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Sunday, 22 December, 2024
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अहमदाबाद से प्रयागराज तक- कैसे बाहुबलियों ने बीजेपी को आगे बढ़ाने में मोदी और योगी की मदद की

विपक्षी राजनेताओं और वामपंथी और उदारवादी बुद्धिजीवियों ने अतीक अहमद की हत्या पर काफी सवाल खड़े किए हैं, लेकिन योगी के वोटर्स कुछ और ही सोचते हैं.

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1987 में जब नरेंद्र मोदी, तत्कालीन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक थे तब उन्होंने भारतीय जनता पार्टी की गुजरात इकाई के महासचिव (संगठन) के रूप में एक राजनीतिक भूमिका शुरू की.  उनकी पहली परीक्षा अहमदाबाद नगर निगम चुनाव थी. 1985-86 में उन दिनों अहमदाबाद शहर में हुए लगातार दंगों के कारण अस्थिरता का माहौल था, जिसमें आरक्षण विरोधी आंदोलन ने सांप्रदायिक रंग ले लिया था. इस अवधि में अब्दुल लतीफ नामक एक गैंगस्टर के नेतृत्व में एक शक्तिशाली मुस्लिम अंडरवर्ल्ड का उदय हुआ, जिसे कांग्रेस का संरक्षण प्राप्त था, जैसा कि अजय सिंह ने अपनी अच्छी तरह से शोध की गई पुस्तक द आर्किटेक्ट ऑफ द न्यू बीजेपी: हाउ नरेंद्र ट्रांसफॉर्म्ड द पार्टी में वर्णित किया है.

उस चुनाव में मोदी द्वारा अपनाई गई अभिनव रणनीतियों के अलावा, उनके कारण को इस तथ्य से मदद मिली कि जेल में बंद डॉन अब्दुल लतीफ – “जिसने खुद को अल्पसंख्यकों के लिए रॉबिन हुड के रूप में पेश किया था” – ने पांच वार्डों से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप मे चुनाव लड़ने का फैसला किया.  उनका चुनाव चिन्ह शेर था. उनके गुर्गों ने अभियान के दौरान पिंजरे में बंद शेर की परेड कराई. अजय सिंह लिखते हैं, “हाल ही में हुई हिंसा के निशान अभी भी ताजा हैं, यह इनोवेटिव कैंपेन ध्रुवीकरण का फायदा उठाने का एक प्रयास था. हालांकि, यह भाजपा के पक्ष में गया और जिसने अहमदाबाद के लोगों में भय और असुरक्षा के माहौल को दूर करने का वादा किया,” .

जब परिणाम घोषित हुए, तो भाजपा ने 127 में से 67 सीटें जीतकर निगम में बहुमत हासिल किया. लतीफ सभी पांच वार्डों से जीते लेकिन उन्हें चार में सरेंडर करना पड़ा. नियमों के अनुसार, उपविजेता इन सीटों पर विजेता बनी और भाजपा के खाते में तीन और सीटें जुड़ी. उस एएमसी की जीत ने गुजरात में भाजपा के सत्ता में आने की नींव रखी. भाजपा तीन साल बाद सरकार का हिस्सा बनी.

योगी आदित्यनाथ तब मुश्किल से 15 साल के थे. कोई नहीं जानता कि अहमदाबाद नगरपालिका चुनाव और उसमें डॉन की भूमिका ने कभी उसका ध्यान आकर्षित किया या नहीं. तीन दशक बाद, 2017 में, जब योगी ने यूपी के मुख्यमंत्री के रूप में पदभार संभाला, लतीफ का जीवन एक बॉलीवुड फिल्म- शाहरुख खान-स्टारर रईस के माध्यम से जनता में चर्चित हुआ.

एएमसी चुनावों में पिंजरे में बंद शेर यूपी के राजनीतिक विमर्श में अलग-अलग नामों से फिर से उभर आया है. नवीनतम गैंगस्टर से नेता बने अतीक अहमद, जिसकी शनिवार को प्रयागराज में तीन लोगों ने हत्या कर दी थी, उसके बेटे असद की दो दिन पहले एक पुलिस मुठभेड़ में मार गिराया गया था.

संयोग से 1995-97 में अब्दुल लतीफ भी साबरमती जेल में बंद था, जहां से अतीक अहमद को प्रयागराज लाया गया था. लतीफ 1997 में पुलिस मुठभेड़ में मारा गया था जब वह भागने की कोशिश कर रहा था. जैसे लतीफ ने 1987 में अहमदाबाद निकाय चुनाव में पिंजरे में बंद शेर के रूप में बीजेपी को मजबूती दी थी, उसी तरह कई जेल में बंद और भागे हुए गैंगस्टर आज यूपी में योगी आदित्यनाथ की राजनीति और शासन को आकार दे रहे हैं.


