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मंगलवार, 22 अप्रैल, 2025
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भगवद् गीता विकासशील भारत की जीवनरेखा है, यूनेस्को से मान्यता मिलना गौरव का क्षण है

इस साल, पहली हिंदू अमेरिकी कांग्रेस सदस्य तुलसी गबार्ड और सुहास सुब्रमण्यम और इसके बाद काश पटेल ने एफबीआई निदेशक के पद पर गीता पर हाथ रखकर शपथ ली.

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कानूनी पेशे में जाने का फैसला करने से काफी वक्त पहले, बचपन में हमेशा हिंदी फिल्मों में कोर्ट रूम के सीन देखते हुए, मैं हमेशा एक वाक्य से मोहित होती थी. कटघरे में खड़ा किरदार कहता था, “मैं गीता पर हाथ रखकर कसम खाता/खाती हूं कि मैं जो भी बोलूंगा/बोलूंगी सच कहूंगा/कहूंगी और सच के सिवा कुछ नहीं बोलूंगा/बोलूंगी”. भगवद गीता में ऐसा क्या खास था कि यह एक व्यक्ति को केवल सच बोलने के लिए मजबूर करती है?

इस अविश्वसनीय किताब से मेरा लगाव मेरी किशोरावस्था तक जारी रहा. अपने कानूनी करियर में ही मुझे समझ में आया कि गीता आज कितनी प्रासंगिक है — और क्यों इसे इतना पवित्र माना जाता है कि अमेरिकी हिंदू सांसद भी इस पवित्र ग्रंथ पर अपने कर्तव्य की शपथ लेने में गर्व महसूस करते हैं.

इस साल, पहली हिंदू अमेरिकी कांग्रेस सदस्य तुलसी गबार्ड और सुहास सुब्रमण्यम और इसके बाद काश पटेल ने एफबीआई निदेशक के पद पर गीता पर हाथ रखकर शपथ ली. इसलिए, यह भारत नहीं हर भारतीय के लिए और विश्व के हिंदुओं के लिए गर्व का विषय है कि भगवद गीता ने यूनेस्को के मेमोरी ऑफ द वर्ल्ड रजिस्टर में जगह बनाई है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाखों भारतीयों के गौरव को व्यक्त करते हुए खुशी ज़ाहिर की. उन्होंने लिखा, “यूनेस्को के मेमोरी ऑफ द वर्ल्ड रजिस्टर में गीता और नाट्यशास्त्र को शामिल किया जाना हमारी शाश्वत बुद्धिमत्ता और समृद्ध संस्कृति की वैश्विक मान्यता है.”

मेमोरी ऑफ द वर्ल्ड रजिस्टर

यूनेस्को मानवता की साझा विरासत को रजिस्टर के ज़रिए प्रिज़र्व रखता है — यह दस्तावेज़ का कलेक्शन है जो मानव जाति की विरासत को संजो कर रखता है. यह ज्ञान का एक बैंक है जो आने वाली पीढ़ियों को दिया जाएगा, इसलिए इन वस्तुओं में सदियों का ज्ञान समाहित है.

ऐतिहासिक रूप से, भारत में ज्ञान को विद्वान लोगों द्वारा संरक्षित किया जाता था जिन्होंने इसे भविष्य की पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रखने में अपना जीवन बिताया. प्राचीन शिक्षक जानते थे कि ज्ञान का कोई भी मूर्त रूप, जैसे कि किताब, इसे विनाश से नहीं बचा सकता. इसलिए, इसे मौखिक परंपरा के माध्यम से साझा किया गया, जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक फैलता रहा.

