अतीत फिर से वर्तमान की हकीकतों के सहारे उभरता है और नए क्रियाकलापों और घटनाओं के सहारे भूतकाल की याद दिलाता है. एक देश के तौर पर कई समस्याओं का सामना हर रोज़ उसके नागरिक करते हैं. नागरिक बनने की प्रक्रिया एक लंबी और सतत चलने वाला काम है. एक देश के तौर पर सत्ता चलाने वाले प्रशासकों का काम है कि वो अपने राष्ट्र राज्य को बेहतर बनाने के लिए इतिहास के गलियारों से झांके और उस समय हो चुकी गलतियों से सबक लेकर आगे बढ़ें. आगे बढ़ते हुए एक विचार और दृष्टि का होना बेहद जरूरी है.
भारत की दृष्टि से देखें तो ये विचार नए तरीकों से भी उभर कर सामने आ सकते हैं या अपने पुराने स्वतंत्रता सेनानियों की बातों के ज़रिए भी सीखा और समझा जा सकता है. एक राष्ट्र के तौर पर सबसे बड़ी चिंता होती है कि विश्व बंधुत्व कैसे कायम हो और राज्य में किसी भी प्रकार का उपद्रव और धार्मिक तौर पर दंगे न हों. ये बड़ी और ज़रूरी चिंता है. भारत के संदर्भ में यह इसलिए ज़रूरी हो जाती है क्योंकि हमने अपने देश के निर्माण में जिन मूल्यों को रखा उसमें समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, धर्मनिरपेक्षता जैसे मूलभूत और जरूरी तत्व शामिल थे.
इन तत्वों की रक्षा करना सरकार और नागरिक दोनों का काम है. लेकिन जब इनपर हमला होने लगे या इनके खत्म होते चले जाने की आहट सुनाई पड़े तो क्या किया जाए. ऐसे में किस प्रकार से प्रतिक्रिया दी जाए. यह अहम और वाज़िब सवाल हमारे सामने मुंह बाए खड़ा हो जाते हैं.
इन्हीं सवालों के जवाबों को तलाशने में स्वतंत्रता सेनानी और क्रांतिकारी भगत सिंह की समझ काफी व्यापक और ज़रूरी जान पड़ती है. भगत सिंह ने 1924 और 1927 में दो लेख लिखें. पहला, 1924 में कलकत्ता के साप्ताहिक पत्रिका मतवाला में ‘विश्व प्रेम’ में छपा और दूसरा, 1927 में कीर्ती पत्रिका में ‘धर्मवार फसाद ते उन्हा दे इलाज़’ यानी की ‘धर्म के नाम पर होने वाले दंगों का इलाज़’ के नाम से छपा.
जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर चमन लाल ने अपनी किताब ‘भगत सिंह – द रीडर’ में उनके लेखों का संग्रह किया है और उसे छापा है.
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लौटते हैं भगत सिंह के 1924 के लेख विश्व प्रेम की तरफ. लेख की शुरुआत में वे लिखते हैं, ‘वसुधैव कुटुंबकम जैसे अमूल्य विचार को रचने वाले कवियों के राजा की महानता को बता पाना मानवता के लिए असंभव है.’
भगत सिंह लिखते हैं कि उनके लिए विश्व प्रेम का असल मतलब सारी दुनिया में समानता से है. हमें समानता के विचार और समता के अर्थ को हर जगह पहुंचाना पड़ेगा और इसके लिए हमें उनपर अत्याचार भी करना पड़े तो हम करें जो इस विचार के खिलाफ हैं.
सिंह भगवान राम के द्वारा शबरी के झूठे बेर खाने और भगवान कृष्ण द्वारा सुदामा से लिए हुए कच्चे चावल को विश्व प्रेम का सबसे अच्छा उदाहरण बताते हैं. वे कहतें हैं कि अगर विश्व प्रेम के लिए आप खड़े होना चाहते हैं तो सबसे पहले आपको अपने पैरों पर खड़ा होना होगा. अगर आप इस विचार को सारी दुनिया में फैलाने चाहते हैं तो आपको सबसे पहले सीखना होगा की आपकी जो बेइज़्ज़्ती की जा रही है उस पर कैसे प्रतिक्रिया देनी है.
वे कहते हैं, ‘अगर इन सबको करने में, ये जानकर भी की सच्चाई क्या है, आपको जेल जाने का डर और फांसी पर लटक जाने का डर सता रहा है तो आप इस ढोंग को छोड़ दीजिए.’
बता दें कि ये सब बातें भगत सिंह तब लिख रहे थे जब भारत अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहा था. वर्तमान में देखें और समझें तो ये सारी बातें क्या आज भी उतनी हीं प्रासंगिक नहीं लगती हैं. ज़रा विचार कीजिए.
