कंधार के एइनो माइना डेवलपमेंट सोसाइटी, 2018 में क्रिसमस की शाम को गोलियों की आवाज से गूंजने लगी. इस गेटेड सोसाइटी को अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई के भाई महमूद करजई ने शहर के रंगीन मिजाज, खूब पार्टी बाज ड्रग डीलर, वॉरलार्ड और जासूसों की एलिट बिरादरी के लिए बनाया था. कई घंटे तक गोलियां चलती रहीं. तालिबान से जुड़े हक्कानी नेटवर्क के आतंकी परिसर के एकदम आखिर में एक अंधियारे घर की ओर बढ़ने के लिए गार्डों से मुकाबला कर रहे थे.
शायद, उस रात करीब 700 किलोमीटर दूर रावलपिंडी में इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस डायरेक्टरेट के मुख्यालय में जश्न मनाया गया हो. उस हमले में बलूच बागियों के सबसे अहम कमांडर असलम ‘अचू’ की हत्या हो गई थी, जो अपने अफगान गढ़ से पाकिस्तान की इंटेलिजेंस सर्विसेज की नाक में लंबे समय से दम किए हुए थे.
हालांकि, इस हफ्ते किसी बुरे सपने की तरह बागी उभर आए, जिन्हें असलम बलूच ने तैयार किया था और उन्होंने पंजगुर और नोश्की में पाकिस्तानी फौज की चौकियों पर हमला बोल दिया. कई दिनों तक चली इस लड़ाई में कम से कम नौ फौजियों के मारे जाने की रिपोर्ट है. इससे यह बात छलावा साबित हुई कि बलूच बागियों की रीढ़ टूट गई है.
बलूच फिदायीन की दास्तान
पिछले हफ्ते बलूच लिबरेशन आर्मी (बीएलए) के हमले से ये अटकलें चल पड़ीं कि वामपंथी रुझान वाले राष्ट्रवादी अलगाव गुट ने क्षेत्रीय जिहादी गुटों से हाथ मिला लिया है. हकीकत यह है कि बीएलए का माजीद फिदायीन ब्रिगेड करीब 20 साल से सक्रिय है, लेकिन पंजगुर और नोश्की में हमले से उसे अंतरराष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियां मिल गई. माजीद फिदायीन ब्रिगेड का नाम उस बलूच सिपाही के नाम पर पड़ा है, जिसने 1975 में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो की हत्या की कोशिश की थी.
दिसंबर 2011 में माजीद फिदायीन ब्रिगेड के एक फिदायीन हमलावर ने कार बम से पूर्व पाकिस्तानी मंत्री नासिर मेंगल की क्वेटा में उनके घर में हत्या करने की कोशिश की, जिसमें 13 लोग मारे गए और 30 जख्मी हो गए. फिर 2018 में बीएलए ने दलबंदीन में तीन चीनी इंजीनियरों की हत्या एक हमले में की. बाद में 2018 में ही फिदायीन ब्रिगेड ने कराची में चीनी वाणिज्य दूतावास पर हमला किया.
फिदायीन ब्रिगेड की स्थापना तकारी मोहम्मद असलम ने की थी. कंधार में मारे गए बागी का यही असली नाम है. 1975 में जन्मा असलम शिक्षित, शहरी युवा बलूच पीढ़ी से उभरा, जो इलाके के पारंपरिक कबिलाई ढांचे से ऊपर उठ चुका था. अपनी पीढ़ी के नौजवानों की तरह असलम में भी अपने इलाके में पंजाबी प्रवासियों के प्रति गहरी नाराजगी थी, जो वहां के आर्थिक अवसरों और उपजाऊ जमीन पर काबिज हो गए हैं.
अपने जवानी के शुरुआती दिनों में असलम बलूच राष्ट्रवादी हलकों से जुड़ गया. बाद में वह वामपंथी रुझान वाले बलूच राजनीतिक नेता खैर बक्स मर्री के स्टडी सर्किल में जाने लगा, जो खुद दो दशकों के देश निकाला के बाद 1994 में पाकिस्तान लौटे थे.
करीब 2000 में असलम बीएलए में शामिल हो गया और बोलन में उसके पहले ठिकाने को देखने लगा. कहा जाता है कि बीएलए कई सौ वालेंटियर जुड़ गए, जिसमें असलम का बेटा रेहान भी था, जो चीनी इंजीनियरों पर 2018 के हमले में मारा गया. हालांकि, यह गुट लगातार अलगाववादी हमले करने के काबिल साबित नहीं हुआ. 2006 में असलम बीएलए के बाकी को लेकर सीमा पार पाकिस्तान में आ गया.
इस्लामाबाद का लंबे वक्त से आरोप रहा है कि बीएलए के लीडरान को अफगानिस्तान के खुफिया तंत्र (तालिबान को पाकिस्तान की शह के जवाब में) और भारत के रॉ से मदद मिलती रही है. 2016 में असलम का इलाज नई दिल्ली के साकेत में मैक्स अस्पताल में हुआ था.
हालांकि, पिछले साल तालिबान की जीत के बाद बीएलए ने अफगानिस्तान में अपना सुरक्षित ठिकाना गंवा दिया और कई लोगों का मानना था कि अलगाववादी गुट अब इतिहास की बात हो गया.
