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Friday, 22 November, 2024
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नफरत की सियासत ने हमारे बच्चों तक को हिंसक बना दिया है

गुड़गांव में भूपसिंह नगर में एक मुस्लिम परिवार के घर पर 40-50 लोगों के हमले को एक सामान्य घटना मान कर आगे बढ़ लिया जाएगा. लेकिन क्या यह सिर्फ एक ऐसी घटना भर है, जिसकी अनदेखी की जानी चाहिए?

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पिछले पांच सालों के दौरान सांप्रदायिक नफरत और दलितों के खिलाफ वे सारी कुंठाएं, ग्रंथियां सड़कों पर बहने लगी हैं, जो पहले किसी पर्दे की ओट में छिप कर उड़ेली जाती थीं. हालांकि सामान्य इस अर्थ में जरूर कह सकते हैं कि नफरत एक राजनीतिक शक्ल में अब आए दिन हमारे आसपास तक भी दिखने लगी है और इसका अकेला मकसद समूचे देश को दो ध्रुव में बांट देना है.

वह ध्रुव हैं हिंदू और मुसलमान

इस देश में हिंदुओं के समनांतर इस्लाम के अलावा दूसरे कई अल्पसंख्यक दर्जे वाले धर्म हैं, मसलन, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन आदि. लेकिन समूचे देश को हिंदू और मुसलमानों के ध्रुव के रूप में बांट देने के पीछे आखिर कौन-सी रणनीति काम कर रही है?

गुड़गांव में अगर क्रिकेट खेलते बच्चों से विवाद जानबूझ कर नहीं भी हुआ तो लाठी-तलवार वगैरह से लैस 40-50 लड़कों के गिरोह के भीतर मुस्लिम परिवार पर हमला करने की हिम्मत कहां से आई? किसी बातचीत से विवाद को सुलझाने के बजाय किसी अपराधी गिरोह की तरह हमला करने वालों के मन में वह कैसा और कहां से मिल रहा सुरक्षा-भाव था कि इस तरह की आतंकी हरकत करने के बावजूद उनका कुछ नहीं बिगड़ने वाला?


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यह बिल्कुल मुमकिन है कि सड़कों पर किसी कश्मीरी मुसलमान के साथ मार-पीट की जाती है या फिर गुड़गांव में मुस्लिम घर पर हमला, उसमें संगठित या सुनियोजित तौर पर आरएसएस या उससे जुड़े किसी संगठन का हाथ नहीं हो. लेकिन अगर यह किसी योजना के तहत नहीं हुआ और कुछ हिंदू तलवार-भाला-लाठी वगैरह लेकर हमला कर बैठे तो क्या यह ज्यादा जटिल स्थिति नहीं है? आम नागरिकों की सामान्य जिंदगी गुजारते हुए लोग कैसे इस कदर हिंसक और नफरत से भर कर आतंक मचाने में शामिल हो रहे हैं?

दरअसल, भाजपा के शीर्ष नेताओं के बयानों में जिस तरह के सांप्रदायिक दुराग्रह का ज़हर सरेआम दिखता रहता है, क्या वह बिना असर किए रह सकता है! एजेंडा यह है कि ऐसी घटनाओं के लिए बस हवा भर बना दिया जाए और अलग-अलग जगहों पर इस तरह की घटनाएं अपने-आप ही घटने लगती हैं. समाज के ज्यादातर लोगों को सोचने-समझने के जिस स्तर में बनाए रखा गया है, उनके सोचने की प्रक्रिया बाधित रखी गई है कि नफरत की हवा बन जाने के बाद उनके लिए कुछ भी विचार करना मुमकिन नहीं रह जाता है और यही वजह है कि किसी मामूली बात पर या फिर बेवजह भी किसी ‘दुश्मन’ को पकड़ कर मार-पीट और भीड़ बन कर उसकी हत्या कर देने में लोगों को हिचक नहीं हो रही है.

