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Wednesday, 20 November, 2024
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ग्रामीण सामंतवाद का बुरा दौर, नोएडा में कैसे जीत गए शहरी इलीट

भारत में आधुनिकता या मॉडर्निटी का शास्त्रीय यानी क्लासिक रूप लागू नहीं होता. यहां मॉडर्न होने का मतलब परंपरा और अतीत से संबंध विच्छेद नहीं है.

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गुड़गांव में जहां आखिरी मॉल खत्म होता है न, उधर ही तुम्हारी डेमोक्रेसी और कॉन्स्टिट्यूशन भी खत्म हो जाती है!’ 2015 में आई अनुष्का शर्मा की फिल्म NH10 में हरियाणा का एक पुलिसवाला बेहद संक्षेप में समझा देता है कि भारत में सामंतवाद के गढ़ यानी ग्रामीण इलाकों में लोकतंत्र किस तरह काम करता है. वो ये भी समझाता है कि हम सड़क पर बाईं ओर गाड़ी चलाते हैं क्योंकि आंबेडकर का संविधान है, पर गांवों में तो मनुस्मृति का ही राज चलता है.

ये डायलॉग बहुत चुटीला है, पर ये पूरा सच नहीं है.

दिल्ली के उपनगर नोएडा के इलीट अपार्टमेंट– ग्रैंड ओमेक्स- में रहने वाले एक दबंग युवा नेता और वहां की एक महिला के बीच हुई कहासुनी और उसके बाद का घटनाक्रम बताता है कि भारत वैसा नहीं है, जैसा कि वह पुलिसवाला बता रहा है. भारत सही दिशा में बदल रहा है और आखिरी शॉपिंग मॉल के बाद भी लोकतंत्र और संविधान काम करता है. बल्कि इस खास केस में तो जिस अपार्टमेंट में ये घटना हुई है, उसके बाद आगे चलें तो आधा दर्जन से ज्यादा मॉल मिल जाएंगे. अगर मॉल ही लोकतंत्र और संविधान के प्रभावी होने का पैमाना है तो देश में मॉल और शॉपिंग कॉम्प्लेक्स की बाढ़ आई हुई है. यानी लोकतंत्र अब विस्तार पा रहा है और दबंग उजड्ड सामंतवाद अब सिकुड़ रहा है.

शहरी अमीर अब समाज क्रम में अपनी वाजिब यानी सबसे ऊपर की जगह पर दावा कर रहे हैं. पीढ़ियों से ग्रामीण अर्थव्यवस्था के शिखर पर कब्जा जमाए हुए सामंत अब इसकी तपिश महसूस कर रहे हैं. ये पैसे की ताकत है जो जन्म के कारण हासिल किए हुए विशेषाधिकारों पर भारी पड़ रही है. पैसा कम से कम सिद्धांत रूप में कोई भी हासिल कर सकता है लेकिन जन्म आधारित विशेषाधिकार जैसे जाति, सामंती परिवार आदि हर किसी को हासिल नहीं हैं. बीजेपी के सांसद रहे दिवंगत दिलीप सिंह जूदेव ने किसी और संदर्भ में एक सटीक बात कही थी कि– ‘पैसा खुदा तो नहीं, पर खुदा की कसम, खुदा से कम भी नहीं !’

नोएडा की घटना के बारे में यहां विस्तार से उल्लेख करना संभव नहीं है. मीडिया में इसकी खूब सारी रिपोर्टिंग हो चुकी है. इस विवाद की शुरुआत एक वीडियो क्लिप के वायरल होने से हुई, जिसमें श्रीकांत त्यागी, जिसे उनकी पत्नी बीजेपी का नेता बताती हैं, अपार्टमेंट की एक महिला को गालियां और धमकियां दे रहा है. इसके बाद के घटनाक्रम में मीडिया मामले को उठा लेता है, फिर त्यागी की पत्नी को पुलिस ले जाती है और आखिरकार त्यागी को पुलिस मेरठ में गिरफ्तार कर लेती है. उसे 14 दिन की न्यायिक हिरासत में जेल भेज दिया जाता है.


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नोएडा का घटनाक्रम इस बात का प्रमाण है कि ग्रामीण दबंगों का इलाका यानी बदनाम NH10 का दायरा सिमट रहा है. इस घटनाक्रम का सबसे दिलचस्प पहलू पुलिस और प्रशासन का रुख है, जिसपर आगे चर्चा की जाएगी. इस बात को न भूलें कि यूपी में बीजेपी की सरकार है और पुलिस तथा प्रशासन ने जो किया है, वह राजनीतिक सत्ता की सहमति के बिना नहीं हुआ है, खासकर इसलिए कि इस घटना की राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा हो रही थी.