अब आते हैं भगत सिंह के दूसरे लेख धर्म के नाम पर होने वाले दंगों का इलाज़, जो कि 1927 में छपा था. उस समय के भारत की स्थिति पर सिंह लिखते हैं, ‘आज के भारत की स्थिति काफी दयनीय है. एक धर्म को मानने वाले दूसरे धर्म को मानने वाले को अपना दुश्मन मानते हैं. अगर ऐसी स्थिति है तो भगवान हीं हिंदुस्तान की मदद करें.’
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वो लिखते हैं कि ऐसी स्थिति में हिंदुस्तान का भविष्य काफी खराब है. इन धर्मों ने देश को काफी नुकसान पहुंचाया है. कोई इसका अनुमान भी नहीं लगा सकता कि धार्मिक दंगे कितने समय तक भारत को नुकसान पहुंचाते रहेंगे. इन दंगों ने विश्व की नज़रों में भारत की छवि को खराब किया है.
भगत सिंह इन दंगों के पीछे धार्मिक नेताओं और अखबारों को मुख्य कारण बताते हैं. जो लोग इन धार्मिक दंगों को भड़काने का मुख्य काम कर रहे हैं वो अखबार के लोग हैं. एक समय में पत्रकारिता के काम को बड़ी हीं अदब के साथ देखा जाता था लेकिन आज ऐसा नहीं है. इन लोगों ने उत्तेजक हेडलाइनों के ज़रिए समाज के ताने-बाने को तोड़ने का काम किया है. न केवल एक या दो जगह बल्कि कई जगहों पर दंगों को भड़काने का काम स्थानीय अखबारों ने किया है.
भगत सिंह लिखते हैं, ‘अखबारों का असल काम है कि वो लोगों को शिक्षित करें, उनकी संकीर्णता को समाप्त करें, सांप्रदायिक अहसास को खत्म करें, आपसी समझ विकसित करें और भारतीय राष्ट्रवाद की भावना जगाए. लेकिन इन्होंने अपना काम केवल संकीर्णता फैलाने, भेदभाव करना, दंगे फैलाने तक सीमित कर लिया है.’
भगत सिंह धार्मिक दंगों के पीछे का सबसे बड़ा कारण आर्थिक बदहाली को मानते हैं. वो कहते हैं कि अगर हमें इसके समाधान की तरफ जाना है तो सबसे पहले हमें हिंदुस्तान की अर्थव्यवस्था को ठीक करना होगा. क्योंकि हिंदुस्तान की आर्थिक स्थिति इतनी खराब हो चुकी है कि लोग अपने सिंद्धांतों को तोड़ने के लिए मज़बूर हो गए हैं. क्योंकि ये जीविका का सवाल बन जाता है.
धार्मिक उन्माद से बचने के लिए दूसरा समाधान भगत सिंग वर्गीय-चेतना को पैदा करना बताते हैं. वो कहते हैं कि गरीब और मज़दूरों को समझना होगा कि उनके सबसे बड़े दुश्मन पूंजीपति है. इसलिए उन्हें उनके जाल में फंसने से बचना होगा.
भगत सिंह कलकत्ता में हुए दंगों का हवाला देते हुए कहते हैं कि व्यापारिक संघों में काम करने वाले लोग इसमें शामिल नहीं हुए और न ही वें आपस में धार्मिक आधार पर लड़ें. सभी हिंदुओं और मुस्लिमों ने सामान्य तरह से आपस में व्यवहार किया और यहां तक कि दंगों को रोकने का भी काम किया. ये इसलिए हो सका कि उनमें वर्गीय-चेतना थी और वो समझ रहे थे कि उनके वर्ग के लिए क्या बेहतर है. धार्मिक दंगों को रोकने के लिए वर्गीय-चेतना एक बेहतरीन उदाहरण है.
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इतिहास के सहारे हीं अब वर्तमान में लौट चलिए. देश के कई इलाकों में कहीं न कहीं धार्मिक आधार पर अव्यवस्था फैलने की खबरें आती हैं. कई बार मामला इतना बढ़ जाता है कि सांप्रदायिक दंगे जैसा माहौल पैदा हो जाता है. क्या लगभग 9 दशकों के बाद भी हम दंगों को रोकने और उसके मनौविज्ञान को समझने में असफल रहे हैं. क्या हमने इसके लिए कभी कोशिश की है. क्या भगत सिंह के सुझाए समाधानों के ज़रिए इसपर काबू पाया जा सकता है और इससे भी बड़ा सवाल कि क्या हम उनके समाधानों को मौजूदा समय में अपनाने को तैयार हैं?