इन शिक्षकों और छात्रों ने अपने प्राचीन ज्ञान की रक्षा अपने जीवन से की, इसे भौतिक संपदा से ज़्यादा महत्व दिया. भारत ने अपने इतिहास में जितने भी आक्रमणों का सामना किया, उनके दौरान इस ज्ञान की रक्षा उत्साहपूर्वक की गई, इसे पीढ़ी दर पीढ़ी संपदा के रूप में आगे बढ़ाया गया. प्राचीन ग्रंथ भी मौजूद थे, लेकिन पुस्तकालयों को जला दिए जाने पर वह नष्ट हो गए.

भगवद् गीता 700 श्लोकों वाली एक सजीव विरासत है, जिसके बारे में विद्वानों का मानना ​​है कि इसकी रचना 200 से 400 ईसा पूर्व के बीच हुई थी. हालांकि, खगोलीय संदर्भों और हिंदू ब्रह्मांड विज्ञान के आधार पर, यह सुझाव दिया जाता है कि यह ग्रंथ 3067 ईसा पूर्व या उससे पहले लिखा गया था. यह अर्जुन और कृष्ण के बीच एक आध्यात्मिक-दार्शनिक संवाद है, जो वेद व्यास के महाकाव्य महाभारत का हिस्सा है.

भगवद गीता, वेदों और उपनिषदों के ज्ञान के अंशों से बनी है. प्रबंधन सिद्धांतों, दर्शन और वैज्ञानिक प्रवचन के संदर्भ में, इसे आज भी प्राचीन काल के जितना ही प्रासंगिक माना जाता है.


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प्रबंधन ग्रंथ: गीता

गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः (श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय के 11वें श्लोक का अंश)

“बुद्धिमान कभी जीवित या मृत के लिए शोक नहीं करता.”

इस श्लोक की व्याख्या प्रबंधन की दृष्टि से इस प्रकार की जा सकती है कि एक सच्चा नेता या प्रबंधक भावनात्मक उथल-पुथल या परिणामों से लगाव के आधार पर फैसला नहीं लेता है. श्लोक में, कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि जो आपके बस में नहीं, उसके लिए शोक मत कीजिए. इसी तरह, एक टीम लीडर को अस्थायी असफलताओं पर नहीं, बल्कि दीर्घकालिक लक्ष्यों पर ध्यान केंद्रित करके रणनीतिक स्पष्टता बनाए रखनी चाहिए.

योगस्थ: कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय |

सिद्ध्यसिद्ध्यो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते || (श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय के 48वें श्लोक का अंश)

“हे धनंजय! (अर्जुन), आसक्ति को त्यागकर, सिद्धि और असिद्धि में समान रहकर कर्म करो; क्योंकि समत्व ही योग कहलाता है.”

आधुनिक प्रबंधन में, यह माना जाता है कि एक सच्चा नेता सफलता या असफलता की चिंता नहीं करता. बल्कि, वह अपने द्वारा किए जाने वाले कार्यों के हो जाने पर फोकस करता है. असफलता के समय भी धैर्य रखना नेताओं के लिए एक महत्वपूर्ण गुण है और गीता हमें यही सिखाती है.

श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात् |

स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह: (श्रीमद्भगवद्गीता के तीसरे अध्याय के 35वें श्लोक का अंश)

“अपने नियत कार्यों को दोष युक्त संपन्न करना अन्य के निश्चित कार्यों को समुचित ढंग से करने से कहीं अधिक श्रेष्ठ होता है. वास्तव में अपने कर्तव्य का पालन करते हुए मरना दूसरों के जोखिम से युक्त भयावह मार्ग का अनुसरण करने से श्रेयस्कर होता है.”

आधुनिक संदर्भ में, इसका अर्थ यह लगाया जा सकता है कि एक प्रभावी नेता अपनी ताकत और कमज़ोरियों को जानता है और दूसरे की नकल करने की कोशिश नहीं करता. एक प्रभावी नेता अपने ही नेतृत्व का अनुसरण करता है. दूसरों की नकल करने की कोशिश करने से अकुशलता और असंतोष पैदा होता है, जो अंततः संगठन में अराजकता पैदा करता है.

