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Thursday, 21 November, 2024
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बांग्लादेश, यूक्रेन, इज़रायल यही सिखाता है कि हर जंग का कोई ‘अंत’ तो होना ही चाहिए

अगर जंग से अपेक्षित नतीजे या उसके लक्ष्य अनिश्चित अथवा अस्पष्ट होंगे तो पूरी संभावना यही है कि वह एक अंतहीन या जीत न दिलाने वाली जंग में तब्दील हो जाएगी.

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सफर शुरू करने से पहले मंजिल का पता तो होना ही चाहिए. सफर अपने आप में कोई मकसद नहीं होता वह कोई मकसद हासिल करने का जरिया होता है. यह बात किसी देश की महान रणनीति के हिस्से के तौर पर चलाए जाने वाले सैन्य ऑपरेशन के लिए जितनी लागू होती है उतनी शायद किसी और मामले के लिए नहीं. अगर इस ऑपरेशन से अपेक्षित नतीजे या उसका लक्ष्य अनिश्चित अथवा अस्पष्ट होगा, तो पूरी संभावना यही है कि वह ऑपरेशन एक अंतहीन या जीत न दिलाने वाली लड़ाई में तब्दील हो जाएगा.

सेना के आकलनों की भाषा में इसे ‘लक्ष्य-उपाय-साधन’ का सांचा कहा जाता है. लक्ष्य, यानी राजनीतिक मकसद वाला राजनीतिक-सैन्य लक्ष्य. साधन, या संसाधन स्पष्ट होते हैं और सीमित होते हैं और वे मकसद की संभावनाओं को स्वतः सीमित कर देते हैं. इसलिए लक्ष्य हासिल करने के विभिन्न तरीके रणनीति के दायरे में निहित होते हैं और वे कई तरह की राजनीतिक और मानवीय शर्तों के कारण सीमित हो जाते हैं. यह सांचा गतिशील होता है और देश को अपने राष्ट्रीय हित के अनुसार या अपनी भौगोलिक अखंडता या संप्रभुता के लिए उत्पन्न खतरों के अनुसार उसके प्रयासों की दिशा निश्चित करता है.

वैसे, गौर करने वाली महत्वपूर्ण बात यह है कि दिशा चाहे जो भी चुनें, सब कुछ आपकी योजना के मुताबिक नहीं चल रहा हो तो जंग से बाहर निकालने की रणनीति भी जरूर तैयार होनी चाहिए.


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मकसद के लिए, और बेमकसद लड़ाई

1971 में, पाकिस्तानी फौज की लूटपाट और बर्बरता के कारण पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से लाखों शरणार्थी भारत में आ गए. उन्हें जगह और भोजन देने पर करीब 70 करोड़ डॉलर के खर्च का बोझ भारत की अर्थव्यवस्था पर आ पड़ा.

इसलिए तब लक्ष्य ऐसे हालात बनाने का था कि ये शरणार्थी अपने देश लौट सकें. यह लक्ष्य शांति के लिए राजनीतिक तथा कूटनीतिक प्रयासों से ही हासिल हो सकता था. अगर यह सफल न हुआ तो सैन्य कार्रवाई का विकल्प खुला था. और अंततः उसे ही अपनाना पड़ा. भारतीय सेना पूरे पूर्वी पाकिस्तान को अपने कब्जे में लेने में सफल रही, और एक नये राष्ट्र बांग्लादेश का जन्म हुआ, जहां विस्थापित लोग लौट सकें. पूरे बांग्लादेश को भले ही आज़ाद न कर पाते लेकिन अगर जरूरी जगह कब्जे में होते और शरणार्थियों लौट जाते तो भी राजनीतिक मकसद पूरा होता. इसलिए बाहर निकलने की रणनीति भी निश्चित थी.

1987 से 1990 के बीच श्रीलंका में भारत की भागीदारी, भारत-श्रीलंका शांति समझौता बिलकुल अलग मामला था. वहां शांति बहाल करवाने और श्रीलंका तथा विभिन्न उग्रवादी तमिल गुटों के बीच मध्यस्थ बनने के लिए ‘इंडियन पीस कीपिंग फोर्स’ (आइपीकेएफ) को भेजा गया. लेकिन आइपीकेएफ ने पाया कि उसे उन्हीं गुटों से लड़ना पड़ रहा है जिनकी सुरक्षा के लिए उसे भेजा गया था. वहां राजनीतिक या सैन्य लक्ष्य स्पष्ट नहीं था और लड़ाई से बाहर निकलने की कोई रणनीति तो नहीं ही थी. अपने 1200 सैनिकों को गंवा देने के बाद आइपीकेएफ जब वापस लौटा तो उसके पास अपने प्रयासों की कोई उपलब्धि दिखाने को नहीं थी— न राजनीति के मैदान में और न जंग के मैदान में.

आज जो दो जंग जारी है, पहली यूक्रेन और रूस के बीच, और दूसरी इज़रायल और हमास के बीच, उनमें भी वही दिशाहीनता दिख रही है. रूस ने जब ‘स्पेशल मिलिटरी ऑपरेशन’ शुरू किया था तब उसके राजनीतिक-सैन्य लक्ष्य क्या थे और उसने इसके किस तरह के अंत की कल्पना की थी? फरवरी 2022 में शुरू किए गए इस ऑपरेशन के दो साल पूरे होने वाले हैं, और इन लक्ष्यों का क्या हश्र हुआ यह कोई भी अंदाजा लगा सकता है. युद्ध में गतिरोध की स्थिति बन गई है और दोनों पक्षों के पास इससे बाहर निकलने की कोई रणनीति नहीं है, सिवाय इसके कि दूसरे पक्ष को नीचा दिखाने की बेमानी उम्मीद के साथ जंग में और ज्यादा सैनिक भेजते रहो, बलि का बकरा बनने के लिए. अपनी शर्म बचाने के लिए कोई समझौता, जिससे कम-से-कम थोड़े समय के लिए राहत मिले, करने से हिचक रणनीतिक नेतृत्व की कमी को ही उजागर करती है.

