शरतचंद्र पवार — उन्हें तादाद के लिहाज़ से पार्टी के कार्यकर्ताओं और मतदाताओं दोनों ही पर कहीं ज्यादा नियंत्रण हासिल है. अगर शिवसेना और एनसीपी को विधानसभा में पड़े वोट इस बार के चुनाव में दो हिस्सों में बराबर-बराबर बंट जाते हैं तो बीजेपी और उसके साथी दलों को दूसरे चरण के चुनाव में सूबे में 3 से 8 सीटें गंवानी पड़ सकती हैं. वंचित बहुजन अघाड़ी(वीबीए) की मौजूदगी स्थिति को और भी ज्यादा जटिल बना रही है. सूबे में दूसरे चरण के चुनाव में वीबीए ने 8 में 6 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए थे. इसमें अकोला की सीट शामिल है जहां से पार्टी के प्रमुख प्रकाश आंबेडकर चुनावी मैदान में थे. हालांकि, वीबीए 2019 की तुलना में कमजोर है, लेकिन कांटे की लड़ाई की स्थिति में इंडिया गठबंधन को नुकसान पहुंचा सकती है. कुल मिलाकर देखें तो इंडिया गठबंधन (यानी महाविकास अघाड़ी) को दूसरे चरण के चुनाव में सूबे में साधारण फायदा होता दिख रहा है.

दूसरे चरण के चुनाव में कुछ अन्य राज्यों में भी छिटपुट सीटों पर मतदान हुए और यहां बीजेपी को कम मात्रा में ही सही, लेकिन नुकसान हो सकता है. दूसरे चरण में मतदान वाली छत्तीसगढ़ की तीन सीटों पर कांग्रेस जीत की उम्मीद बांध सकती है क्योंकि दूसरे चरण में सूबे के कांग्रेस के दो शीर्षस्थ नेता — पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और पूर्व गृहमंत्री तमरध्वज साहू चुनावी मैदान में थे. पश्चिम बंगाल में बीजेपी उत्तरी बंगाल की तीन सीटों पर दमदार स्थिति में है. हालांकि, तृणमूल कांग्रेस(टीएमसी) ने विधानसभा चुनाव में इनमें से दो सीटें बीजेपी से छीन ली थीं. बिहार में सीमांचल और भागलपुर वाले इलाके में मुसलमान मतदाताओं की आबादी अच्छी-खासी है. इस इलाके में महागठबंधन (बिहार में इंडिया ब्लॉक) की असल चुनौती पूर्णियां में अंदरुनी गुटबाजी और किशनगंज में ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन(एआईएमआईएम) से है.

दूसरे चरण के चुनाव वाले शेष राज्यों में स्थिति कमोबेश पुरानी ही रहेगी. उत्तर प्रदेश में दूसरे चरण के चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की आठ सीटें दांव पर लगी थी और इन सीटों पर बीजेपी-आरएलडी गठबंधन को समाजवादी-कांग्रेस पार्टी गठबंधन के ऊपर साफ बढ़त हासिल है. इन सीटों पर दो चीजें समीकरण में कुछ फेर-बदल कर सकती है: कभी आरएलडी अलग राज्य की मांग किया करती थी, लेकिन इस बार मायावती ने इस मांग को फिर से उठाया है. दूसरी बात कि राजपूत मतदाताओं के मन में नाराज़गी है कि उनके समुदाय के नेताओं को बीजेपी ने उम्मीदवारों के चयन में हड़बड़ी में हटाने का फैसला लिया. मध्य प्रदेश में हालांकि, दूसरे चरण के चुनाव में 7 सीटों पर मतदान होने थे, लेकिन बेतूल की सीट पर मतदान बाद के वक्त में होगा क्योंकि यहां से बहुजन समाज पार्टी के उम्मीदवार की मृत्यु हो गई है. चुनाव वाली सभी सीटों पर बीजेपी का कब्ज़ा है और हाल के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने एक सीट को छोड़कर बाकी सभी सीटों पर बढ़त हासिल की है.

और, अब बात दूसरे चरण के चुनाव की सबसे निर्णायक चीज़ की है. दूसरे चरण के चुनाव में लोकसभा की जिन सीटों पर मतदान हुए उनमें साल 2019 में मतदान का प्रतिशत 70 रहा था जो 2019 के सभी चरणों के चुनाव से ज्यादा साबित हुआ. सवाल उठता है कि क्या साल 2024 के चुनाव में खासकर हिंदी पट्टी में मतदान का प्रतिशत कम रहने वाला है? ऐसा होना बीजेपी के लिए चिंता का सबब है क्योंकि पहले चरण के चुनाव में जिन जगहों पर एनडीए मजबूत थी और 2019 में जीत हासिल की, वहां मतदान का प्रतिशत उन सीटों के मुकाबले दो गुणा से भी ज्यादा कम हुआ जिन पर 2019 में इंडिया गठबंधन ने जीत हासिल की थी. बीजेपी की जीत वाली सीटों पर मतदान प्रतिशत में 5.1 प्रतिशत की कमी आई जबकि इंडिया गठबंधन के कब्जे वाली सीटों पर 2.4 प्रतिशत की. मतदान प्रतिशत के मामले में यही ढर्रा जारी रहता है तो फिर अगले चरण के चुनावों में बीजेपी के लिए चुनौतियां कठिन से कठिनतर होती जाएंगी.

(योगेंद्र यादव भारत जोड़ो अभियान के राष्ट्रीय संयोजक हैं. उनका एक्स हैंडल @_YogendraYadav है. श्रेयस सरदेसाई भारत जोड़ो अभियान से जुड़े एक सर्वेक्षण शोधकर्ता हैं. राहुल शास्त्री एक शोधकर्ता हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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