केंद्र सरकार द्वारा अयोध्या में ‘वहीं’ राम मन्दिर निर्माण के लिए रामजन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के गठन के बाद उसे लेकर जिस तरह की बातें सामने आ रही हैं, उनसे लगता है कि रामजन्मभूमि/बाबरी मस्जिद विवाद में सुप्रीम अदालती फैसले के बावजूद अयोध्या का उससे जुड़ी उलझनों से पीछा नहीं छूटने वाला है. इसको लेकर अयोध्यावासी दो कारणों से चिंतित हैं.
पहला: ट्रस्ट को लेकर सिर उठा रही नई उलझनें राम मन्दिर की ‘लड़ाई’ में सबसे ज्यादा योगदानों का दावा करने वाले विश्व हिन्दू परिषद के संत-महन्तों को सम्मानजनक जगह न मिलने तक ही सीमित नहीं हैं और दूसरा देश व उत्तर प्रदेश सरकारों का अब तक का रवैया यह विश्वास नहीं दिलाता कि वे मन्दिर निर्माण व उसकी प्रक्रिया को अपने संकीर्ण राजनीतिक हितों के लिए इस्तेमाल कर नई समस्याएं खड़ी करने से परहेज बरतेंगी.भले ही उनके नायक मन्दिर निर्माण के फैसले में झारखंड विधानसभा चुनाव और दिल्ली विधानसभा चुनाव में सफल नहीं हो पाए हैं.
इन सरकारों की नये रेशे निकालकर इस मसले को आगे भी इस्तेमाल करते रहने की नीयत को कुछ इस तरह समझा जा सकता है कि केंद्र सरकार ने भले ही ट्रस्ट बनाने में कोई हड़बड़ी नहीं की,लेकिन सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस हेतु दी गई तीन महीने की अवधि का भरपूर इस्तेमाल किया और उसका स्वरूप गैर-राजनीतिक रखने की कोशिश की. लेकिन उसकी सर्वस्वीकार्यता से समझौते और प्रतिनिधिक चरित्र से खेल का लोभ संवरण नहीं कर पाई. यह भी नहीं समझा कि सद्भाव व सौमनस्य की दृष्टि से ट्रस्ट में विभिन्न धर्मों व सम्प्रदायों की गंगाजमुनी सदस्यता ऐसा आदर्श उपस्थित कर सकती थी, जो किसी को भी उसपर कोई तोहमत लगाने या उसकी ओर उंगली उठाने से रोक देती. अयोध्या में कई मन्दिरों के प्रबन्धन से मुसलमानों के ऐतिहासिक जुड़ाव के चलते इसमें कोई अजूबे जैसी बात भी नहीं होती.
‘ब्राह्मणवादी श्रेष्ठता’ के हाथों स्वीकार्यता का हनन
किन्हीं बंदिशों या बाध्यताओं के चलते ऐसा मुमकिन नहीं था और सारे ट्रस्टियों का हिन्दू होना लाजिमी था, तो भी उसमें राम को मानने वाले हिन्दुओं के विभिन्न सम्प्रदायों का समुचित प्रतिनिधित्व होना चाहिए था. यह भी नहीं तो उसे ब्राह्मणवादी श्रेष्ठता का ऐसा स्मारक तो नहीं ही बनाया जाना चाहिए था, जिसकी छाया में संविधानप्रदत्त समानता तो समानता, भाजपा अथवा संघ परिवार की समरसता की अवधारणा भी शरमाने लग जाये.
ट्रस्ट में ‘ब्राह्मणवादी श्रेष्ठता’ के वर्चस्व के ही कारण भाजपा रिटर्न दलित नेता और पूर्व लोकसभा सदस्य उदित राज को यह सवाल उठाने का मौका मिला है कि जब राम मन्दिर आन्दोलन सबका था तो ट्रस्ट किसी एक जाति का ही होकर क्यों रह गया है? क्यों उसके अभी तक के ट्रस्टियों में एक को छोड़कर सारे एक खास सवर्ण जाति के हैं, जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी व विश्व हिन्दू परिषद ने राममन्दिर आन्दोलन में दलितों व पिछड़ों की भागीदारी के लिए उनका जमकर भावनात्मक दोहन किया था? ट्रस्ट की मार्फत राम मन्दिर से जुड़े तमाम संसाधनों का मालिकाना किसी खास जाति के लोगों को ही क्यों नसीब होना चाहिए और इसे रोकने के लिए ट्रस्ट को भंग कर उसमें वैविध्य प्रदर्शित करने के लिए सभी वर्गोें के लोगों को क्यों नहीं शामिल किया जाना चाहिए?
