ट्रक के नीचे आ गया एक आदमी/वह अपने बायें चल रहा था/एक लटका पाया गया कमरे के पंखे पर होटल में/वह कहीं बाहर से आया था/एक नहीं रहा बिजली का नंगा तार छू जाने से/एक औरत नहीं रही अपने खेत में अपने को बचाते हुए/एक नहीं रहा डकैतों से अपना घर बचाते हुए/ये कल की तारीख में लोगों के मारे जाने के समाचार नहीं/कल की तारीख में मेरे बचकर निकल जाने के समाचार हैं.
बहुत से लोगों को हिन्दी के नवें दशक के लब्धप्रतिष्ठ कवि हरीशचन्द्र पांडे की ‘अखबार पढ़ते हुए’ शीर्षक यह पुरानी कविता गत शनिवार को उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में माफिया अतीक अहमद की पुलिस हिरासत में भाई सहित हत्या के बाद बहुत याद आई. आप जानते ही हैं कि उस दिन तीन पत्रकार वेशधारी हमलावरों ने माफियागिरी के रास्ते राजनीति में आकर सांसद और विधायक बन चुके उक्त दोनों भाइयों को तब भून डाला था, जब एक हत्याकांड के सिलसिले में वे पुलिस की हिरासत में थे और वह उन्हें चिकित्सीय परीक्षण के लिए अस्पताल ले जा रही थी. अतीक द्वारा चलते-चलते मीडियाकर्मियों के इस सवाल का जवाब दिया जा रहा था कि वे दो दिन पहले पुलिस द्वारा ‘मुठभेड़’ में मार गिराये गये अपने बेटे असद के जनाजे में क्यों नहीं गये, कि तभी…!
अतीक और अशरफ अहमद की हुई हत्या
अपनी जान को अंदेशों के बावजूद उस वक्त दो दर्जन से ज्यादा पुलिसकर्मियों से घिरे वे दोनों भाई अपनी सुरक्षा को लेकर थोड़े बेफिक्र दिख रहे थे. उन्हें क्या पता था कि हमलावर ताबड़तोड फायरिंग कर उनका काम तमाम कर ‘जयश्रीराम’ के नारे लगाने पर उतरेंगे तो ‘मुठभेड़ों’ में गजब की फुर्ती दिखाने वाली प्रदेश पुलिस की सुरक्षा उनके किसी काम नहीं आयेगी.
लेंकिन दहशतनाक होने के बावजूद यह वारदात उस दिन की देश और समाज की चेतना को झकझोरकर रख देनेब वाली एकमात्र वारदात नहीं थी. महज एक दिन पहले राजधानी दिल्ली की बेहद कडी सुरक्षा वाली तिहाड़ की जेल नम्बर तीन में गैगवार हुआ था, जिसमें कुख्यात लारेंस विश्नोई और हाशिम बाबा गैंग के गैगेस्टर प्रिंस तेवतिया की चाकू और सुए से गोदकर निर्ममतापूर्वक हत्या कर दी गई थी. साथ ही कई अन्य को घायल कर दिया गया था. उस गैगवार में भी पुलिस यथासमय निर्णायक हस्तक्षेप नहीं कर पाई थी.
फिर भी, जैसा कि कई महानुभाव ‘तर्क’ दे रहे हैं, आप मान सकते हैं कि इन दोनों कांडों में मारे जाने वालों ने दूसरों की जान लेकर या लेने में भूमिका निभाकर अपना जीने का अधिकार खो दिया था. हालांकि किसी भी सभ्य समाज में न ऐसे तर्क दिये जाते हैं, न ही स्वीकार किये जाते हैं. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी बहुत पहले कह गये हैं कि आंख के बदले आंख का सिद्धांत अंततः दुनिया को अंधी ही बनाता है. फिर भी उत्तर प्रदेश की योगी सरकार के मंत्री स्वतंत्रदेव सिंह इस आशय का ट्वीट करके डिलीट कर सकते हैं कि किसी व्यक्ति के पाप पुण्य का हिसाब इसी जन्म में होता है, तो किसी और तो उनके जैसा मत रखने से कैसे रोका जा सकता है?
