करीब चार साल पुरानी बात है. तत्कालीन वित्तमंत्री अरुण जेटली ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अनौपचारिक बातचीत के लिए कुछ पत्रकारों को अपने घर पर बुलाया था. बेशक, इस बातचीत की कोई खबर नहीं देनी थी. बातचीत दो घंटे से ज्यादा चली थी. जेटली ने जब इसके समापन का संकेत दिया और प्रधानमंत्री मोदी जब बाहर निकले तो मैं भी उनके पीछे-पीछे बाहर आ गया था. मैंने उनसे पूछा था, ‘सर, (मंत्रिमंडल का) रिशफल होगा या नहीं होगा इतना तो बता दीजिए.’ मैं उनसे गुजारिश करता रहा ताकि वे अपने मंत्रिमंडल में संभावित फेरबदल का कोई संकेत दे दें. प्रधानमंत्री ने मुस्कराते हुए मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा था, ‘आप चिंता मत करो, जिस दिन सोचूंगा उसी दिन कर दूंगा.’ यह उत्सुकता जगाने वाला जवाब था.
लेकिन हम रिपोर्टर लोग नेताओं के बयानों की अपनी व्याख्या कर लिया करते हैं. मेरी व्याख्या यह थी—‘ऐसा लगता है, उन्होंने अपनी टीम में फेरबदल करने का अभी फैसला नहीं किया है.‘ लेकिन प्रधानमंत्री ने अगर अगली सुबह इस बारे में ‘सोचा’ और उसी दिन फेरबदल कर दिया तब क्या होगा? इस खयाल ने थोड़ा परेशान कर दिया. हो सकता है कि ऐसा हो, लेकिन मेरी व्याख्या मेरे लिए सुविधाजनक लगी थी. यह मेरे तत्कालीन संपादक को काफी ठीक लगा, ऐसा मेरा मानना था.
अब जब भी कभी मंत्रिमंडल में हेर-फेर की अटकलें उभरती हैं तब मुझे मोदी का वह ‘जिस दिन सोचूंगा’ वाला जवाब याद आ जाता है. विधानसभाओं के चुनाव हो चुके हैं. 30 मई को मोदी के दूसरे कार्यकाल के दो साल पूरे होंगे. एक कैबिनेट मंत्री रामविलास पासवान और एक जूनियर मंत्री सुरेश अंगाड़ी का निधन हो चुका है, दो कैबिनेट मंत्रियों—अरविंद सावंत और हरसिमरत कौर बादल—ने बीते दो साल में इस्तीफा दे दिया है. फिर भी, ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री ने मंत्रिमंडल में फेरबदल और विस्तार के बारे में ‘सोचना’ नहीं शुरू किया है.
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नयी टीम के लिए कई उम्मीदवार
अपने पहले कार्यकाल में मोदी ने 6 महीने के अंदर मंत्रिमंडल का विस्तार कर दिया था और उनकी संख्या 45 से बढ़ाकर 66 कर दी थी. अपनी सरकार की दूसरी वर्षगांठ के चंद महीनों बाद ही जुलाई 2016 में मोदी ने एक बार फिर मंत्रिमंडल में फेरबदल किया था और मंत्रियों की संख्या बढ़ाकर 78 कर दी थी. इसके एक साल बाद भी उन्होंने मंत्रिमंडल में फेरबदल किया था.
मोदी ने 30 मई 2019 को 57 मंत्रियों के साथ प्रधानमंत्री पद की शपथ दूसरी बार ली, आज उनकी टीम 53 मंत्रियों की ही है.
अब क्या है जो दूसरे कार्यकाल में प्रधानमंत्री को मंत्रिमंडल में फेरबदल करने से रोक रहा है? उन्होंने इसके बारे में ‘सोचना’ क्यों नहीं शुरू किया है? बेशक, यह उनके ‘कम से कम सरकार, ज्यादा से ज्यादा शासन’ वाले नारे का असर तो नहीं ही उन्होंने जब मंत्रिमंडल का दूसरा विस्तार किया था तब उनकी 78 सदस्यीय यह टीम 2012 में डॉ. मनमोहन सिंह के अंतिम मंत्रिमंडल विस्तार के बाद बनी उनकी टीम जितनी बड़ी हो गई थी. इसकी वजह यह भी नहीं है कि इस टीम के अगले उम्मीदवार कमजोर हैं, बल्कि कुछ विकल्प तो बहुत ही अच्छे हैं. उदाहरण के लिए ज्योतिरादित्य सिंधिया, मंत्री के रूप में जिनकी कार्यकुशलता और प्रयोगशीलता की खुद उनके प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने तारीफ की थी. मोदी के लिए सिंधिया एक बड़ी थाती साबित हो सकते हैं. आखिर, मोदी को अपनी मौजूदा टीम में चाटुकारों और काम करने वालों के बिगड़े अनुपात पर गौर करना ही चाहिए.