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बलूच अलगाववाद कैसे पनपा
दक्षिण एशिया में बहुत सारे दूसरे अलगाववादी सक्रियताओं की तरह, बलूचिस्तान में टकराव भी आजादी के बाद की सरकारों की वहां की राजनीति में अपना दबदबा स्थापित करने की कोशिशों का नतीजा है, जबकि बिगतानी साम्राज्य का वहां ढीला ढाला-सा रिश्ता था. 1947 में बलूचिस्तान के अर्ध-स्वतंत्र रियासत के शासक मीर अहमद यार खान ने उसे आजाद घोषित कर दिया. मार्च 1948 में पाकिस्तान ने वहां फौज भेज दी.
उसके बाद भी मीर अहमद यार खान ने पाकिस्तान के साथ सुलह कर ली, लेकिन उनके छोटे भाइयों आगा अब्दुल करीम बलूच और मुहम्मद रहीम बलूच ने लड़ाई रोकने से इनकार कर दिया. उनकी दोस्त-ए-झालावान अलगाववादी गुट ने पाकिस्तानी फौज को 1950 के दशक तक रोके रखा.
लेकिन 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद तनाव फिर उभरने लगा. इसे गुलशन मजीद और रेहाना हाशमी जैसे विद्वानों ने दर्ज किया है. बलूचिस्तान में प्रांतीय चुनाव जीती नेशनल अवामी पार्टी (एनएपी) ने अफसरशाही और स्थानीय पुलिस बल से पंजाबियों को निकाल कर प्रधानमंत्री भुट्टो को नाराज कर लिया.
1972 में संघीय गृह मंत्री अब्दुल कयूम खान और एनएपी के समर्थकों के बीच झड़पें शुरू हो गईं. इस्लामाबाद का आरोप था कि अताउल्लाह खान और अब्दुल वली खान जैसे क्षेत्रीय नेताओं ने लंदन में बैठक करके भारत की मदद से आजादी के ऐलान की साजिश रची थी.
इस तरह खुली जंग का रास्ता साफ हो गया था. बलूच पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट और बलूची स्टूडेंट्स ऑर्गेनाइजेशन के हजारों गुरिल्ला मामूली हथियारों से लैश होकर पाकिस्तानी फौज के पूरे छह डिविजनों से टक्कर ली. नतीजतन, लाखों लोग मारे जाने का अनुमान लगाया गया, जिसमें 5,300 अलगवावादी और 3,300 फौजी थे.
तीसरी बलूच अलगाववादी जंग
2005 के शुरू में पाकिस्तान के फौजी हुक्मरान जनरल परवेज मुशर्रफ ने एक स्थानीय डॉक्टर के साथ बलात्कार का कथित दोषी एक फौजी को दंडित करने से इनकार किया तो नई अलगाववादी जंग की शुरुआत हुई. राष्ट्रवादी अलगाववादियों के साथ 1973 में जुड़ गए नवाब अकबर खान बुगती के वफादार अलगाववादियों ने सुई गैस फिल्ड पर कबज जमा लिया. अलगाववादियों ने प्रांत में जगह-जगह दर्जनों फौजी चौकियों पर भी कब्जा जमा लिया.
जनरल मुशर्रफ ने धमकी दी, ‘हमें मजबूर मत करो. यह 1970 का दशक नहीं है कि तुम हमला करके पहाड़ियों में छुप जाओगे. इस बार हम यह भी नहीं देखेंगे कि तुम्हें कैसी मार पड़ रही है.’
1970 के दशक की तरह तीसरी अलगाववादी सक्रियता को भी पाकिस्तानी शासन ने गंभीर बना दिया. 2002 में जनरल मुशर्रफ ने एक इस्लामी गठजोड़ मुत्ताहिदा मजलिस-ए-अमाल की चुनावी जीत की ब्यूह रचना रच दी. पत्रकार नजम सेठी ने लिखा कि इससे बलूचिस्तान में ‘पुराने गैर-मजहबी कबीलों के प्रमुखों के साथ-साथ सेकुलर शहरी मध्य वर्ग भी अलग-थलग पड़ गया, जो नए फौजी-मुल्ला हुकुमत में अपने लिए कोई आर्थिक या राजनीतिक जगह नहीं देख पा रहा था.’
आखिरकार अलगाववादियों को कुचल दिया गया. बुगती की भी हत्या हो गई. हालांकि अलगाववादियों की कोर टीम अफगानिस्तान में चली गई.
बीएलए ने खुद को 2006 के बाद कैसे नए सिरे से बनाया, इस बारे में ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है. विद्वान एनतोनियों गीस्तोजी ने लिखा है कि ईरान के सिस्तान-बलूचिस्तान प्रांत के समानांतर बलूच अलगाववादी गुटों से अफगानिस्तान में इस्लामिक स्टेट का रिश्ता जुड़ गया. इसी के साथ कुछ बलूच अपराधी गुटों ने तालिबान के नियंत्रण वाले अफीम कारोबार में दक्षिण अफगानिस्तान से ईरान में उसकी तस्करी में भूमिका अदा की. इस जुड़ाव से बीएसए को ट्रेनिंग और हथियार हासिल करने में मदद मिली हो सकती है.
संदेश सीधा-सादा है: फौजी कार्रवाई बलूच लोगों की शिकायतों को दूर करने के लिए राजनैतिक पहल का विकल्प नहीं हो सकती. हजारों बलूच आम लोगों को गैर-न्यायिक सजा, उत्पीड़न और मीडिया पर हमले के बावजूद अलगाववाद करने का नाम नहीं लेता.
(यहां व्यक्त विचार निजी है)
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