ये विवाद शहरी रईसों और ग्रामीण गरीबों के बीच नहीं था. दोनों पक्षों की तुलनात्मक आर्थिक हैसियत का कोई ब्यौरा उपलब्ध नहीं है, पर जितनी रिपोर्टिंग हुई है, उससे स्पष्ट है त्यागी का परिवार भी आर्थिक रूप से सक्षम और समर्थ है. वैसे भी ग्रामीण सामंतवाद के प्रतिनिधि आमतौर पर जमीनों के मालिक होते हैं और जाति व्यवस्था में भी वे ऊंची हैसियत रखते हैं. उनकी दबंगई का स्रोत अक्सर उनकी जमीन और जाति ही होती है. उनकी भाषा का अक्खड़पन और उजड्डपन का स्रोत भी सत्ता संरचना ही है क्योंकि नीचे के पायदान पर खड़ा आदमी ऊपर के आदमी से अक्सर अदब से बात करता है और गाली-गलौज तो वह अपने जोखिम पर ही कर सकता है. उसे इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है.

हाल के वर्षों में शहर काफी तेजी से फैले हैं. शहरीकरण बढ़ रहा है. शहरों की सीमाएं आसपास के गांवों में घुस गई हैं. इस वजह से गांवों की जमीनों की कीमत बढ़ी है और जिनके पास जमीनें हैं, उनमें एक नई अमीरी आई है. भारतीय समाज व्यवस्था में जमीन के मालिक कौन जातियां हैं, ये जाहिर हैं. लेकिन पैसा तत्काल किसी को अभिजात्य यानी इलीट नहीं बना सकता. अभिजात्यकरण या इलीट बनना एक प्रक्रिया है, जिसमें पीढ़ियां लग सकती हैं और हर व्यक्ति या परिवार समान स्थितियों में समान रूप से इलीट नहीं बन पाता.

शहरी जीवन में तनाव और तनातनी की एक वजह ये भी है कि ग्रामीण पृष्ठभूमि वाले नए बने अमीर और शहरों के अपेक्षाकृत पुराने रईस नए बने अपार्टमेंट में स्थान शेयर करने लगे हैं और उनके बीच संसर्ग और संवाद होने लगा है. पहले अपने-अपने स्पेस में होने के कारण जो कंफर्ट या स्वाभाविकता थी, वह अब खंडित हो रही है.

ग्रामीण या सामंती लॉर्ड से शहरी और इलीट बनना एक ऐसी प्रक्रिया है जो भारत में आसान नहीं है. न ही यह सीधी प्रक्रिया है. भारत में ग्रामीण सामंत से शहरी अभिजात्य बनने की प्रक्रिया अक्सर बीच में फंसी रहती है और लंबे समय तक कोई व्यक्ति या समाज संक्रमण में रह सकता है. पश्चिमी यूरोपीय देशों में शहरी लोगों के लिए इस सवाल का जवाब देना आसान नहीं होता है कि वे किस गांव से आए हैं. लेकिन भारत में तो ज्यादातर संवाद ही दो बात से शुरू होते हैं कि आप पीछे कहां से आए हैं और आपकी जाति क्या है? इन दो प्राथमिक और महत्वपूर्ण पहचानों के जाहिर होने पर ही अक्सर संवाद सहज हो पाता है.

एक समस्या ये भी है कि भारत में आधुनिकता या मॉडर्निटी का शास्त्रीय यानी क्लासिक रूप लागू नहीं होता. यहां मॉडर्न होने का मतलब परंपरा और अतीत से संबंध विच्छेद नहीं है. बल्कि लोग यहां शहरी जीवन जीते हुए भी लंबे समय तक अपनी परंपराओं और ग्रामीण अतीत से जुड़े रहते हैं. इसे जमीन से जुड़ा होना कहा जाता है और इसके लिए लोग किसी की प्रशंसा भी कर सकते हैं.

मुंबई मिल मजदूरों का शुरुआती अध्ययन करने वाले कई स्कॉलर ये देखकर चकित रह गए कि ये मजदूर अपने गांवों से कितनी गहरे जुड़े हैं. इन मजदूरों के कई पर्व त्योहार गांव में ही बीतते थे और फसल के मौसम में वे अक्सर हफ्तों और महीनों के लिए गांव चले जाते थे. ये आज भी होता है और ऐसा सिर्फ मुंबई में नहीं होता. शहरी जीवन में आने के बाद भी उनमें कई लोग ग्रामीण ठसक और दबंगई दिखाने के लिए भाषा के स्तर पर हिंसक और अशालीन हो जाते हैं.