ऐसे असुविधाजनक सवाल पूछने वाले उदित राज अकेले नहीं हैं. वे तो यहां तक कहते हैं कि कि वर्तमान स्वरूप में ट्रस्ट का अघोषित उद्देश्य संघ और भाजपा के एजेंडे को आगे बढ़ाना होगा. वे यह भी पूछ रहे हैं कि क्या दोयम बनाने की इस कवायद से दलितों व पिछड़ों को हुए नुकसान की भरपाई मन्दिर निर्माण की पहली शिला किसी दलित या पिछड़े से रखवाने या पुजारी के रूप में नियुक्त करने जैसे कर्मकांडों से हो पायेगी?
दूसरी ओर 1989 में अयोध्या में विश्व हिन्दू परिषद द्वारा किये गये राममंदिर के बहुप्रचारित शिलान्यास में पहली ईंट रखने वाले दलित कारसेवक कामेश्वर चैपाल को ट्रस्टी बनाये जाने को लेकर जूना अखाड़ा के पहले दलित महामंडलेश्वर कन्हैया प्रभुनंद गिरी ने त्यौरियां चढ़ा रखी हैं और बाबरी मस्जिद के ध्वंस के वक्त उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे कल्याण सिंह केन्द्र को पिछड़े समाज के लोगों में अनादि काल से चली आयी रामभक्ति को पुरस्कृत करने का सुझाव दे रहे हैं. उमा भारती को भी चुप रहना गवारा नहीं ही हो रहा, तो इन सबके आशय समझे जा सकते हैं.
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ट्रस्ट का कार्यालय अयोध्या में क्यों नहीं?
बहरहाल, ट्रस्ट की पहली बैठक उन्नीस फरवरी को शाम पांच बजे उसके दिल्ली स्थित कार्यालय में बुलाई गई है, जिसमें उसके पदाधिकारियों व अतिरिक्त सदस्यों का चुनाव होना है. राम मन्दिर निर्माण की तिथि पर सहमति बनाना भी बैठक के एजेंडे पर बताया जाता है. लेकिन, इस बीच अयोध्या में आपत्ति जताई जा रही है कि उसका प्रधान कार्यालय दिल्ली में क्यों बनाया गया है? इसके बचाव में दो बातें कही जा रही हैं: पहली, ट्रस्ट के बाईलाज में प्रधान कार्यालय के स्थानांतरण की भी व्यवस्था है और दूसरी, अयोध्या में शिविर कार्यालय बनना तो तय ही है.
इतना ही नहीं, ट्रस्ट के सारे सदस्यों के हिन्दू होने की अनिवार्यता को लेकर कई जानकार याद दिला रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के अनुसार हिन्दू किसी धर्म या पूजापद्धति का नहीं जीवन पद्धति का नाम है. इस कसौटी पर ट्रस्ट की सदस्यता हेतु निर्धारित धर्माधारित पात्रता पर भी विवाद जन्म ले सकते हैं. खासकर जब माहौल में गरमागरमी के बीच उपेक्षित महसूस कर रहा विहिप का ‘संत-समाज’ क्षुब्ध है और ऐसा कहने वाले लोग भी हैं कि भारतीय सर्वेक्षण संगठन के निवर्तमान अधिकारी पद्मश्री केके मोहम्मद ने विवादित स्थल पर हिन्दुओं के दावे को साबित करने में एड़ी-चोटी का जोर लगाकर इतिहासकार इरफान हबीब को ‘पराजित’ करने में तक में अपना कौशल दिखाया, पर उनके धर्म और नाम के चलते उन्हें ट्रस्टी होने लायक नहीं समझा गया.
कई लोग यह भी कहते हैं कि ट्रस्ट में वास्तु या स्थापत्य की जानकारी रखने वाला कोई सदस्य नहीं है, जबकि उससे उम्मीद की जा रही है कि वह ऐसा राममंदिर बनवाये जो अद्वितीय हो और विश्व भर से पर्यटकों को आकर्षित कर सके.
विश्व हिन्दू परिषद द्वारा प्रस्तावित राममंदिर अक्षरधाम मंदिर जैसा है और उसके विरोधी कहते हैं कि अक्षरधाम मंदिर जैसा ही राममंदिर बना तो उसकी मौलिकता पर सवाल खड़े होंगे. ट्रस्ट में विशेषज्ञ शामिल नहीं हैं, तो उसके राममन्दिर का प्रारूप बहुत कुछ इस पर निर्भर करेगा कि पारिश्रमिक के आधार पर विशेषज्ञ सेवाएं कैसे प्राप्त की जाती हैं?
अयोध्या के पूर्व राजा बनाम अयोध्या के महापौर
एक चर्चा यह भी है कि ट्रस्ट इसके लिए एक बोर्ड बनायेगा. लेकिन, जिस तरह उसमें अयोध्या के हिन्दू जिलाधिकारी के रूप में भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों की सदस्यता का प्रावधान किया गया है, अंदेशा जताया जा रहा है कि उसकी कार्यवाही किसी आम सरकारी दफ्तर की तर्ज पर ही चलेगी. कहते हैं कि आगे चलकर ट्रस्ट के बोर्ड में उन लोगों को शामिल कर संतुष्ट कर दिया जायेगा, जो अभी ट्रस्ट में जगह न मिलने से नाराज हैं.
