आज की तारीख में दीपावली का रूप-रंग कुछ इस तरह बदल गया है कि वह महज बाजार की उन शक्तियों का त्यौहार नजर आती है, जो शुभ-लाभ से जुड़ी देसी व्यावसायिक नैतिकताओं से परे पूंजी को ब्रह्म और मुनाफे को मोक्ष बना डालने पर आमादा हैं. लेकिन इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि अपने मूलरूप में वह न सिर्फ किसानों के घर नई फसल आने के उल्लास का पर्याय है बल्कि धनतेरस व भइया दूज जैसे सिद्धि व समृद्धि के पांच पर्वों का अनूठा गुच्छा भी है.
लेकिन क्या आपने कभी इस तथ्य को अयोध्या के (जिसने लंका पर विजय के यश से मंडित अपने आराध्य राम की अगवानी में घी के दीये जलाकर दीपावली मनाये जाने की परम्परा डाली) इस सत्य के साथ मिलाकर देखा है कि वह अपने अब तक के ज्ञात इतिहास में मुख्यतः उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड समेत देश के विभिन्न हिस्सों के गरीबी से अभिशापित तबकों के ही धर्म-कर्म की नगरी रही है.
चूंकि इन तबकों के समक्ष प्रायः उपस्थित रहने वाली हालात की विषमताएं उन्हें किसी सिद्धि व समृद्धि का त्यौहार मनाने तो क्या, सपने देखने तक की इजाजत देने से मना करती आई हैं. इसीलिए अयोध्या के अतीत में दीपावली से जुड़े आयोजनों की एक भी ऐसी मिसाल नहीं मिलती, वैभव का अभिषेक करने वाली जिसकी भव्यता दीन-दुखियों की वंचनाओं का तिरस्कार करती या उन्हें चिढ़ाती नजर आये, जबकि उनकी सादगी का सौंदर्य अभी भी जब तब चर्चाओं का विषय बनता रहता है. इन चर्चाओं में यह भी कहा जाता है कि अयोध्या का दीपावली मनाकर भगवान राम की अगवानी करना प्रजा के तौर पर उनके सामने बिछ जाना भर नहीं है. अयोध्या के विधिवत राजा तो वे दरअसल, इस दीपावली के बाद बने.
यह भी पढ़ें: अयोध्या में हिंदुत्ववादी राजनीति राम और हिंदुओ का ही सबसे ज्यादा नुकसान कर रही
आश्चर्य नहीं कि इन चर्चाओं के बरक्स ‘त्रेता की वापसी’ के बहाने दीपावली के साथ भव्यता के आरोहण व आरोपण की हाल के वर्षां की नई सरकारी-गैरसरकारी कोशिशों के बीच घी के दीयों वाले रूपकों में खोये जो महानुभाव इन दिनों अयोध्या आते हैं, वहां ऐसी किसी भव्यता की कोई जड़ न पाकर इस कदर निराश हो जाते हैं कि सादगी के उस सौंदर्य का दीदार भी नहीं कर पाते, जिसकी चर्चा पहले कर आये हैं. इस कारण वे अयोध्या को कुर्रतुल ऐन हैदर के बहुचर्चित उपन्यास ‘आग का दरिया’ के श्रावस्ती गुरुकुल के अंतिम वर्ष के विद्यार्थी गौतम नीलाम्बर जितनी भी नहीं देख पाते, जिसे वह कुछ ऐसी लगी थी- ‘सरयू के पार अयोध्या की रोशनियां जुगनुओं की ऐसी झिलमिला रही थीं. बारिश की धुंध में सारा दृश्य नीला और उषा सा दिखाई दे रहा था, जिसमें नारंगी रंग की धारियां जैसी फैल गई थीं.’
यह समझने के लिए तो खैर वैसे भी शौक-ए-दीदार से आपूरित नजरें चाहिए कि अयोध्या के हजारों मन्दिरों के गर्भगृहों में मिट्टी के बने दीये ही क्यों जलाये जाते हैं और क्यों आम लोग ये दीये जलाने भी उनके गर्भगृहों में नहीं जा सकते? गर्भगृहों में पहले मुख्य पुजारी अपने आराध्यों को नहला धुलाकर दीपावली के अवसर विशेष के लिए बनी नई पोशाकें पहनाते, सजाते-धजाते और पूजा-अर्चना करके दीये जलाते हैं, फिर उनके बाहर साधु-संत. बदलते समय के साथ अब कहीं-कहीं आराध्यों के सामने फुलझड़ियां जलाई व आतिशबाजियां भी छुड़ाई जाने लगी हैं, लेकिन इनकी परम्परा कब और कैसे शुरू हुईं, इस बाबत पुष्ट प्रमाणों के साथ कुछ कहना कठिन है.