कानून की पुस्तक: गीता

सक्ता: कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत |

कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् || (श्रीमद्भगवद्गीता के तीसरे अध्याय के 25वें श्लोक का अंश)

“हे भारत (अर्जुन), जिस प्रकार मूर्ख व्यक्ति अपने कर्तव्यों के प्रति आसक्ति रखते हुए कार्य करते हैं, उसी प्रकार बुद्धिमान व्यक्ति को भी संसार के कल्याण की इच्छा रखते हुए आसक्ति रहित होकर कार्य करना चाहिए.”

भगवद्गीता निष्पक्षता और निष्पक्षता के महत्व पर जोर देती है. कानूनी संदर्भ में, यह सिद्धांत स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका की अवधारणा के अनुरूप है. न्याय की देवी की आंखे बंद हैं, जो कानूनी व्यवस्था की निष्पक्षता और गैर-पक्षपातपूर्णता पर जोर देती है.

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन: |

स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते || (श्रीमद्भगवद्गीता के तीसरे अध्याय के 21वें श्लोक का अंश)

“सामान्य जन उनका पालन करते हैं, वे जो भी आदर्श स्थापित करते हैं, सारा संसार उनका अनुसरण करता है”

कानूनी व्यवस्था के लिए एक आदेश के रूप में व्याख्या की गई, इसका तात्पर्य यह है कि न्यायाधीश, कानून निर्माता और संवैधानिक अधिकारी अपने फैसलों या न्यायिक आचरण के माध्यम से कानूनी मानक निर्धारित करते हैं. इसलिए, उनके कार्यों में मानक शक्ति होती है, जो समाज के व्यवहार और अपेक्षाओं का एक आदर्श मॉडल प्रदान करती है.

संवैधानिक कानून में, यह इस अवधारणा के साथ संरेखित होता है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले या प्रख्यात न्यायविदों द्वारा कानूनी व्याख्याएं निचली अदालतों और नागरिकों के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत बन जाती हैं. वह सार्वजनिक नैतिकता, अधिकारों के विमर्श और संस्थागत व्यवहार को आकार देते हैं. यह हमें याद दिलाता है कि जिन लोगों को सार्वजनिक पद, विधायी शक्ति या न्यायिक जिम्मेदारी सौंपी जाती है, उन्हें पूरी ईमानदारी और निष्पक्षता के साथ काम करना चाहिए.

खगोल विज्ञान: गीता

हाल ही में मुझे आईआईटी दिल्ली में न्यूक्लियर मेडिसिन प्रैक्टिशनर डॉ. मनीष पंडित द्वारा महाभारत की सटीक तिथि निर्धारण पर लेक्चर में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया गया था. मैं प्राचीन भारतीयों की सटीक खगोलीय क्षमताओं को जानकर दंग रह गई. श्लोकों का अनुवाद करके, डॉ पंडित ने दिखाया कि भगवद गीता में डेटा को कैसे सटीक रूप से प्रस्तुत किया जाता है. अपनी हाई-स्कूल लेवल की संस्कृत के साथ भी, मैं समझ गई कि डॉ पंडित ने प्रभावी रूप से साबित कर दिया है कि गीता एक चौंकाने वाला सटीक ज्योतिषीय पंचांग है.

यह सोचना कि हमारे पूर्वज सुपरकंप्यूटर और सटीक दूरबीनों की मदद के बिना आकाश में सितारों और ग्रहों की सटीक स्थिति की गणना करने में सक्षम थे, उनकी बौद्धिक क्षमताओं के बारे में बहुत कुछ बताता है. यह गीता को एक जीवित परंपरा के रूप में संरक्षित करने की आवश्यकता को रेखांकित करता है. डॉ पंडित ने प्रोफेसर नरहरि आचार के शोध पर काम किया, जो अमेरिका में मेम्फिस, टेनेसी यूनिवर्सिटी में फिजिक्स डिपार्टमेंट में पढ़ाते थे. महाभारत की सटीक तिथि निर्धारण के लिए, डॉ पंडित ने प्लेनेटेरियम सॉफ्टवेयर की मदद से आचार के काम की पुष्टि की.

