भारत का संविधान जाति के आधार पर भेदभाव का निषेध करता है. लेकिन ये भी सत्य है कि जाति के आधार पर भेदभाव या उत्पीड़न बंद नहीं हुआ. जाति कुछ लोगों को समर्थ और कुछ लोगों को वंचित बनाती है. इसका असर शिक्षा से लेकर धन संचय हर क्षेत्र में है. जाति को लेकर ताजा बहस जनगणना में जाति की गिनती के संबंध में है.
जहां केंद्र सरकार ने ये साफ कर दिया है कि अगली जनगणना में अनुसूचित जाति और जनजाति के अलावा बाकी जातियों की गिनती नहीं होगी और न ही पिछली सामाजिक आर्थिक और जाति जनगणना (एसईसीसी-2011) के आंकड़े जारी किए जाएंगे. वहीं, प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस के प्रमुख नेता राहुल गांधी ने ये मांग करके तापमान बढ़ा दिया है कि जाति जनगणना कराई जाए, एसईसीसी-2011 के जाति संबंधी आंकड़े जारी किए जाएं और आरक्षण पर लगी 50 प्रतिशत की सीमा हटाकर आबादी के अनुपात में वर्गों को आरक्षण दिया जाए.
इस आलेख के माध्यम से मैं ये स्थापित करने की कोशिश करूंगा कि जाति जनगणना को लेकर दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों- बीजेपी और कांग्रेस- की नीयत साफ नहीं रही है. दोनों दल जब विपक्ष में होते हैं तो सरकार को घेरने के लिए जाति जनगणना कराने की मांग करते हैं, क्योंकि इस मांग में यथास्थिति को तोड़ने की जबर्दस्त ताकत है, लेकिन सरकार में आने के बाद उनका नजरिया बदल जाता है और वे जाति जनगणना से पलट जाते हैं. इसका ये भी मतलब है कि ये पार्टियां ओबीसी हितों को लेकर गंभीर नहीं हैं और ये उनके लिए ये सिर्फ राजनीतिक और चुनावी मुद्दा है.
भारत में आखिरी बार 1931 की जनगणना में जाति के आंकड़े जुटाए गए. 1941 की जनगणना दूसरे विश्वयुद्ध में खर्च हो गयी. देश आजाद होने के बाद 1951 में जनगणना का समय आया तो जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने एससी और एसटी के अलावा, बाकी जातियों के आंकड़े न जुटाने का फैसला किया.
ये नीति 1980 तक लगभग बिना विवाद चलती रही. 1980 में बीपी मंडल ने दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग की रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंपी. इसमें उन्होंने बताया कि जाति के नए आंकड़े न होने के कारण आयोग का काम कितना मुश्किल रहा. उन्होंने जनगणना में जाति के आंकड़े जुटाने की सिफारिश की. 1990 में इस रिपोर्ट का वह अंश लागू हुआ, जिससे केंद्र सरकार की नौकरियों में ओबीसी आरक्षण का प्रावधान आया.
अगली जनगणना की तैयारियों के क्रम में एचडी देवगौड़ा की सरकार ने 1996 में फैसला किया कि अगली यानी 2001 की जनगणना में जाति के आंकड़े जुटाए जाएंगे. लेकिन 2001 से पहले ही केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बन चुकी थी और उस सरकार ने देवगौड़ा सरकार के फैसले को पलट दिया.
2011 की जनगणना से पहले लोकसभा में 2010 में जाति जनगणना पर व्यापक बहस हुई थी, जिसमें कांग्रेस और बीजेपी समेत सभी दलों के बीच आम सहमति भी बन गई थी. लेकिन मनमोहन सिंह की कैबिनेट ने आखिर ये फैसला लिया कि 2011 की दस वर्षीय जनगणना में जाति को शामिल नहीं किया जाएगा. इस तरह जाति जनगणना का एक और मौका चला गया.
इसके बदले सरकार ने उस समय बीपीएल परिवारों की संख्या जानने के लिए हो रहे सर्वे में जाति को शामिल कर लिया. ये सर्वे जनगणना आयुक्त नहीं करा रहे थे, न ही इसी जनगणना कानून 1948 के तहत कराया गया. इसे सरकारी कर्मचारियों की जगह एनजीओ कर्मचारियों, निजी व्यक्तियों और आंगनवाड़ी वर्कर से कराया गया. इसलिए इससे जाति के आंकड़े कभी नहीं आए. इस पर लगभग 4,800 करोड़ रुपए बर्बाद भी किए गए.
पिछली दो जनगणनाओं के अनुभव बताते हैं कि कांग्रेस और बीजेपी की कोई दिलचस्पी जाति जनगणना कराने में नहीं है. लेकिन यही पार्टियां बिना किसी समस्या के धर्म और भाषा के आंकड़े जनगणना में जुटाने का समर्थन करती हैं.