हां, मन्दिरों की दीपावली में पुजारियों और साधु-संतों द्वारा आरोपित होकर परम्परा में बदल गई बंदिशें जैसे ही मन्दिरों के बाहर गृहस्थ समाजों में पहुंचती हैं, अपना अर्थ खो देती हैं. वहां दीये जलाये कम, दान ज्यादा किये जाते हैं और इस दीपदान में किसी भी स्तर पर कोई भेदभाव नहीं बरता जाता. कोई न कोई दीया उस घूर गड्ढे के नाम भी किया जाता है, जिसमें यों साल भर घर गृहस्थी के उच्छिष्टों और ढोरों के गोबर आदि को सड़ाया जाता है. अयोध्या में इससे प्रेरित एक कहावत भी है कि घूरे के दिन भी कभी न कभी बहुरते ही हैं.
बड़े बुजुर्ग बताते हैं कि अयोध्या में इस बिन्दु तक पहुंचकर दीपावली किसी को भी अंधेरे कें हवाले न रहने देने और हर किसी को उजाले से नहलाने का नाम हो जाती रही है. इसलिए खेत खलिहानों, कोठारों, हलों-जुआठों के साथ गायों-बैलों के बांधे जाने की जगहों, खूंटों, सानी-पानी की नांदों और चरनियों पर भी दीपदान किये जाते रहे हैं. बुजर्गों की मानें तो इन सर्वसमावेशी दीपदानों में उस जगर-मगर की कतई कोई जगह नहीं होती थी, होनी सम्भव ही नहीं थी, इधर बाजार की शक्तियां दीपावली को जिसका पर्याय बना रही हैं. तब बच्चों के उल्लास के लिए बाजारों के बजाय कुम्हारों के बनाये खिलौने पर्याप्त होते तो बड़ों द्वारा अपने रहने की जगहों के बाहर सुदर्शन घरौंदे बनाये जाते, जिनमें उनकी सुखद व सुन्दर घरों की कल्पना साकार होती दिखती.
यहां एक पल को रुककर इस बात को समझ लेना चाहिए कि गोस्वामी तुलसीदास ने अपने वक्त की अयोध्या और उसके आसपास के क्षेत्रों के जीविकाविहीन लोगों की बेबसी को ‘बारे ते ललात बिललात द्वार-द्वार दीन, जानत हौं चारि फल चार ही चनक को’ जैसे शब्दों में अभिव्यक्त किया और तफसील से बताया है कि वे कैसे ‘सीद्यमान सोच बस कहइं एक एकन सां कहां जाई का करी’. ऐसे दुर्दिन में लोग पेट में पत्थर बांधकर भी दीपावली को सादगी से परे या भव्यता की गोद में नहीं ले जा सकते थे. उनकी विडम्बना यह थी कि प्रकृति द्वारा जल-जंगल और जमीन से भरपूर उपकृत किये जाने के बावजूद गरीबी और गिरानी के दोहरे-तिहरे मकड़जाल एक से दूसरी पीढ़ी तक उनका पीछा करते रहते थे. आज भी अमीरी के नखलिस्तानों के इस और उस पार स्थित छोरों पर करते ही रहते हैं.
इसलिए तब उन्होंने सादगी और समतल का वह रास्ता चुना जो बिना हर्रै और फिटकरी के उनकी दीपावली का रंग चोखा कर सके. न उसकी अमावस्या की रात किसी की आंखों को अंधेरे से पीड़ित करने दे और न ही प्रकाश के अतिरेक को इतनी चौंधिया देने को कि वे अंधी-सी होकर रह जायें.
प्रसंगवश, अतीत में अयोध्या के मठों व मन्दिरों को आमतौर पर उसके आसपास के क्षेत्र में फैले अभावों के अलावा बिहार व झारखंड की गरीबी ही आबाद करती रही है. कभी गरीबी की जाई यातनाओं तो कभी जमीनदारों व सामंतों के अत्याचारों के कारण अनेक लोग अपने रहने की जगहों से भागकर अयोध्या आते और साधु बन जाते रहे हैं. यह साधु बन जाना तब उनके निकट धर्मसत्ता द्वारा प्रदान की जाने वाली सामाजिक सुरक्षा का वायस हुआ करता था.