लेकिन क्या कीजिएगा, अतीक भाइयों की हत्या के आगे-पीछे उत्तर प्रदेश में कई ऐसी वारदातें भी हुईं हैं, जो बताती है कि योगी सरकार अपने तमाम दावों के बावजूद उन निर्दोष नागरिकों के जानमाल की हिफाजत भी नहीं कर पा रही, जिन्होंने कभी चींटी तक नहीं मारी. 15 -16 अप्रैल की रात बांदा जिले के गिरवां थाना क्षेत्र के बड़ोखर बुजुर्ग गांव में एक ही परिवार के चार लोगों को उनके घर के अन्दर ही गला रेतकर मार डाला गया.
यह भी पढ़ें: UP के पूर्व DGP ने किया गैंगस्टर के ‘आतंकी राज’ को याद — ‘बड़ी संख्या में थे समर्थक’ मिला था राजनीतिक संरक्षण
देश में और भी हो रहीं हत्याएं
इसी तरह आजमगढ़ जिले में कंधरापुर थाना क्षेत्र के धनराशि गांव में बाप की डांट से नाराज एक युवक ने अपने मां बाप व बहन को कुल्हाड़ी से काट डाला. दोनों ही घटनाओं में हत्यारे निर्भय थे कि कानून उनका कुछ नहीं बिगाड़ पायेगा.
ऐसा भी नहीं कि यह कर्तव्यहीनता इस सरकार के भाजपाई होने के ही कारण हो. बिहार में जहां भाजपा के विरुद्ध विपक्ष को एक करने में लगे नीतीश कुमार की सुशासन सरकार हैं, 14-15 अप्रैल की रात मोतिहारी जिले के 22 और लोगों ने शिकार होकर राज्य में जहरीली शराब से मौतों के सिलसिले में नई कड़ी जोड़ दी. इससे दो दिन पहले वैशाली जिले में लालगंज थाना क्षेत्र के पंचमदिया गांव में दलित नेता राकेश पासवान की हत्या के बाद उत्पात का बाजार गर्म हुआ तो बात थाने पर हमले तक पहंुच गई.
लेकिन राज्य सरकार की सेहत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. वैसे ही, जैसे उत्तर प्रदेश में शाहजहांपुर में दूसरी से आगे बढ़ने की होड़ में श्रद्धालुओं से भरी एक ट्रैक्टर ट्राली गर्रा नदी में जा पलटी और पन्द्रह जानें चली गईं, लेकिन योगी सरकार की सेहत अप्रभावित रही. पन्द्रह अप्रैल को ही महाराष्ट्र के पुराने पुणे-मुम्बई हाइवे पर एक निजी बस खाई में गिर जाने से भी तेरह यात्रियों की मौत से भी उस राज्य की सरकार की पेशानी पर बल नहीं ही पड़े.
निस्संदेह, इसका कारण इन सरकारों के दिलोदिमाग में घर कर गई मानव-जीवन की बेकदरी ही है, जिसके तहत मान लिया गया है कि ऐसे हादसे तो होते ही रहेंगे. बिहार, बंगाल और महाराष्ट्र आदि में रामनवमी पर हिंसा, आगजनी व तोड़फोड़ में भी इसी मानसिकता के तहत निर्दोषों की माकूल सुरक्षा में अपनी विफलता को लेकर वे किसी अपराधबोध की शिकार नहीं हुईं. दरअसल, कोई कुछ भी कहें, आज की सरकार में ये सरकारें किसी भी दल, विचार या झंडे की हों, नागरिकों से सलूक की बाबत उनकी हालत एक ही थैली के चट्टे-बट्टों जैसी है.
इसी कारण उनमें से किसी के भी राज में नागरिकों के लिए न पुलिस की हिरासत सुरक्षित रह गयी है, न अपने घर और न ही सड़कें. हों भी कैसे, सरकारों ने अपनी करतूतों से उस लोकतांत्रिक मान्यता की जडें हिलाकर रख दी हैं, जिसके तहत चुनी जाने के बाद सरकारें उन मतदाताओं की भी शुभचिंतक हो जाती हैं, जिन्होंने उन्हें वोट नहीं दिया होता.
