पिछले कुछ हफ्तों में कश्मीरी पंडितों पर निशाना ‘बाहरियों’ के खिलाफ मुहिम का हिस्सा नहीं लगती. लेकिन असलियत में वह उससे जुड़ा हुआ है. मकसद सिर्फ कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास और जमीन बहाली के जारी उपायों पर रोक लगाना ही नहीं है, बल्कि उनकी रक्षा करने में भारत सरकार की नाकामी को भी जाहिर करना है. इससे ‘सामान्य स्थिति’ की फिजा हवा हो जाती है और सशस्त्र बलों के रूप में ‘बाहरियों’ की संख्या भी बढ़ती जाती है, क्योंकि उनकी मौजूदगी भर से अलगाव को हवा मिलने की उम्मीद की जा सकती है, भले हिंसा पर काबू पाने की उनकी कार्रवाइयां न हों.
जम्मू-कश्मीर और घाटी में राजनैतिक प्रक्रिया शुरू करने की बड़ी चुनौतियां खासकर ये हैं कि यह भारत की घरेलू राजनीति के व्यापक ढांचे में गुथी हुई है. समकालीन राजनैतिक ढांचे में पैदा हुईं ताकतों ने पक्के तौर पर सांप्रदायिक रंग ले लिया है, जिससे भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की शह पर हिंदू बहुसंख्यकवाद का उभार हुआ है. राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी के यह बड़े पैमाने पर रवैया जम्मू-कश्मीर में किसी तरह के फलप्रद बातचीत का राजनैतिक माहौल तैयार होने में अड़चन पैदा करता है, खासकर जब तक वह केंद्र शासित प्रदेश बना हुआ है और संवैधानिक ढांचा निर्वाचित प्रतिनिधियों के अधिकारों को कम करता है. अधिकार संपन्न निर्वाचित प्रतिनिधियों के बगैर कोई भी राजनैतिक बातचीत शुरू ही नहीं हो पाएगी.
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आर्थिक खुशहाली राजनैतिक दरारों को नहीं छुपा सकती
पर्यटकों का स्वर्ग कश्मीर करीब तीन दशक से ज्यादा की अलगाववादी हिंसा से जूझता रहा है और उबरता भी रहा है. इसमें बड़ी गिरावट फरवरी 2019 में पुलवामा आतंकी हमले, सात महीने बाद अनुच्छेद को रद्द करने और 2020 की शुरुआत में कोविड से आई. लेकिन पर्यटकों की आमद 2022 में रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई और कश्मीर का पर्यटन उद्योग मांग पूरी करने के लिए संघर्ष करता दिखा. पहले से नियमित जाने वाले और अप्रैल/मई 2022 में वहां गए पर्यटकों ने श्रीनगर को साफ-सुथरा बनाने की मौजूदा प्रशासन के बदलावों काफी सराहना की. उन लोगों ने बताया कि डल झील और उसके आसपास के इलाके बदले हुए लगते हैं. 30 जून को शुरू होने वाली सालाना अमरनाथ यात्रा में रिकॉर्ड स्तर पर यात्रियों के पहुंचने की उम्मीद है.
पर्यटन में भारी आमद और कश्मीरियों की आर्थिक खुशहाली में उसके सकारात्मक असर से राजनैतिक दरारें छुप नहीं सकतीं, जिससे कश्मीर की रणनीतिक धरती फंसी हुई है. अनुच्छेद 370 के हटाए जाने और जम्मू-कश्मीर का राजनैतिक दर्जा खत्म करने के बाद केंद्र से अलगाव का भाव गहरा हुआ है और वह उसकी राजनैतिक जमीन को लगातार उर्वर बना रहा है. बड़े स्तर पर यह अफसाना इस शक-शुबहे में रचा-बसा है कि नरेंद्र मोदी की सरकार की जनसंख्यागत बदलाव लाकर कश्मीरी पहचान को खत्म करने की लंबी परियोजना है. किसी औसत कश्मीरी के लिए ‘बाहरी’ वह होता है, जो घाटी से बाहर का हो. इस मनोवैज्ञानिक डर की जड़ें इतिहास में गड़ी हुई हैं और फिर, यह धारणा बनी है कि 2019 के बाद उसका रक्षा कवच भी खो गया है. अचरज नहीं कि आंतरिक और बाहरी विरोधी ताकतें अपनी नाक घुसेड़ रही हैं और इस अफसाने को उछालने की कोशिश कर रही हैं. खासकर हिंदुओं पर निशाने के साथ बाहरियों की निशानदेही कत्ल एक तरीका बनकर उभरा है.
मौजूदा हिंसा का रणनीतिक मकसद जाहिर है, भारतीय संघ से लोगों के अलगाव को मजबूत करना है. यह एक स्तर पर पहुंच जाए तो बड़े पैमाने पर हिंसा को बढ़ावा दिया जा सकता है. सुरक्षा के मामलों में आगे की राह अवरुद्ध लगती है और उसका जवाब और ज्यादा सशस्त्र बलों या सेना को हिंसा के पैरोकारों के लिए उतार देने में नहीं है. जवाब घरेलू राजनीति की जमीन में तलाशी जानी चाहिए, जहां से ये मुद्दे उछल रहे हैं. दुर्भाग्य से, इस रास्ते को लंबे समय से तैयार किया गया है और उसका दोहन करने का वक्त आ गया है.
