एक महान नीलामी जारी है. प्रधानमंत्री को भावनाओं, राजनीतिक स्वार्थों और औपचारिक तौर पर दिए गए उपहारों की नीलामी हो रही है. अब तक करोड़ों रुपए जमा हो चुके हैं, यह पैसा नमामि गंगे के स्वच्छ गंगा कोष को दिया जाएगा जब आप इस लेख को पढ़ रहे होंगे इस मद में कुछ लाख रुपए और जुड़ जाएंगे. बेशक इस महान कृत्य पर अभिभूत हुआ जाना चाहिए लेकिन साथ ही उस पैसे पर भी एक नज़र मार लीजिए जो अब तक नमामि गंगे को दिया गया है.
20 हजार करोड़ की घोषणा से शुरू किए नमामि गंगे को इस साल जून तक करीब 15075 करोड़ रुपए जारी किए गए. इस राशि का खर्च ब्यौरा देखेंगे तो समझ आएगा कि 7 साल बाद भी इस राशि का बमुश्किल 40 फीसद गंगा पर खर्च हो पाया है. इसमें भी ज्यादातर बजट घाट बनाने और नए निर्माण पर खर्च हुआ है. साल दर साल का आंकड़ा देखें तो खुद सरकार ने ही नमामि गंगे को जारी किए जाने वाले फंड में भारी कटौती की है. उन्हें भी यह अंदाजा हो रहा है कि पैसे से गंगा साफ नहीं की जा सकती. पानी की तरह बहाया गया पैसा भी पानी बना नहीं सकता. इसके अलावा नमामि गंगे के पास सीजीएफ यानी क्लीन गंगा फंड भी है इसमें वह राशि मौजूद है जो व्यापारियों, संस्थाओं और व्यक्तियों ने गंगा सफाई के लिए दी है. इस फंड में इस साल मार्च तक 453 करोड़ रुपए जमा थे. पिछले साल महामारी के दौर में भी लोगों ने इस फंड में 14 करोड़ रुपए से ज्यादा जमा किए लेकिन आज तक एक रुपया भी सीजीएफ खर्च नहीं किया जा सका. खुद सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में इस पैसे के उपयोग न होने पर सवाल उठाए हैं.
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मंत्रियों के सामने समस्या यह है कि पैसा कहां खर्च करें और कैसे करें. क्योंकि पैसे से गंगा साफ होनी होती तो गंगा एक्शन प्लान फेल ही नहीं होता. गंगा एक्शन प्लान पैसे की कमी या भ्रष्टाचार के कारण फेल नहीं हुआ वह इसलिए फेल हुआ क्योंकि उसके चिंतन और एक्शन के केंद्र में व्यवस्था और विकास थे नदी नहीं. सरकारें हमेशा से ही मुक्तिधाम, घाट और नदी तट के सौंदर्यीकरण पर पैसा खर्च कर रही हैं लेकिन यह सब तो इंसानी जरूरतें हैं इसमें नदी की जरूरत कहां है? उसकी जरूरत सिर्फ पानी है, उसके हक का पानी, जो हम देना नहीं चाहते.
इतना सब कुछ होते हुए भी नीलामी का तमाशा जरूरी है क्योंकि इससे भावनाएं उछाल मारती हैं कि गंगा साफ हो रही है. गंगा सफाई की सरकारी भावनाएं गगनभेदी सच्चाई हैं इसलिए वह खुद को मामूली वर्चुअल आवाजों से दूर रखती हैं.
अब एक नजर वर्चुअल संत आत्मबोधानंद पर भी डाल लीजिए. आत्मबोधानंद 28 साल के कम्प्यूटर साइंस ग्रेजुएट हैं. अपने कैरिअर पर ध्यान देने के बजाय वे मातृ सदन में रहकर गंगा की फिजूल चिंता में भूखे-प्यासे बैठे हैं. आत्मबोधानंद का नाम चर्चा में तब आया जब प्रोफेसर जीडी अग्रवाल गंगा के लिए अनशन करते हुए स्वर्ग सिधार गए. अग्रवाल के जाने के बाद आत्मबोधानन्द ने उनकी मांगों को सामने रखकर अनशन शुरू कर दिया. जीडी अग्रवाल की चार मांगें भी विकास विरोधी ही थीं–
1. संसद गंगा जी के लिये एक एक्ट पास करे. इसका ड्राफ्ट जस्टिस गिरिधर मालवीय की देखरेख में बनाया गया था.
2. अलकनन्दा, धौलीगंगा, नन्दाकिनी, पिण्डर तथा मन्दाकिनी पर सभी निर्माणाधीन/प्रस्तावित जलविद्युत परियोजना तुरन्त निरस्त करना. (बन चुके बांधों को तोड़ने के लिए उन्होंने नहीं कहा)
3. गंगा तट पर जंगल काटने और रेत खनन पर रोक लगाई जाए.
4. एक गंगा-भक्त परिषद बनाई जाए जिसमें समाज और सरकार से जुड़े सदस्य शामिल हों. गंगा से जुड़े सभी विषयों पर इसका मत निर्णायक माना जाए.
इसके अलावा वे यह भी चाहते हैं कि हरिद्वार क्षेत्र में खनन में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर शामिल सरकारी अधिकारियों पर भी कार्रवाई की जाए. आत्मबोधानंद की मांगें सरकार के जश्न में खलल डालने जैसी हैं. जब सरकार स्वयं कह रही है कि गंगा साफ हो गई तो गंगा किनारे रहने वाले साधुओं को उनकी बात मानने में दिक्कत क्या है. पिछले महीने सात बांधों को अनुमति देते समय भी गंगा की अविरलता के वचन को दोहराया गया था. अब बांध और अविरलता साथ कैसे चलेंगे, यह सवाल बेमानी है.
व्यवस्था मानती है कि आत्मबोधानंद की मांगें व्यावहारिक नहीं है और विकास विरोधी हैं. अपने पूर्ववर्तियों की तरह वर्चुअल होने के कारण ही आत्मबोधानंद गूगल पर सर्च नहीं किए जाते. जीडी अग्रवाल, निगमानंद और बाबा नागनाथ भी व्यावहारिक संत नहीं थे और अनशन करते हुए चल बसे, ये सब भी आत्मबोधानंद की तरह गंगा को धरती पर अविरल बहते देखना चाहते. उन्हें सरकार का पैसा और प्रयास दोनों ही नजर नहीं आते.
भोले भाले संत समझने को तैयार नहीं कि नीलामी के पैसे से गंगा संवर जाएगी, इस बात पर वोटर भरोसा करते हैं और बस यही मायने रखता है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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