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Friday, 22 November, 2024
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मुस्लिम बुद्धिजीवी RSS प्रमुख के DNA वाले बयान को यूंही न स्वीकारें बल्कि उनकी छुपी भावनाओं को समझें

मुस्लिम बुद्धिजीवी वर्ग खुद को अवसरवादी साबित करेगा यदि वह आरएसएस प्रमुख की इस टिप्पणी में निहित धारणाओं से नहीं जुड़ता है कि मुसलमानों का डीएनए हिंदुओं के समान है.

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अगर भारत की धार्मिक जनसांख्यिकी कुछ अलग होती तो क्या वो एक धर्मनिर्पेक्ष लोकतंत्र होता? जवाब के लिए बस आसपास देखना काफी है. सैम्युअल हटिंगटन ने अपनी अंतिम किताब हू आर वी? में ऐसा ही सवाल उठाया था. उसने पूछा था, ‘क्या अमेरिका वही अमेरिका होता जो वो आज है, अगर सत्रहवीं और अठ्ठारहवीं सदी में वहां ब्रिटिश प्रोटेस्टेंट्स नहीं बल्कि फ्रांसीसी, स्पेनी, या पुर्तगाली कैथलिक्स बसे होते? जवाब है नहीं. वो अमेरिका न होता; वो क्युबेक, मेक्सिको या ब्राज़ील होता’. मेहनतकश प्रोटेस्टेंट नैतिकता द्वारा साकार की गई एंग्लो-प्रोटेस्टेंट संस्कृति अमेरिकी संस्कृति का सार थी. इसी तरह जिसे हम भारतीय धर्मनिर्पेक्षवाद के तौर पर जानते हैं- धार्मिक सहअस्तित्व और गैर-भेदभाव- वो एक भारतीय बल्कि हिंदू सभ्यतागत विशेषता है, जो शायद मौजूद न रहती अगर मध्यकालीन इतिहास के दौरान अपने इतिहास और संस्कृति में भारत ने अधिक गहरी दरार का अनुभव किया होता.

हर देश उसके लोगों के लिए पवित्र होता है भले ही वो तीर्थयात्रा के लिए कहीं भी जाते हों. दुनिया भर के बौद्धों का तीर्थ स्थल बौद्ध गया बिहार और ईसाइयों का येरुशलम में है, लेकिन इससे अपनी ज़मीनों के लिए उनकी श्रद्धा कम नहीं होती. न ही मक्का की पवित्रता किसी ईरानी, तुर्क या पाकिस्तानी के लिए उनके मुल्कों के मामले में ऐसा करती है. बल्कि पाकिस्तान शब्द ही पुण्य भूमि का सटीक फ़ारसी अनुवाद है, एक ऐसा नाम जिसे अगर भारत के लिए इस्तेमाल किया जाए तो बहुत से भारतीय मुसलमान उससे विमुख हो जाते हैं. लोगों का अपने मुल्क के साथ रिश्ता सिर्फ राजनीतिक नहीं हो सकता. संवैधानिक अधिकारों की जड़ें इतिहास और संस्कृति में होती हैं. सरकार के साथ किसी का रिश्ता लेन-देन से जुड़ा हो सकता है, लेकिन मुल्क के साथ ये भावनात्मक होना चाहिए. मुसलमानों की भारत में जगह बतौर हिंदुस्तानी के है, विश्व उम्मा के उप-वर्ग के तौर पर नहीं है.


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भगवत का बयान- पहले भी महसूस किया हुआ

पिछले दिसंबर एएमयू (अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी) के अपने दीक्षांत संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो कहा उसके परिणाम की तरह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) प्रमुख मोहन भागवत ने हाल ही में मुसलमानों और भारत में उनके स्थान को लेकर एक बयान दिया जिसका बड़े कलात्मक आशय निकाला जा रहा है कि ये संघ विचारधारा से एक बड़ा प्रस्थान है. भागवत ने कहा कि मुसलमानों का डीएनए वही है जो पिछले 40,000 वर्षों से हिंदुओं का रहा है, इसलिए पूजा की एक अन्य विधि का पालन करने मात्र से वो अलग नहीं हो जाते. उन्होंने आगे ये भी कहा कि पुराना हिसाब बराबर करने के लिए हिंदुओं के मुसलमानों पर हावी होने का विचार लोकतंत्र के युग में बहुत ही बेतुका है. उन्होंने चुटकी लेते हुए कहा कि हिंदू-मुस्लिम एकता की बात करना व्यर्थ है क्योंकि दोनों के बीच कोई बुनियादी अंतर ही नहीं है. इसके अलावा उन्होंने भीड़ द्वारा मुसलमानों की हत्या की निंदा करते हुए उसे हिंदुत्व के विरुद्ध बताया और मुसलमानों से अनुरोध किया कि भारत में अपनी स्थिति को लेकर वो किसी शंका या भय का शिकार न बनें.