गाज़ा में भी हालात कोई अलग नहीं हैं. पिछले महीने इज़रायल में बर्बर आतंकवादी हमला करके हमास ने क्या हासिल करने की उम्मीद की थी? बेशक, उन्होंने ज्यादा मारक जवाबी कार्रवाई का अनुमान लगाया होगा. या वे अपनी कामयाबी पर ही हैरान हो रहे थे? जवाबी कार्रवाई तेजी से की गई और इजरायल ने अपने पास मौजूद सभी साधनों का इस्तेमाल करते हुए ‘ऑपरेशन स्वर्ड्स ऑफ आयरन’ शुरू कर दिया. हमास के हमले की बर्बरता के मद्देनजर उनका जवाब जैसा था वह समझा जा सकता है. लेकिन अधिकतर भुक्तभोगी आम नागरिक थे जो दोतरफा हमलों के शिकार हुए. इससे फौरन यह सवाल उभरता है कि ‘ऑपरेशन स्वर्ड्स ऑफ आयरन’ का अंत क्या सोचा गया था? क्या बीच का कोई लक्ष्य है जिसे हासिल करने पर जीत का एहसास किया जा सकता है? सभी बंधकों की बिना शर्त रिहाई से शायद शांति का रास्ता बनेगा.

प्रयोग मत कीजिए, अनुमान लगाइए

जहां तक भारत का सवाल है, उसे सीखने के लिए कई सबक हैं. भारत मनमाने आतंकवादी हमलों से अनजान नहीं है और उकसाए जाने पर उपयुक्त जवाब देता रहा है. लेकिन ये जवाब लोगों की भावनाओं को तुष्ट करने के मकसद से ज्यादा और समस्या के समाधान के मकसद से कम दिए जाते रहे. उदाहरण के लिए, जून 2015 में भारत ने मणिपुर में बागी नागा गुट ‘एनएससीएन-खापलांग’ के आतंकवादियों द्वारा 18 भारतीय सैनिकों की हत्या के जवाब में भारत-म्यांमार सीमा पर ‘ऑपरेशन हॉट पर्सूट’ शुरू किया. इसमें ‘एनएससीएन-खापलांग’ के 30-40 लड़ाके मारे गए और यह सफल रहा, लेकिन भारतीय बागी गुट म्यांमार में अड्डे बनाकर अभी भी रह रहे हैं.

इसी तरह, भारतीय वायुसेना ने फरवरी 2019 में पुलवामा आतनवादी हमले में सीआरपीएफ के 40 जवानों की हत्या के जवाब में ‘ऑपरेशन बंदर’ के तहत पाकिस्तान के बालाकोट में आतंकवादियों के प्रशिक्षण अड्डों पर हवाई हमला किया.

मौजूदा इजरायली ऑपरेशन की तरह यह जवाबी हमला भी मौतों की संख्या के कारण जरूरी हो गया था क्योंकि उसने हमारी सामूहिक भावना को चोट पहुंचाई थी. इसलिए कुछ तो करना ही था. वायुसेना ने मौके पर काम किया लेकिन दीर्घकालिक दृष्टि से क्या हासिल हुआ यह अस्पष्ट है. अगर सामान्य ऑपरेशनों की तरह, जो आज भी जारी हैं, मौतों की संख्या तीन-चार ही होती तब हमारा जवाब क्या ऐसा ही होता? और क्या हमारे जवाब ने समस्या को खत्म कर दिया, या यह केवल भारी उकसावे का हड़बड़ी में दिया गया जवाब था?

भारत को भविष्य में भी ऐसे उकसावों का सामना करना पड़ सकता है, वह भी जमीनी, समुद्री और हवाई, सभी पहलुओं से. यह तब स्पष्ट हो गया जब 19 नवंबर को हाउती आतंकवादियों ने ‘रेड सी’ में भारत जा रहे जापान-संचालित जहाज ‘गैलेक्सी लीडर’ का अपहरण कर लिया.

इसलिए, वक़्त की मांग है कि भारत भावी खतरों का पूर्वानुमान लगाकर उनका जवाब देने की योजना बनाए, तैयारी और पूर्वाभ्यास करे, न कि घटना घटने के बाद प्रयोगों को आजमाए, जो उसे हिंसा के बढ़ते दुष्चक्र में फंसा सकता है. घटना के सप्ताहों या महीनों बाद बड़े और लंबे ऑपरेशन की जगह निशाना बनाकर फौरन किया गया दंडात्मक हमला कहीं ज्यादा असरकारी साबित हो सकता है.

(जनरल मनोज मुकुंद नरवणे, पीवीएसएम, एवीएसएम, एसएम, वीएसएम, भारतीय थल सेना के सेवानिवृत्त अध्यक्ष हैं. वे 28वें चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ थे. उनका एक्स हैंडल @ManojNaravane है. यहां व्यक्त उनके विचार निजी हैं.)

(संपादन: आशा शाह )
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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