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योगी के ‘ठोक दो’ के तरीके

जब से योगी आदित्यनाथ ने 2017 में पदभार संभाला है, 10,000 से अधिक पुलिस मुठभेड़ हुई हैं, जिसमें 178 अपराधियों को मार गिराया गया है, जैसा कि द टाइम्स ऑफ इंडिया ने पिछले महीने रिपोर्ट किया था.

इन हत्याओं के बारे में उनके विरोधियों के पास बहुत सारे सवाल हो सकते हैं- जब अतीक पर गोली चलाई जा रही थी तो पुलिसकर्मियों का प्रतिक्रिया न देना, देर शाम उसकी मेडिकल जांच की अत्यावश्यकता, अस्पताल के प्रवेश द्वार पर वाहन छोड़ने का कारण, उसे मीडिया को संबोधित करने की अनुमति देना वहां, इत्यादि. असद के एनकाउंटर में मारे जाने को लेकर और भी कई सवाल उठ रहे हैं.

हालांकि योगी आदित्यनाथ की इससे नींद नहीं उड़ने वाली. वह जानते हैं कि आपराधिक न्याय प्रणाली कैसे काम करती है. इशरत जहां और सोहराबुद्दीन शेख मुठभेड़ मामलों में एक भी पुलिसकर्मी को दोषी नहीं ठहराया गया. 2019 में हैदराबाद में दिशा बलात्कार और हत्या मामले में, एक जांच आयोग ने 10 पुलिसकर्मियों को एक मुठभेड़ में चार आरोपियों की हत्या के लिए दोषी ठहराया और सिफारिश की कि उन पर हत्या का मामला दर्ज किया जाना चाहिए. पुलिसकर्मियों पर अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है. विकास दुबे एनकाउंटर मामले में न्यायिक आयोग ने पुलिस को क्लीन चिट दे दी है.

योगी आदित्यनाथ ये भी जानते हैं कि विपक्षी दल कैसे काम करते हैं. अतीक और उनके बेटे की हत्याओं पर विपक्षी नेताओं की प्रतिक्रियाओं को देखें. कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने ट्वीट किया.”कानून सर्वोच्च है. अपराधियों को सख्त से सख्त सजा दी जानी चाहिए लेकिन यह देश के कानून के अनुसार होनी चाहिए. राजनीतिक उद्देश्यों के लिए कानून के शासन या न्यायिक प्रक्रिया के साथ खिलवाड़ करना हमारे लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है. ” राहुल गांधी ने प्रियंका के ट्वीट को बस रीट्वीट किया.

कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने भी यही भावना व्यक्त करते हुए कहा कि कानून और व्यवस्था से खिलवाड़ केवल “अराजकता” पैदा करता है.

समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने ट्वीट किया, ‘अगर पुलिस घेरे में किसी की जान जा सकती है तो आम लोगों की सुरक्षा का क्या…ऐसा लगता है कि कुछ लोग जानबूझ कर डर का माहौल बना रहे हैं.’ असद की हत्या के बाद, यादव ने ट्वीट किया कि “फर्जी मुठभेड़ों के माध्यम से, सरकार वास्तविक मुद्दों से ध्यान हटाने की कोशिश कर रही है.”

इनमें से किसी भी विपक्षी नेता ने अतीक या असद अहमद का नाम नहीं लिया . उनकी प्रतिक्रिया में कोई पैनापन नहीं था. ऐसा लगा की जैसे वो केवल एक जिम्मेवारी निभाने के लिए विरोध कर रहे हैं. उनमें से किसी ने भी घटनास्थल पर जाने या मृतकों के परिवारों से मिलने या बात करने की परवाह नहीं की.

अपने राजनीतिक विरोधियों की प्रतिक्रिया पर योगी आदित्यनाथ मुस्करा रहे होंगे. जब माफियाओं और गैंगस्टर-सह-राजनेताओं की बात आती है, तो विपक्ष की अलमारी में भी बहुत सारे कंकाल भरे हैं. अखिलेश को हमेशा सपा के साथ अतीक अहमद के जुड़ाव पर आपत्ति थी, लेकिन उनके पिता दिवंगत मुलायम सिंह यादव ने उन्हें लोकसभा और विधानसभा चुनावों में पार्टी का टिकट देने में कोई आपत्ति नहीं की.