भले ही भागवत ने ऐसा कुछ न कहा हो जो आरएसएस हमेशा से नहीं कहती आई है- और बहुत से संशयवादियों ने कपटपूर्ण ढिठाई बताते हुए तेज़ी से इसका तिरस्कार कर दिया है- लेकिन बहुत से मुसलमानों के बीच उनके भाषण का हिंदुत्व विचारधारा में एक वैचारिक बदलाव के अग्रदूत के रूप में स्वागत करने की होड़ मच गई है. भागवत के बयान के बाद देखना ये होगा कि ये बुद्धिमान लोग भारतीय राष्ट्र के उनके विचार की प्रतिक्रिया नहीं बल्कि प्रत्युत्तर कैसे देते हैं, जिसका आधार धार्मिक मान्यता से इतर सामान्य उत्पत्ति और साझा इतिहास व संस्कृति है. बयान के आंतरिक तर्क को समझे बिना इसके काल्पनिक बहाव में बहते हुए इसपर ऐसे अर्थ लादने के प्रयास का जिनका इसमें इरादा नहीं था अवसर वाद कहकर निंदा की जा सकती है.

भागवत के दृढ़ वचन मुसलमानों से जुड़े तीन मुद्दों को छूते हैं: 1) राष्ट्रीयता/पहचान; 2) वर्चस्व का खतरा; और 3) भीड़ द्वारा हत्या जैसी लक्षित हिंसा.


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वास्तविकता से दूर, काव्यमय

भागवत ने मुसलमानों की संकीर्ण सांप्रदायिक पहचान को काव्यात्मक तरीके से चालीस हज़ार साल से भी पुरानी हिंदू वंशावली के साथ जोड़ते हुए उसे एक व्यापक राष्ट्रीय पहचान दे दी. इसमें सर सैयद अहमद ख़ान के मशहूर प्रकथन की गूंज सुनाई दे सकती है, ‘सदियों से हम उसी ज़मीन पर रह रहे हैं उसी ज़मीन की उपज खा रहे हैं उन्हीं नदियों का पानी पी रहे हैं जीने के लिए उसी ज़मीन की हवा में सांस ले रहे हैं. इसलिए मुसलमानों और हिंदुओं के बीच कोई अलगाव नहीं है. जैसे आर्य जाति के लोग हिंदू कहलाते हैं वैसे ही मुसलमानों को भी हिंदू कहा जा सकता है यानी वो लोग जो हिंदुस्तान में रहते हैं’.

अगर ये सुखद दृष्टि वास्तविकता से मेल खाती तो इस बिंदु की निंदा क्यों की जाती? इस्लाम भारत में आस्था और पूजा के तरीके – यानी ईश्वर को समझने और उस तक पहुंचने- के तौर पर कम और सांस्कृतिक पैकेज के तौर पर ज़्यादा आया जिसके साथ संप्रभुता का अधिकार भी था. इसके शाही धर्मशास्त्र को स्थानीय संस्कृति के साथ कोई समावेश नहीं चाहिए था, और उसके भीतर यहां की मिट्टी की किसी भी जैविक चीज़ के प्रति तिरस्कार का भाव था. इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि समावेश का विचार पहचान की राजनीति की नापसंद बना हुआ है. बिदअत के धर्मशास्त्र ने इस्लाम की पवित्रता को भारतीय प्रभावों से अलग रहने से जोड़ दिया, जिन्हें अभी भी घृणित और दूषित माना जाता है. इसके अलावा सत्तारूढ़ वर्ग अपना अधिकार विदेशी मूल से हासिल करता था और मुसलमानों में अधिकतर ऊंची जातियां विदेशी आक्रमणकारियों के वंशज है जबकि अधिकांश निचली जातियां स्वदेशी मूल की हैं.

पहचान की राजनीति जो दो-राष्ट्र के सिद्धांत की रीपैकेजिंग है उस धार्मिक तर्क के सहारे टिकी होती है जो धर्मांतरित लोगों को जड़ से उखाड़ फेंकता है, उनके इतिहास को बदनाम करता है, और उन्हें अपनी संस्कृति से नफरत कराता है. उनसे एक नई पहचान स्वीकार कराई जाती है और कल्पित पूर्वजों को अपनाने तथा एक विदेशी इतिहास और संस्कृति से जुड़ने को कहा जाता है. धर्मांतरित लोगों का विराष्ट्रीकरण एक ऐसी चिंता है जिसका समाधान एक सुधारात्मक धार्मिक व्याख्या से किया जाना है चूंकि क़ुरान में पहचान का ठिकाना वंश और राष्ट्र है धर्म नहीं (49:13).