सियासी चाय की खूशबू पहचानें
राजनैतिक रास्ते में यह व्यावहारिक तथ्य भी कबूल करना होगा कि सरकारी बलों के इस्तेमाल से कुछ हद तक ही हिंसा पर काबू पाया जा सकता है. बातचीत को आगे बढ़ाने वाला रास्ता ही सिर्फ लंबे समय में लोगों का कल्याण हो सकता है. यह सब जानते हैं कि हिंसा के सूत्रधार पाकिस्तान में हैं. लेकिन उनकी कामयाबी कश्मीर और जम्मू के मुस्लिम बहुल इलाकों के लोगों के अलगाव पर ही काफी हद तक निर्भर है. यह अलगाव इस धारणा से भी मजबूत हुआ है कि परिसीमन की कार्रवाई में उनके साथ नाइंसाफी की गई है. इसके तहत कश्मीर की कीमत पर विधानसभाओं और संसदीय सीटों को नए सिरे से बनाया गया है और 20 मई 2022 से लागू हो गया.
भाजपा ने संसद में यह वादा किया था कि जम्मू-कश्मीर के राज्य का दर्जा ‘उपयुक्त समय’ में बहाल कर दिया जाएगा. अगर मोदी सरकार घरेलू राजनीति की रणनीतिक चाय की पत्तियों की खूशबू और भारत के आंतरिक तथा बाह्य जगत में उसके असर को भांप सके, तो उसके बहुसंख्यकवादी एजेंडे की बेकाबू ताकतों की मौजूदी तेजी को रोकने की गुंजाइश बनती है. बाहरी हलके में भारत अमेरिका और यूरोपीय संघ में अल्पसंख्यकों के प्रति बर्ताव के रिकॉर्ड का ध्यान दिलाकर उनके पाखंड को उजागर कर सकता है. लेकिन काउंटरिंग अमेरिकाज एडवर्सरिज थ्रू सैंक्शंस एक्ट (सीएएटीएसए) से छूट जैसे रणनीतिक महत्व के मुद्दों पर उनकी विधायिका में वोट का खामियाजा भारत को भुगतना पड़ेगा. इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. देश के भीतर सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न होगा, जैसे मस्जिदों को ढहाकर मंदिरों के पुनरोद्धार के दावे से राजनैतिक-रणनीतिक स्थायित्व और एकता के लिए जोखिम पैदा हो सकता है.
‘उपयुक्त समय’ अब है
केंद्र में सत्ता पर मजबूत पकड़ के साथ भाजपा को पहला कदम तो यह उठाना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर जैसे रणनीतिक रूप से अहम प्रदेश में दुश्मनी की राजनीति का रास्ता छोड़ दे. इसकी पहल जम्मू-कश्मीर के राज्य का दर्जा बहाली (अलबत्ता लद्दाख के केंद्र शासित क्षेत्र को छोड़कर) के साथ शुरू की जानी चाहिए और यह काम इस साल बाद में तय चुनावों से पहले होना चाहिए. बातचीत शुरू करने के पहले लोकतांत्रिक ताकतों को अपना प्रतिनिधि चुनने दीजिए. जम्मू-कश्मीर के लोगों की आवाज इस वादे के साथ चुनाव के जरिए जाहिर होने दीजिए कि राज्य का दर्जा बहाल होगा. केंद्र के खिलाफ कश्मीरियों की एक बड़ी शिकायत यह भी है कि राज्य को तोड़ने के पहले उनसे पूछा तक नहीं गया. भारतीय गणतंत्र में उनका भरोसा फिर से जीता जाना चाहिए. इसका खामियाजा अब अलगाव की भावनाओं में प्रकट हो रहा है, जो भारत के रणनीतिक हितों का गंभीर नुकसान कर सकता है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अक्सर ‘वसुधैवकुटुंबकम’ का जिक्र करते हैं. अब वक्त आ गया है कि इस सिद्धांत को व्यवहार में पहले लाया जाए. इसके लिए जम्मू-कश्मीर पहला स्थान हो सकता है, जिसे राज्य का दर्जा बहाल करने का ‘उपयुक्त समय’ आ गया है. ‘भारत’ परिवार का हिस्सा विपक्षी पार्टियां इस पर राजी न होने का विकल्प मुश्किल से चुन पाएंगी.
(लेफ्टिनेंट जनरल (डॉ.) प्रकाश मेनन (रिटायर) तक्षशिला इंस्टीट्यूशन में स्ट्रैटजिक स्टडीज के डायरेक्टर हैं; वे नेशनल सेक्यूरिटी काउंसिल सेक्रेटेरिएट के पूर्व सैन्य सलाहकार भी हैं. उनका ट्विटर हैंडल @prakashmenon51 है. विचार निजी है.)
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