अखिलेश ने 2012 में एक और बाहुबली डीपी यादव को सपा में शामिल होने से रोक दिया था, हालांकि जब राजा भैया या रघुराज प्रताप सिंह को अपने मंत्रिमंडल में शामिल करने की बात आई तो उन्हें अपने पिता की इच्छा के आगे झुकना पड़ा.  गाजीपुर की एक सांसद-विधायक अदालत 29 अप्रैल को बहुजन समाज पार्टी (बसपा) से जुड़े एक और डॉन, पांच बार के विधायक मुख्तार अंसारी को सजा सुनाने वाली है. इससे भाजपा को योगी को प्रोमोट करने का एक और मौका मिल सकता है. “जो कहते हैं वो करते हैं” . उनकी टिप्पणी का एक संदर्भ जो उन्होंने पिछले महीने विधानसभा में की थी: “इस माफिया को मिट्टी में मिला दूंगा.”


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योगी की चुनिंदा एंटी-माफिया कार्रवाई?

असद अहमद की हत्या के एक दिन बाद, समाजवादी पार्टी के मीडिया सेल ने कथित अपराधियों की एक सूची जारी की जो अभी भी “जिंदा हैं, अपराध कर रहे हैं और सिंडिकेट चला रहे हैं”. इस सूची में पिछले साल जमानत पर रिहा हुए बृजेश सिंह, राजा भैया, धनंजय सिंह, बृजभूषण सिंह और कुलदीप सिंह सेंगर सहित अन्य शामिल हैं.

एसपी ने मुख्यमंत्री पर तंज कसते हुए कहा, “क्या वे योगी जी के खास हैं? दरअसल, ये उसी जाति के हैं, जिस जाति के योगी हैं. इसलिए, वे अपराध करने के लिए स्वतंत्र हैं …. ”

जब मैंने हाल ही में अपनी लखनऊ यात्रा के दौरान उनसे पूछा कि केवल मुस्लिम गैंगस्टरों को निशाना बनाया जा रहा है, योगी सरकार के अधिकारियों ने इन दावों का खंडन किया. अधिकारियों ने एक सूची साझा की, जिसके अनुसार यूपी में 66 “चिन्हित माफिया/अपराधी” थे. इनमें अतीक अहमद समेत 11 मुसलमान थे. अधिकारियों ने योगी के गृह क्षेत्र गोरखपुर के एक गैंगस्टर सुधीर सिंह का उदाहरण दिया- पुलिस ने उसे 2021 में गिरफ्तार किया था और करोड़ों रुपये की संपत्ति भी कुर्क की थी. इन्होंने गैंगस्टर विकास दुबे के पुलिस एनकाउंटर का भी हवाला दिया था. दुबे हालांकि ब्राह्मण थे.

निष्पक्षता के आधिकारिक दावों के बावजूद, योगी आदित्यनाथ को पुलिस कार्रवाई लिए कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ रहा है.  यूपी के सीएम पर तीखा हमला करते हुए ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी से पूछा.”एक ऐसे समाज में जहां हत्यारों का जश्न मनाया जाता है, एक आपराधिक न्याय प्रणाली का क्या उपयोग है?” उन्होंने पूरे विपक्ष, वामपंथी और उदारवादी बुद्धिजीवियों की चिंताओं को आवाज़ दी. अतीक, उनके बेटे और उनके सहयोगियों की हत्याओं के बारे में भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व चुप है. उनकी चुप्पी अजीब लगती है क्योंकि अमित शाह सहित पार्टी के शीर्ष नेता पिछले साल ही यूपी में माफिया को “खत्म” करने के लिए योगी आदित्यनाथ की प्रशंसा कर रहे थे.

हालांकि, योगी के मतदाताओं की राय इससे अलग है. वे कानून के शासन और आपराधिक न्याय प्रणाली के बारे में विपक्ष की चिंताओं को साझा नहीं करते हैं. मैंने यूपी में अपने दोस्तों और परिचितों को एनकाउंटर और हत्या के बारे में उनके विचार जानने के लिए रविवार को फोन किया. उनकी आम राय थी- अच्छा हुआ. योगी को और क्या क्या चाहिए जब उनकी छवि एक 56 इंच के सीने वाले एक और मजबूत नेता की बन रही है.

(संपादन: पूजा मेहरोत्रा)

(डीके सिंह दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं और यहां व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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