लेकिन अभी जो एतराज हवा में हैं, उनमें एक यह भी है कि अयोध्या के पूर्व राजा के बजाय अयोध्या के निर्वाचित महापौर अथवा सांसद को ट्रस्ट का पदेन सदस्य बनाना ज्यादा लोकतांत्रिक होता, जबकि बाबरी मस्जिद विध्वंस के आरोपियों की सूची में होने के आधार पर संतों-महंतो समेत अनेक दावेदारों की ट्रस्ट सदस्यता की दावेदारी नकारने के बाद पीछे के रास्ते से उन्हें ट्रस्ट या बोर्ड में समायोजित करने की चर्चाएं तमाम अटपटे तर्कों की पोल खोल रही हैं.
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इस पर कुछ सूत्रों का दावा है कि रामजन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष महंत नृत्यगोपाल दास को नये ट्रस्ट में शामिल न किये जाने के पीछे उनके प्रति प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की वह राय भी है, जिसके चलते वे बार-बार बुलावा दिये जाने के बाद भी बतौर प्रधानमंत्री उनके जन्मदिन के समारोह, यहां तक कि अमृत महोत्सव में आने से भी कन्नी काट जाते रहे हैं. एक बार प्रधानमंत्री की अन्यत्र व्यस्तता की चिट्ठी आई तो क्षतिपूर्ति के तौर पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ आये थे और भाजपा के विरोधियों ने इसे दोनों सरकारों के अलग-अलग एजेंडे के तौर पर देखा था. यह अलग-अलग एजेंडा अभी भी जब-तब बेपरदा होता रहता है.
मस्जिद के लिए विवादित जमीन का आवंटन
इसकी एक मिसाल यह है कि उत्तर प्रदेश सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के अनुसार सुन्नी वक्फ बोर्ड को मस्जिद निर्माण के लिए पांच एकड़ जमीन के आवंटन में भी सदाशयता बरतना गवारा नहीं किया है. सर्वोच्च न्यायालय ने उसे अयोध्या में किसी प्रमुख स्थान पर यह भूमि देने को कहा था. लेकिन उसने इसका अर्थ नगर के बजाय अपने बनाये अयोध्या जिले से लिया और बला टालने की तर्ज पर अयोध्या नगर से 22 किलोमीटर दूर सोहावल तहसील में रौनाही थाने के पास धन्नीपुर गांव की पांच एकड़ भूमि आवंटित कर दी.
कहते हैं कि उसने ऐसा उन तत्वों की भावनाओं के दोहन के लिए किया, जो दर्प पूर्वक कहते हैं कि अयोध्या की चैदहकोसी परिक्रमा में कोई मस्जिद स्वीकार नहीं करेंगे. कोढ़ में खाज यह कि अब पता चल रहा है कि उक्त भूमि पहले से ही विवादों में फंसी हुई है, न सिर्फ उस पांच एकड़ के पांच दावेदार हैं बल्कि रौनाही थाना और नलकूप विभाग भी उस पर अपनी दावेदारी ठोंक रहे हैं. सुन्नी वक्फ बोर्ड का कहना है कि वह इस भूमि को ले ले तो उसे उसको लेकर फिर से लम्बे मुकदमे में उलझना पड़ सकता है, जो एक दिन अयोध्या विवाद जैसे ही नासूर का रूप ले सकता है.
बाबरी मस्जिद के मलबे पर दावेदारी
मुस्लिम पक्ष यह भी याद दिला रहा है कि 1993 के अयोध्या विशेष क्षेत्र अधिग्रहण कानून में अधिग्रहीत भूमि में ही मन्दिर व मस्जिद दोनों के निर्माण की बात कही गई थी. समुदाय में कितनी निराशा है, इसे यों समझ सकते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को हरहाल में कुबूल करने की बात कहने वाले बाबरी मस्जिद के मुद्दई इकबाल अंसारी भी कह रहे हैं कि उत्तर प्रदेश सरकार ने यह अच्छा नहीं किया.
उनके अनुसार बड़े मुद्दे बड़े दिल से हल किये जाते हैं, बदनीयतीपूर्वक किसी एक पक्ष को दीवाल से सटाकर नहीं. मामले का एक और पेंच यह भी है कि विवादित स्थल पर दावा हार चुका मुस्लिम पक्ष अब 6 दिसम्बर 1992 को ध्वस्त बाबरी मस्जिद के मलबे की मांग कर रहा है. दूसरा पक्ष इस पर जिस तरह की प्रतिक्रिया दे रहा है, उससे अंदेशा है कि कहीं मलबे की दावेदारी भी अदालतों में चक्कर में फंसकर नासूर न बन जाये. सरकारों की नीयत पर बने हुए सवाल तो आगे नई समस्याएं खड़ी कर सकने वाले हैं ही.
(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, इस लेख में उनके विचार निजी हैं)