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नोएडा शहर के संदर्भ में इस पूरे विवाद को देखते हुए ध्यान रखा जाए कि नोएडा की स्थापना 1976 में एक औद्योगिक उपनगर के तौर पर हुई थी और सोच ये थी कि दिल्ली शहर में अब नए उद्योग लग नहीं सकते तो नोएडा में उद्यमियों को जमीन उपलब्ध कराई जाए.

कालांतर में नोएडा औद्योगिक से ज्यादा, रिहायशी कॉलोनियों और अपार्टमेंट का शहर बन गया. इस क्रम में नोएडा के अंदर पुराने बसे गांवों का कुछ हद तक शहरीकरण हुआ और वे अर्ध-शहरी इलाके बन गए. इन गावों के अमीर लोगों ने बड़ी संख्या में अपार्टमेंट और कॉलोनियों में भी फ्लैट और कोठियां लीं. वे कॉलोनियों में जाकर बसे, पर गांवों से उनका संपर्क कायम रहा. अपार्टमेंट और कॉलोनियों में परंपरागत शहरी लोगों के साथ उनका संबंध कभी सौहार्दपूर्ण तो कभी टकराव वाला रहता है. रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन के चुनावों में इनके बीच का तनाव अक्सर उभरकर सामने आता है. खासकर इलीट और ज्यादा अमीर लोगों के अपार्टमेंट में ग्रामीण इलाकों के इलीट कम हो सकते हैं और वे खुद को अलगाव में महसूस कर सकते हैं.

इसलिए नोएडा की ग्रैंड ओमेक्स सोसायटी में त्यागी और दूसरे निवासी के बीच जो टकराव हुआ, उसने मुझे चौंकाया नहीं है.

बल्कि जिस बात पर मैं चकित हूं, वह है पुलिस और प्रशासन का व्यवहार और उससे भी ज्यादा बीजेपी और उसके नेताओं का रुख. ये बात ध्यान रखने की है कि इस मामले में ‘अपराध’ हत्या या हत्या की नीयत से चोट पहुंचाने जैसा नहीं है. इसमें शांति भंग करने, धमकी देने और औरत की अस्मिता और छवि को धूमिल करने जैसी धाराएं ही लगनी चाहिए. लेकिन घटना के बाद जिस तरह से पुलिस ने त्यागी को पकड़ने के लिए अभियान चलाया, उस पर 25000 रुपए का इनाम घोषित किया और जिस तरह से कमिश्नर ने खुद उसकी गिरफ्तारी की खबर देने के लिए प्रेस कॉन्फ्रेंस की, वह दिखाता है कि प्रशासन इस मामले में ये दिखाना भी चाहता था कि ग्रामीण दबंगई को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा, खासकर तब जबकि उसका टकराव शहरी इलीट से हो.

साथ ही बीजेपी के स्थानीय सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा ने इस मामले को तत्परता से उठाया और लाइव टीवी पर कमिश्नर से कहा– हमें शर्म है कि यूपी में हमारी सरकार के होते हुए ये सब हो रहा है.

ये संभव है कि श्रीकांत त्यागी सचमुच बीजेपी से जुड़ा हो क्योंकि इसके काफी प्रमाण मीडिया में दिखाए गए हैं. अगर ये सच न भी हो तो ग्रामीण सामंत इस दौर में बीजेपी के साथ खासी संख्या में जुड़े हैं. बीजेपी ने दिखा दिया है कि अगर शहरी इलीट और ग्रामीण सामंत के बीच चुनने की बारी आएगी, तो वह किस पाले में खड़ी होगी.

मेरा मानना है कि इस मामले को पार्टी पॉलिटिक्स से ऊपर उठकर भी देखना चाहिए. बीजेपी अब इस बात को लेकर गंभीर है कि यूपी में निवेश आए और उद्योग लगे तथा सर्विस सेक्टर में नौकरियां आएं. इसके लिए कानून व्यवस्था बनाए रखना जरूरी है. इसलिए सरकार ग्रामीण सामंतों के उजड्डपन को बर्दाश्त करने के मूड में नहीं है.

नोएडा की घटना के बाद त्यागी समाज की ओर से विरोध प्रदर्शन हुए हैं. लेकिन ये समझने की जरूरत है कि पतनशील सामंतवाद के लिए उभरते पूंजीवाद से टकरा पाना आसान नहीं है. ये जरूरी भी नहीं है. सामंतों को ये कोशिश करनी चाहिए कि वे, और अगर ये संभव नहीं हुआ तो उनकी अगली पीढ़ी, शहरी आधुनिकता के रंग में खुद को ढालें. यहीं प्रगति का रास्ता है. गाली-गलौज और अनावश्यक ठसक से कोई फायदा नहीं है.

(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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