इस मान्यता के उलट अब स्वार्थी सरकारें मतदाताओं को समर्थकों व विरोधियों में बांटकर उनकी परस्पर नाराज भीडें खड़ी करतीं और अंग्रेजों की ‘बांटो व राज करो’ की नीति के बरक्स ‘दुश्मन बनाओ व लाभ उठाओ’ की नीति पर अमल करने लगी हैं. क्या आश्चर्य कि हम परपीड़ा में सुख तलाशने वाले ऐसे नागरिकों की संख्या में निरंतर वृद्धि देख रहे हैं, जो दिन-रात दूसरे समुदायों के दानवीकरण में लगे रहते हैं. इतना ही नहीं, सरकारें परस्पर आरोप-प्रत्यारोप में उलझाकर स्थिति को इतना गड्डमड्ड कर देती हैं कि सच्चाई का कुछ पता ही नहीं चलता. उनके द्वारा हर तरह की जिम्मेदारी के नकार के लिए यह स्थिति बहुत मुफीद होती है.
राजनीति के अपराधीकरण के दौर से पहले देश में एक ऐसा भी वक्त था, जब कहा जाता था कि कोई भी व्यक्ति जन्म से अपराधी नहीं होता और जो व्यवस्था उसे अपराधी बनाती है, उसे उसकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए. साथ ही व्यवस्था से अपेक्षा की जाती थी कि वह किसी भी आधार पर अपराधियों में भेदभाव न करे और वे कितना भी गर्हित रास्ता क्यों न अपनाएं, वह कानूनी प्रक्रिया में अपना विश्वास असंदिग्ध बनाये रखे. इसलिए अपराधी-पुलिस भिड़ंत में चाहे जिस पक्ष की जनहानि होती थी, उसे देश की हानि माना जाता था और सरकारें किसी भी जीवनहानि की गहरी शर्म महसूस किया करती थीं. लेकिन यह शर्म अब गुजरे जमाने की बात हो गयी है.
माफियाओं को मिट्टी में मिला दूंगा
अब मुख्यमंत्री द्वारा परपीड़ा के लती अपने समर्थकों को ‘संदेश’ देने के लिए माफियाओं को मिट्टी में मिला देने की घोषणा की जाती है, तो भुला दिया जाता है कि इससे कानून के शासन में जनविश्वास को कितनी बड़ी क्षति होगी. खासकर जब ‘अपने माफिया’ का बालबांका नहीं होने दिया जायेगा और इस मूल न्यायिक सिद्धांत की अवज्ञा कर दी जायेगी कि बदला इंसाफ नहीं हुआ करता और अपराध अपराधियों की हत्या से नहीं, उनकी मानसिकता के उन्मूलन व इंसाफ की व्यवस्था की स्थापना से खत्म होते हैं.
भुला तो खैर आज यह भी दिया गया है कि तुरत-फुरत इंसाफ के लिए इंसाफ के लोकतांत्रिक मूल्यों की बेकदरी हमेशा विषफल ही देती है. यह भी कि कानून के हाथ किसी भी हालत में इतने लंबे तो होते ही हैं कि उनके काम में बेजा दखल न दिया जाये तो अपराधियों को अंजाम तक पहुंचाने के लिए उन्हें खुद को खून से रंगने की जरूरत नहीं पड़ती.
बहरहाल, एक बार फिर हरीशचन्द्र पाडे की कविता पर लौटें तो अब जब हालत ऐसी बना दी गई है कि हत्यारे अपना काम करके ‘जयश्रीराम’ का नारा लगाने लगे हैं, हम कब तक दूसरों के इस तरह मारे जाने को अपने बचकर निकल आने के समाचार के तौर पर देखकर खैर मना सकेंगेे?
(कृष्ण प्रताप सिंह अयोध्या स्थित जनमोर्चा अखबार के पूर्व संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
(संपादन:आशा शाह )
यह भी पढ़ें: ‘उसने गलत किया, लेकिन उसे सजा भी तो मिली’, अतीक, अशरफ के लिए लोगों में मिलीजुली भावनाएं, अलग-अलग तर्क