महाभारत से 140 से अधिक खगोलीय संदर्भों का उपयोग करते हुए, आचार्य ने महाकाव्य युद्ध की शुरुआत की प्रभावी तिथि निर्धारित करने के लिए रात्रि आकाश का अनुकरण किया. उद्योग और भीष्म पर्व में वर्णित ग्रहों की स्थिति और ग्रहणों को संरेखित करके, उन्होंने पाया कि यह तिथि 22 नवंबर, 3067 ईसा पूर्व थी. डॉ. पंडित के शोध ने मेरे इस विश्वास को और मजबूत किया कि भगवद गीता एक दिव्य रथ है जो हमें परम परलोक तक ले जाएगा और हमारी ज़िंदगी में हमें सही रास्ता दिखाएगा.

भरत मुनि का नाट्यशास्त्र

नाट्यशास्त्र भारत में प्रदर्शन कलाओं का सबसे पुराना संकलन है, जो नटसूत्रों पर आधारित है, जिनके बारे में कहा जाता है कि वह प्रदर्शन कला या नाटक के ग्रीक काल से भी पहले के हैं. भारतीय रंगमंच: प्रदर्शन की परंपराएं (1993) में, फार्ले रिकमंड ने अनुमान लगाया है कि नटसूत्र लगभग 600 ईसा पूर्व में लिखे गए थे.

नाट्यशास्त्र, सौंदर्यशास्त्र और धर्मशास्त्र को मिलाकर, नाट्यशास्त्र प्रदर्शन को एक आध्यात्मिक अनुष्ठान के रूप में देखता है जिसका उद्देश्य दर्शकों के भीतर गहरी भावनाएं जगाना है. यह केवल मनोरंजन से परे एक्सीलेंस पर ज़ोर देता है, कलाकारों को ईश्वर और मानव के बीच सेतु बनाने की रचनात्मक स्वतंत्रता देता है. संगीत, मंच पर लाइटिंग, मेकअप और बजट को आकर्षक और शाश्वत बनाते हैं.

पारंपरिक रूप से, भारत में कला गुरु-शिष्य संबंधों के माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचती रही है और नाट्यशास्त्र का उद्देश्य इस खजाने को ज्ञान के कुल भंडार के एक छोटे लेकिन महत्वपूर्ण हिस्से के रूप में समेटना है.

भरत मुनि का नाट्यशास्त्र और भगवद गीता वाल्मीकि रामायण के महान पदचिह्नों पर चलते हैं.

‘विकास भी और विरासत भी’ के नारे के अनुरूप, हम भारतीयों को अपनी जीवंत परंपराओं और सांस्कृतिक विरासत पर गर्व होना चाहिए. युवाओं को हमारी संस्कृति को अपनाने और हमारी ज्ञान प्रणालियों पर गर्व करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए.

यूनेस्को द्वारा हमारी विरासत के मूल्य को मान्यता दिए जाने से हमारा रुख सही साबित हुआ है. अमूर्त सांस्कृतिक विरासत सारथी की तरह होती है, जबकि मूर्त सांस्कृतिक विरासत स्वयं रथ होती है. किसी सभ्यता के लिए उसकी अमूर्त सांस्कृतिक विरासत उसकी जीवनरेखा होती है. अपने पूर्वजों की महान उपलब्धियों पर गर्व किए बिना विकसित भारत नहीं बन सकता. ऐसा करके ही वह भविष्य की चुनौतियों का सामना करने का आत्मविश्वास हासिल कर सकते हैं.

(मीनाक्षी लेखी भाजपा की नेत्री, वकील और सामाजिक कार्यकर्ता हैं. उनका एक्स हैंडल @M_Lekhi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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