भारत में धर्मांतरण का अनुभव अनोखा रहा है. किसी भी दूसरे देश में धर्मांतरण ने किसी की राष्ट्रीय पहचान को लेकर कश्मकश पैदा नहीं की. इस्लाम धर्म अपनाने के बाद एक अरब अरब ही रहा ईरानी ईरानी रहा और तुर्क तुर्क ही रहा. उनकी धार्मिक पहचान उनकी राष्ट्रीय पहचान का उपवर्ग ही रही है. सिर्फ भारत में ही ऐसा हुआ कि किसी की राष्ट्रीय और धार्मिक पहचानों के बीच टकराव की कल्पना की गई, और एक गंभीर समस्या तैयार की गई कि आप पहले भारतीय हैं या पहले मुसलमान हैं. ये मुद्दा किसी भी व्यवहारिक दोहरे विचार से परे है और इसके एक ज़बर्दस्त समाधान की ज़रूरत है.


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भेदभाव को देखे बिना तिरस्कार

भागवत के बयान का एक और बिंदु रहा है इस भ्रम का खंडन कि लोकतंत्र के अंदर एक समुदाय दूसरे समुदाय को अपने आधीन कर सकता है. हो सकता है कि इस तिरस्कार ने सर सैयद की उस आशंका को शांत किया हो कि एक समुदाय का दूसरे पर हावी होना अपरिहार्य है. उन्हें लोकतंत्र से जो आशंका थी उसके पीछे यही डर था कि हिंदू मुसलमानों पर हावी हो जाएंगे. लेकिन श्रेष्ठतावादी इच्छा को बेअसर करने के लिए पहचान की राजनीति की विघटनकारी गतिकी को जो समूहों को और अधिक छोटी होती इकाइयों में तोड़ती रहती है नियंत्रित करना होगा चूंकि लोकतंत्र को धार्मिक समूह नहीं बल्कि व्यक्तिगत नागरिक चलाते हैं.

फ्रांसिस फुकुयामा अपनी हालिया किताब आईडेंटिटी: दि डिमांड फॉर डिग्निटी एंड दि पॉलिटिक्स ऑफ रिज़ेंटमेंट में थाइमॉस की अवधारणा का आह्वान करते हुए तर्क देते हैं कि लोकतंत्र ने पहचान की समस्या का पूरी तरह समाधान नहीं किया है. थाइमॉस सुकरात की एक अवधारणा है जिसी रूपरेखा डायलॉग्स ऑफ प्लेटो में दी गई है. आत्मा का यही वो हिस्सा है जो मान-मर्यादा की पहचान के लिए लालायित रहता है. आइसोथीमिया वो मांग है जिसमें दूसरे लोगों के बराबर का दर्जा या सम्मान चाहा जाता है; जबकि मेगालोथीमिया वो इच्छा होती है जिसमें श्रेष्ठ समझे जाने की दरकार होती है. आइसोथीमिया आसानी से मेगालोथीमिया में बदल सकती है अगर कोई समूह इसी बात से चिंतित रहे कि उसे वो पहचान नहीं मिल रही जिसका वो अपने आप को हक़दार समझता है. इसलिए पहचान की राजनीति चाहे वो बहुसंख्यकवादी हो या अल्पसंख्यकवादी यथार्थ की खदान है क्योंकि आर्थिक हितों के विपरीत, पहचान पर कोई समझौता नहीं हो सकता.

भागवत मुसलमानों की एक तात्कालिक चिंता से मुख़ातिब थे जब उन्होंने भीड़ द्वारा हत्याओं की हिंदू-विरोधी कहकर निंदा की. हमने सुना है कि आतंकवाद इस्लाम-विरोधी भी है. खाना कैसा बना है ये चखने पर ही पता चलता है.

मुस्लिम बुद्धिजीवी वर्ग और उनके कथित नेताओं में भले ही आरएसएस प्रमुख के बयान का स्वागत करने की होड़ मची हो, लेकिन उनका प्रदर्शन बेहतर होता अगर उनमें इसकी अंतर्निहित धारणाओं के साथ जुड़ने की ईमानदारी होती.

लेखक एक आईपीएस अधिकारी हैं. वो @najmul_hoda पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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