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Thursday, 25 April, 2024
होममत-विमतबांग्लादेश ने जिस शादी के फॉर्म से ‘वर्जिन’ हटाया वो महिलाओं के खिलाफ बातों से भरा है

बांग्लादेश ने जिस शादी के फॉर्म से ‘वर्जिन’ हटाया वो महिलाओं के खिलाफ बातों से भरा है

बांग्लादेश को समान नागरिक संहिता की ज़रूरत है. पुरुषवादी कानूनों में मामूली फेरबदल से महिलाओं को मामूली मानवाधिकार ही मिल पाएंगे.

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बांग्लादेश के उच्च न्यायालय ने आदेश दिया है कि मुस्लिम शादी के रजिस्ट्रेशन फॉर्म के कॉलम पांच में अब महिलाओं को अपने कुमारी (वर्जिन) होने की घोषणा करने की ज़रूरत नहीं होगी. पर क्या एक फॉर्म के किसी कॉलम में बदलाव से महिलाओं के खिलाफ पूर्वाग्रह रखने वालों की सोच बदलेगी?

तत्काल तीन तलाक को भारत में आपराधिक कृत्य घोषित किए जाने के बाद बहुतों को लगा था कि ये मुस्लिम महिलाओं की समानता का अधिकार सुनिश्चित करने की शुरुआत है. इसी तरह, बांग्लादेश उच्च न्यायालय के शादी के रजिस्ट्रेशन फॉर्म से कुमारी शब्द हटाने और पुरुषों की वैवाहिक स्थिति से जुड़ी जानकारियों को भी दर्ज करने के आदेश के बाद, बहुतों को लग रहा है कि इससे बागंलादेशी महिलाओं को बराबरी के अधिकार वाले युग की शुरुआत हो सकेगी. इस सोच का सच्चाई से कोई वास्ता नहीं है.

चूंकि धर्म महिलाओं को पुरुषों के बराबर नहीं मानता, इस पर आधारित कानून भी समानता की गारंटी कभी नहीं दे सकता. जब तक बराबरी के हक पर आधारित एक समान नागरिक संहिता नहीं बनाई जाती, धार्मिक कानूनों में मामूली फेरबदल से महिलाओं को बस मामूली मानवाधिकार ही मिल सकेंगे – स्थाई या पर्याप्त अधिकार नहीं.

इससे क्या बदलाव आएगा?

इस अदालती आदेश के बाद क्या अब बांग्लादेश में विवाहपूर्व यौन संबंधों, या तलाकशुदा महिलाओं कि यौन सक्रियता, या बड़ी उम्र की स्त्रियों की यौन चाहतों को स्वीकार्यता मिल सकेगी? अधिकांश लोग अब भी यही मानते हैं कि पत्नी मात्र पति की काम वासना को संतुष्ट करने के लिए होती है. यौन संपर्कों की तो बात ही छोड़ दें, पार्क में साथ बैठने मात्र पर किसी युवा जोड़े को भर्त्सना झेलनी पड़ सकती है, उन पर अश्लीलता और अनैतिकता के आरोप लगाए जा सकते हैं.


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आज भी, जब दुल्हन चुनने की बात आती है तो अधिकांश पुरुषों को कुमारी लड़की चाहिए, मानो उन्हें महज एक योनि की ज़रूरत हो, वास्तविक स्त्री की नहीं. ऐसे पुरुषों के लिए महिलाएं वस्तु मात्र होती हैं. इसलिए, शादी से पहले वे सत्यापित करने की ज़रूरत महसूस करते हैं कि भावी दुल्हन पूर्व में किसी और के साथ तो नहीं थी – और यही वजह है शादी के रजिस्ट्रेशन फॉर्म में इस तरह के कॉलम की मौजूदगी की.

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क्या सुहागरात में बिस्तर पर सफेद चादर बिछाने का रिवाज़ नहीं था? ये सिर्फ ये सुनिश्चित करने के लिए किया जाता था कि विवाहोपरांत प्रथम यौन संपर्क के दौरान दुल्हन का रक्तस्राव हुआ कि नहीं. यदि किसी कारण रक्तस्राव नहीं होता तो तत्काल ही दूल्हा और उसका परिवार उस पर संदेह करने लगते, और परिणामस्वरूप उसको अकल्पनीय यातनाएं दी जाती थीं. इसके विपरीत, पुरुष के बेवफाई करने पर भी कोई परवाह नहीं करता है.