विश्व हिन्दू परिषद के अपने समय के सबसे महत्वपूर्ण नेता परमहंस रामचन्द्रदास भी ऐसे ही लोगों में से एक थे, जो 1934 में बिहार के छपरा से अयोध्या आकर नगा साधु बने थे. वे तो अब रहे नहीं, लेकिन मैग्सेसे पुरस्कार विजेता समाजकर्मी संदीप पांडे की अगुआई में ‘अयोध्या की आवाज’ नामक सद्भाव को समर्पित संगठन चलाने वाले सखी सम्प्रदाय के बहुचर्चित महंत युगलकिशोर शरण शास्त्री भी कई दशक पहले झारखंड के पलामू से अयोध्या आये थे. उन्हें सदभाव की स्थापना के क्रम में काफिले के साथ देश के विभिन्न अंचलों की कई लम्बी यात्राओं के लिए जाना जाता है और वे छिपाते नहीं कि बचपन में अपने परिवार की भीषण गरीबी, बेबसी और भूख से तंग आकर ही उन्होंने पलामू से अयोध्या का रुख किया था.
वे बताते हैं कि तब से अब तक अयोध्या में इस लिहाज से कुछ नहीं बदला कि वह उन दिनों भी बिहार व झारखंड के दलित-पिछड़े, पीड़ित व वंचित धर्मानुयायियों का ही ठौर हुआ करती थी और आज भी है. अवध के उन गरीब धर्मप्राणजनों का भी, जो अपनी गरीबी के कारण गया-जगन्नाथ या गंगासागर की यात्रा के सपने पूरे नहीं कर सकते थे. गृहस्थ जीवन में भूख से विकल रहने को अभिशप्त अनेक लोगों के निकट अयोध्या आकर साधु बन जाने पर पेट की आग बुझने से हासिल होने वाला संतोष भी कुछ कम स्वर्गिक नहीं होता था. यह संतोष इतना बड़ा था कि मान्यता हो गई है कि भगवान राम की अनुकम्पा से अयोध्या में कोई भी भूखा नहीं सोता.
यह तो अभी हाल के दशकों तक की बात हैं कि दीपावली आती तो खील-बताशों, लइया और गट्टों की बहार आ जाती. बाद में चीनी के बने हाथी-घोड़े और खाने के दूसरे मीठे खिलौने भी उसका आकर्षण बन गये. भोले-भाले ग्रामीणों के साथ ज्यादातर संभ्रांत नागरिकों की आकांक्षाएं भी तब इतनी ही हुआ करती थीं कि साईं इतना दीजिए जामे कुटुम समाय. अपनी वासनाओं की तृप्ति के लिए उन्हें इससे आगे किसी महंगे भोग विलास की अभिलाषा आमतौर पर नहीं ही सताती थी. वे इतने भर से ही खुश हो लिया करते थे कि अयोध्या के जुड़वां शहर फैजाबाद में रामदाने की करारी लइया, गुड़ की पट्टी और गट्टे बनाने वालों की बाकायदा एक गली हुआ करती है, आसपास के जिलों के लोग भी जिसकी मिठास के दीवाने हैं और जब भी अयोध्या आते हैं, वहां से ये चीजें ले जाते हैं.
दूसरे शब्दों में कहें तो वह ऐसे ‘संतोष-धन’ का वक्त था, जिसमें धर्मप्राण प्रजाजन अपनी सारी चिन्ताएं उन राम के हवाले करके चैन पा लेती थी, जिनके लिए कभी उनके पुरखों ने घी के दीये जलाये थे. उनके निकट वे उन जैसे सारे निर्बलों के बल थे.
लेकिन अब ‘नई अयोध्या’ में वे अपने प्रायः सारे मूल्यों को बेबस होकर जगर-मगर में खोते देखते हैं तो यह पूछते हुए भी डरते हैं कि यह ‘नई अयोध्या’ कितनी उनके राम की होगी और कितनी उनके निर्बलों की? और हां, उसमें संत तुलसीदास के ‘नहिं दरिद्र कोई दुःखी न दीना, नहिं कोई अबुध न लच्छन हीना’ जैसे उदात्त सपने को कहां ठौर मिलेगी?
(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, इस लेख में उनके विचार निजी हैं)
यह भी पढ़ें: राजनीति और साहित्य इस बात का प्रमाण है कि भगवान राम देश की आत्मा से कितने भीतर तक जुड़े हुए हैं