उस सभ्यता के नष्ट हो चुके होने के बारे में अंदाजा भर लगाया जा सकता है जिसमें बेहद आम लोगों को इस कदर तैयार कर दिया गया है कि उन्हें किसी जानवर के नाम पर कुछ लोगों को पीट-पीट कर मार डालने में कोई संकोच नहीं होता. लोग इस पर सोचने के लिए तैयार हो सकते थे. लेकिन इस सामाजिक व्यवस्था को चलाने वाले खूब जानते हैं कि समय-समय पर उनके संरक्षण का प्रत्यक्ष आयोजन होते रहना चाहिए.

इसलिए कभी नेता के मुंह से उनके अपराधों को सही ठहराने वाले बयान जारी करा दिए जाते हैं तो कभी जानवर के नाम पर किसी को मार डालने वाले हत्यारों का किसी मंत्री के हाथों स्वागत करा दिया जाता है. इससे ऐसे लोगों का ‘मनोबल’ बना रहता है और इसका अंतिम हासिल सामाजिक सत्ताधारियों को मिलता रहता है.

असभ्यता और बर्बरता का यह कारोबार सिर्फ इसलिए चलाए रखा जाता है, ताकि एक समाज अपने वास्तविक हकों के बारे में सोचने की फुर्सत में न जाए. यह गौर किया जा सकता है कि जिस दौर में नफरत और हिंसा को समाज के चरित्र के रूप में पेश किया जा रहा है, ठीक इसी दौर में दलित-वंचित जातियों-तबकों की भागीदारी के लिए संवैधानिक तौर पर मिले आरक्षण की व्यवस्था पर अलग-अलग शक्ल में लगातार हमले हुए और इसे कमजोर किया गया.

नौकरियों और शिक्षा व्यवस्था तक पहुंच की व्यवस्था को बेहद शातिराना तरीके से सीमित किया गया, ताकि वहां केवल सवर्ण और धनी तबके के लिए आरामदेह जगह सुनिश्चित की जा सके.

इन सब सवालों की हत्या करने के लिए नफरत और ज़हर को एक सियासी शक्ल देना जरूरी है, ताकि अगर किसी को सोचने के लिए कुछ समझ में आए तो यही आए. जरूरी सवाल दफन हो जाएं.

ऐसा समाज बनाते हुए एक बार भी इस बात का खयाल करना जरूरी नहीं समझा गया है कि आने वाले दिनों की कैसी तस्वीर बनाई जा रही है. वंचना की जिंदगी झेलते लोगों को जब एहसास होगा कि उनके कुछ समय के उन्माद में उनसे क्या-क्या छीन लिया गया है और अब एक बार फिर उसे हासिल करना है. हर हाल में तो अब प्रतिरोध ही रास्ता है, तब क्या होगा!


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तो एक ही समय में दुनिया में दो समाज बनाने के दो छोर देखे जा सकते हैं. एक ओर भारत में शीर्ष भाजपा नेताओं, आरएसएस और उसके सहयोगी राजनीतिक और कथित सांस्कृतिक संगठनों के सहारे ऐसी हवा बनाई जा रही है, ताकि अपनी रोजमर्रा की जरूरतों में उलझे हुए लोग भी नफरत और हिंसा की सियासत की चपेट में अपने ही देश के ‘अन्य समुदाय’ को जानी दुश्मन मान लें.

दूसरी ओर, न्यूजीलैंड है, जहां एक मस्जिद पर हमले में 50 लोगों के मारे जाने के बाद वहां की प्रधानमंत्री जेसिंडा अर्डर्न ने दुनिया को हैरान किया, वहां पीड़ित तबके के सभी लोगों और समुदाय के प्रति सार्वजनिक रूप से ऐसा संवेदनशील बर्ताव पेश किया, जिस तरह के उदाहरण नहीं मिलते.

धर्म में आस्था नहीं रखने के बावजूद एक महिला प्रधानमंत्री की मुस्लिम महिलाओं और पुरुषों के गले से लग कर भावुक हो जाने की घटना ने न्यूजीलैंड के घायल समुदाय के दिल पर ऐसा मरहम लगाया है, जो नफरत के कारोबार के बरक्स आने वाले लंबे वक्त तक तक याद किया जाएगा.

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और टिप्पणीकार हैं.)

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