यह भी पढ़ें: मंदिर-प्रवेश का आंदोलन बहुत हुआ, अब ज्ञान-संस्कृति, न्याय और संपत्ति के मंदिरों में प्रवेश करने की जरूरत
जाति जनगणना पर अलग-अलग रणनीति
ऐसा लगता है कि ये पार्टियां जाति जनगणना पर दो अलग-अलग रणनीतियों पर चल रही हैं. वंचित जातियों का वोट पाने के लिए विपक्ष में रहने के दौरान ये जाति जनगणना का समर्थन करती हैं. लेकिन अपने इलीट ढांचे और इलीट हितों की रक्षा को ध्यान में रखकर वे, सरकार में रहने के दौरान, जाति जनगणना को अमल में आने नहीं देतीं.
इसके पीछे पांच प्रमुख कारण हो सकते हैं.
1. जाति जनगणना कराना राजनीतिक रूप से जोखिम का काम हो सकता है. दोनों पार्टियों ने वर्षों से अपने लिए एक सामाजिक आधार और संतुलन बनाया है. अगर जाति जनगणना से मिले आंकड़ों से ये पता चलता है कि कुछ जातियों की धन-संपदा और शिक्षा तथा संसाधनों में बहुत ज्यादा हिस्सेदारी है और कुछ जातियां बहुत ही वंचित हैं, तो इससे सामाजिक और राजनीतिक उथल-पुथल मच सकती है. इसका असर राजनीति पर किस रूप में पड़ेगा, इसका अंदाजा लगा पाना मुश्किल है.
2. जाति जनगणना के आंकड़े आने के बाद मुमकिन है कि आरक्षण की लिमिट बढ़ाने की मांग तेज हो जाए. साथ ही कुछ जातियों की आरक्षण की दावेदारी मजबूत भी हो सकती है, क्योंकि उनके पास आंकड़े होंगे. किसी भी सरकार के लिए इन मांगों को सैटल करना आसान नहीं होगा.
3. हालांकि ये तर्क कमजोर है, पर अक्सर नौकरशाही और जनगणना आयुक्त की तरफ से ये बात आती है कि भारत जैसे जटिल सामाजिक संरचना वाले देश में जहां जातियों की संख्या 4,000 से भी ज्यादा हो सकती है, जाति की जनगणना कराना पेचीदा काम होगा. बेशक ये काम जटिल है लेकिन जो काम 1931 में हो पाया, वह 2023 में असंभव क्यों हो रहा है, ये समझना मुश्किल है.
4. बीजेपी की उलझन को समझना आसान है. बीजेपी की वैचारिक आधार भूमि सावरकर का हिंदुत्व है, जिसमें विदेश से आए धर्मों को मानने वालों के मुकाबले भारत से बढ़े धर्म के मतावलंबियों की एकता कायम करने का दूरगामी लक्ष्य है. बीजेपी जब तक सावरकरवाद पर चलेगी, तब तक उसके लिए सबसे बड़ा काम हिंदू एकता कायम करना बना रहेगा. इसलिए बीजेपी हर उस कार्य का विरोध करेगी, जिससे हिंदुओं के बीच विभाजन हो या वंचित जातियों की अपनी पहचान बने.
5. दोनों दलों को वोट बेशक हर जातियों से मिलते हैं, पर उनकी संगठन की संरचना में सवर्ण जातियों का वर्चस्व है. इन दलों को शायद ऐसा लगता है कि अगर वे जाति जनगणना करा देंगे तो सवर्ण वर्चस्व को चुनौती मिलेगी और इस आशंका के कारण सवर्ण जातियों उनसे छिटक जाएंगी.
इनमें से कुछ समस्याएं वाजिब हैं. लेकिन राजनीतिक नेतृत्व को उसका समाधान करना चाहिए. भारत में चूंकि जाति आधारित सैकड़ों नीतियां हैं इसलिए उनके सही अमल के लिए जाति के आंकड़े आवश्यक हैं. आंख बंद करके बिना आंकड़ों के नीतियां बनाने में राष्ट्रीय संसाधन की बर्बादी भी होती है. आकड़े होने से नीतियां सही हकदार तक पहुंच पाएंगी. जाति के आंकड़े होने से आरक्षण संबंधी विवाद भी हल होंगे, क्योंकि सरकार तथ्यों के आधार पर फैसले ले पाएगी.
बीजेपी और कांग्रेस को जाति जनगणना को लेकर ईमानदार हो जाना चाहिए. न्यायसंगत समाज बनाने के लिए ये आवश्यक है.
(दिलीप मंडल इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व मैनेजिंग एडिटर हैं, और उन्होंने मीडिया और समाजशास्त्र पर किताबें लिखी हैं. उनका ट्विटर हैंडल @Profdilipmandal है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादनः ऋषभ राज)
(इस लेख़ को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: बाबा साहब क्यों चाहते थे कि अनुसूचित जाति के लोग सेना में भर्ती हों