ऐसे कई पूर्व मुख्यमंत्री हैं जिनका प्रशासनिक अनुभव केंद्र सरकार के लिए मूल्यवान साबित हो सकता है. ऐसे नेताओं में देवेंद्र फडनवीस, रमन सिंह, वसुंधरा राजे आदि. पूर्व उप-मुख्यमंत्री सुशील मोदी भी इसी गिनती में शामिल हैं. हिमंत बिसवा सरमा को भी दिल्ली लाया जा सकता है, हालांकि इस बार उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी से वंचित करना उचित नहीं होगा. दरअसल, असम की सरकार वे ही चला रहे थे और भाजपा को वहां जो दोबारा जनादेश मिला है उसका श्रेय भी उन्हें ही जाता है. इन सबके अलावा कई युवा सांसद भी हैं, जो प्रशासक के रूप में अपनी क्षमता साबित करने को तैयार हैं.
पीएमओ कंट्रोल रूम
मोदी ने मंत्रिमंडल में फेरबदल करने के बारे में ‘सोचना’ अगर नहीं शुरू किया है तो इसके केवल दो कारण हो सकते हैं. पहला यह कि सारे फैसले चूंकि पीएमओ से ही किए जाते हैं तो रोबो या दिग्गजों को मंत्री बनाने से भी क्या फर्क पड़ने वाला है. आप ऐसे मंत्रियों की संख्या उंगलियों पर गिन सकते हैं, जो अपने विभाग या सेक्टर की समझ रखते हैं. और मैं यहां उनके कामकाज की नहीं बल्कि केवल उनकी सहज योग्यता की बात कर रहा हूं. कई तो ऐसे हैं जिन्हें कुछ समझ में नहीं आता क्योंकि वे निर्णय प्रक्रिया में शायद ही शामिल होते हैं.
मंत्रिमंडल में फेरबदल को लेकर तत्परता में कमी की दूसरी वजह अति आत्मविश्वास और निश्चिंतता हो सकती है. जनता तो मोदी के नाम पर वोट देती है और उनकी लोकप्रियता कायम है. ‘मोदी बनाम कौन?’ जैसे सवाल का जवाब अभी किसी के पास नहीं है. शासन का उनका मॉडल चाहे अच्छा या बुरा हो, 2019 में देश की जनता ने उसे जबर्दस्त समर्थन दिया. तो अपनी टीम को लेकर वे अपनी नींद क्यों हराम करें या कोई प्रयोग क्यों करें?
लेकिन पश्चिम बंगाल के चुनाव नतीजे मोदी के लिए नींद से जागने की घंटी साबित होने चाहिए. बंगाल में भले उन्हें झटका मिला हो लेकिन वहां वे बेशक लोकप्रिय हैं. वैसे, बंगाल ने रविवार को उन्हें साफ संदेश दे दिया है कि वे मोदी को भले पसंद करते हों, उनका शासन मॉडल उन्हें पसंद नहीं है. 2014 में देश ने एक मजबूत और फैसले करने वाले नेता को वोट दिया था. 2019 में देश ने फिर मजबूत और फैसले करने वाले नेता और विकास के गुजरात मॉडल के पक्ष में वोट दिया. 2021 में नेता की लोकप्रियता हालांकि कायम है लेकिन उनके शासन मॉडल को लेकर संदेह बढ़ता जा रहा है. कोविड की महामारी ने खामियों को उजागर कर दिया है. सत्ता और निर्णय प्रक्रिया के अति केंद्रीकरण ने शासन के सभी स्तरों पर कार्यकुशलता में कमी और उदासीनता को जन्म दिया है.
मोदी अपने मंत्रियों को कोताही बरतने का दोषी नहीं ठहरा सकते क्योंकि उन्होंने उन्हें कभी कुछ बेहतर करने की ताकत नहीं दी. ऐसा लगता है कि मंत्रियों के कामकाज के आकलन की तीन कसौटियां तय कर दी गई हैं— ट्विटर और दूसरे मंचों पर अपनी मोदी भक्ति का दिखावा करते रहो; गांधी परिवार पर निरंतर हमले करते रहो; और अपनी हिंदू आस्था तथा राष्ट्रवादी पहचान का निरंतर दावा करते रहो. आश्चर्य नहीं कि जब लोग ऑक्सीजन, अस्पताल में बिस्तर और दूसरी मेडिकल सुविधाओं के अभाव में दम तोड़ रहे हैं तब मंत्रीगण संकट का सामना करने के लिए मोदी के महिमागान में व्यस्त हैं. यकीन न हो तो देखिए कि रोज वे क्या ट्वीट कर रहे हैं.
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(व्यक्त विचार निजी हैं)
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