फॉर्म के अन्य पुरुषवादी कॉलम

कॉलम पांच में बदलाव के बाद क्या शेष रजिस्ट्रेशन फॉर्म में कोई गड़बड़ी नहीं रह जाएगी? ऐसा बिल्कुल नहीं है. फॉर्म के मेहर से संबंधित कॉलम 13, 14 और 15 में अब भी कमियां हैं. दुल्हनों को मेहर क्यों दी जाए? दूल्हे का परिवार दूल्हन के परिवार से जो कुछ मांगता है वो दहेज कहलाता है. इसी तरह मेहर दुल्हन की कीमत है जो दूल्हे का परिवार उसे देता है. यदि कानून में दहेज की मनाही है, तो फिर मेहर पर भी रोक क्यों नहीं?

इसी तरह के पक्षपातपूर्ण रवैये की झलक मुस्लिम शादी के रजिस्ट्रेशन फॉर्म के कॉलम 18, 19, 21 और 22 में साफ देखी जा सकती है. कॉलम 18 में सवाल है कि क्या शौहर ने अपनी बीवी को तलाक मांगने का ‘अधिकार’ दिया है, यदि हां, तो फिर किन परिस्थितियों में. अधिकतर मामलों में कॉलम 18 को खाली छोड़ दिया जाता है. आम तौर पर शौहर अपनी बीवी को तलाक का अधिकार नहीं देना चाहता है. इसके विपरीत पतियों के तलाक के अधिकार पर कोई सवाल नहीं है. कॉलम 19 में इस बात की पुष्टि के लिए सवाल है कि तलाक से पति का अधिकार किसी वजह से कमतर तो नहीं हुआ है.

पर यदि कोई महिला तलाक लेना चाहे, तो अदालत विशिष्ट शर्तों के तहत ही इसकी अनुमति देती है: यदि पति कम से कम चार वर्षों से लापता है, यदि वह सात साल से अधिक समय तक जेल में रहा है, यदि उसने तीन वर्षों से अधिक समय तक अपने दांपत्य कर्तव्य को नहीं निभाया है, यदि वह शादी के आरंभ से ही नपुंसक रहा है, यदि दो वर्षों से अधिक समय तक वह विक्षिप्त रहा है या कुष्ट रोग या किसी गंभीर यौन रोग का शिकार रहा है; या उसने पत्नी को शारीरिक यातनाएं दी है. लेकिन उस स्थिति में पत्नी के पास क्या विकल्प है जब उसे पति से प्यार नहीं रह जाता है या वह किसी और को प्यार करने लगती है?


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इसके विपरीत किसी पुरुष को अपनी बीवी को तलाक देने के लिए कोई कारण बताने की ज़रूरत नहीं होती है. ऐसे में असल सवाल ये है कि वैवाहिक कानूनों में महिला विरोधी पूर्वाग्रह वाले ऐसे प्रावधान अब भी क्यों रखे गए हैं?

शादी के रजिस्ट्रेशन फॉर्म के कॉलम 21 और 22 का संबंध पुरुषों के बहुविवाह के अधिकार से संबंधित हैं. फॉर्म में एक से अधिक पुरुष से शादी के ऐसे किसी अधिकार की चर्चा नहीं है.

सागर में एक बूंद

एक कॉलम में ‘कुमारी’ की जगह ‘अविवाहित’ कर देने से फॉर्म का पुरुषवादी चरित्र खत्म नहीं हो जाता. और कोई समाज का शुद्धिकरण कैसे करे?

सामाजिक परंपराओं को बदलने के किसी भी प्रयास को लाखों पुरुषवादियों के रोष का निशाना बनना पड़ता है. और, इसके बावजूद यदि कोई उनके रोष की परवाह नहीं कर समाज की मानसिकता को बदलने की कोशिश करता हो, तो ऐसे व्यक्ति को या तो देश से भगा दिया जाता है या बेरहमी से मार डाल जाता है.

फिर भी, उच्च न्यायालय ने एक प्रावधान को संशोधित कर अच्छी भावना का परिचय दिया है, भले ही ये स्त्री विरोधी पूर्वाग्रहों की मौजूदा व्यवस्था में एक तुच्छ प्रयास भर क्यों ना हो. पुरुषवादियों के वर्चस्व वाले राष्ट्र के लिए ये अपने आप में एक बड़ी बात है. मैं इस कदम की सराहना करती हूं.

(लेखिका एक टिप्पणीकार हैं. प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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