भारत एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक देश है, जो बराबरी और न्याय के वादे पर बना है और लंबे समय से इन संवैधानिक आदर्शों को हकीकत बनाने की कोशिश कर रहा है. खासकर लैंगिक समानता हमेशा इस कोशिश का सबसे बड़ा हिस्सा रही है क्योंकि यह हर हाशिए पर खड़े समुदाय को ऊपर उठाने की ज़रूरी शर्त है. इसी उद्देश्य से हिंदू कोड बिल में कई बार सुधार किए गए, भले ही कट्टरपंथी इसका विरोध करते रहे, लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ ज्यादातर बिना बदलाव के ही रहा है—धार्मिक आज़ादी और अल्पसंख्यक अधिकारों के नाम पर. यह चुनिंदा रवैया, जिसे विविधता के सम्मान के रूप में पेश किया गया, चुपचाप असमानता को टिकने देता रहा.
जहां 1955 का हिंदू मैरिज एक्ट हिंदुओं के लिए बहुविवाह (पॉलिगेमी) को गैरकानूनी और अपराध घोषित करता है, वहीं भारत में मुस्लिम अब भी इसे कानूनी रूप से कर सकते हैं. यह बात एक आधुनिक, संवैधानिक लोकतंत्र की सोच से मेल नहीं खाती.
अब असम ने इसे बदलने की दिशा में पक्का कदम उठाया है. 9 नवंबर को राज्य सरकार ने बहुविवाह पर रोक लगाने वाला ड्राफ्ट बिल पास किया, जिसमें कानून तोड़ने वालों के लिए 7 साल तक की सज़ा का प्रस्ताव है. सरकार ने यह भी कहा कि जिन महिलाओं को इस प्रतिबंध के कारण आर्थिक या सामाजिक मुश्किल आ सकती है, उनके लिए मुआवजा फंड बनाया जाएगा. मैं इस कदम से खुश हूं, लेकिन एक सवाल मुझे परेशान करता है—हमने इतने बड़े और साफ-साफ दिखने वाले भेदभाव का सामना करने में इतना वक्त क्यों लगाया, जो कानून के ढांचे के भीतर ही मौजूद है?
हर बार जब किसी ऐसे कानून या रिवाज़ पर सवाल उठता है जो महिलाओं को बराबरी नहीं देता, बहस एक ही पुराने आरोप पर आकर रुक जाती है—‘यह न्याय नहीं, यह एक समुदाय को निशाना बनाना है.’ यह आरोप जैसे रट गया है: बदलाव का विरोध करो, इसे हमला कह दो और बहस खत्म, लेकिन खुद से एक सीधा सवाल पूछिए—अगर महिलाओं को बराबर इज़्ज़त देने की मांग करना “किसी को निशाना बनाना” है, तो फिर शायद हर समुदाय को तब तक “निशाना” बनाया जाना चाहिए जब तक बराबरी सबके लिए न हो जाए.
हम परंपरा को कभी भी अन्याय का ढाल नहीं बनने दे सकते. समाज बदलते हैं—हम नई दवाइयां, नई तकनीकें, नए विचार अपनाते हैं ताकि ज़िंदगी बेहतर हो सके. फिर कुछ लोग क्यों इस बात पर अड़े रहते हैं कि महिलाएं ऐसे पुराने रिवाज़ों से बंधी रहें जो उन्हें दोयम दर्जे की ज़िंदगी में रख दें? प्रगति संस्कृति पर हमला नहीं होती; यह वह ज़रूरी, कभी-कभी कठिन काम है, जिससे संस्कृति अपने सबसे बड़े दावे—न्याय, सम्मान और बराबरी—को सच कर सके. अगर सुधार को केवल इसलिए आपत्तिजनक कहा जाएगा क्योंकि वह मुश्किल सवाल पूछता है, तो इसका मतलब है कि हमने नैतिक प्रगति को डर के हवाले कर दिया.
सिद्धांत, राजनीति नहीं
एक मुस्लिम महिला होने के नाते, यह सब मैं और गहराई से महसूस करती हूं. हमारे नेताओं को और समाज को भी—शर्म महसूस होनी चाहिए कि राज्य को दखल देना पड़ा क्योंकि हमने खुद कुछ नहीं किया.
समुदाय की महिलाओं को जो दर्द, अन्याय और अपमान झेलना पड़ा, उसे बहुत पहले ही हमारी अपनी नैतिक जिम्मेदारी ने हल कर देना चाहिए था. लेकिन हमने आंखें मूंद लीं, आवाज़ उठाने वालों को परंपरा/संस्कृति के नाम पर चुप करा दिया और इसे पहचान की रक्षा बता दिया. अब जब राज्य वह सुधार करने की कोशिश कर रहा है, जिसे हमने नहीं किया—हम कहते हैं यह राजनीति है, न्याय नहीं. शायद असली राजनीति हमारी खामोशी में छिपी है—कुछ न करने की सहूलियत में, जबकि हमारी आधी आबादी लगातार इसकी कीमत चुकाती रही.
मैंने असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा की कई बातों की आलोचना की है, लेकिन बतौर पासमांदा मुस्लिम महिला, मैं इस कदम के लिए सिर्फ आभार ही महसूस कर सकती हूं. मैं उन्हें बधाई देती हूं—एक राजनीतिक समर्थक के रूप में नहीं, बल्कि एक ऐसी महिला के रूप में जिसे आखिरकार कानून ने देखा है. मुझे लगता है कि यह कदम हर राज्य के लिए एक मॉडल होना चाहिए.
यह बात भी सोचने वाली है कि कुछ लोग इसे बीजेपी के यूनिफॉर्म सिविल कोड के एजेंडे की ओर कदम बता रहे हैं—जैसे कानून के सामने बराबरी कोई खतरनाक चीज़ हो. सभी भारतीय महिलाओं के लिए एक जैसे सिविल कानून की मांग करना विवादास्पद क्यों होना चाहिए, जहां सबको वही न्याय और वही इज़्ज़त मिले जो संविधान वादा करता है?
मैं सुझाव दूंगी कि अन्य राजनीतिक पार्टियां—खासकर वे जो खुद को सेक्युलर, प्रोग्रेसिव और महिलाओं के अधिकारों का चैंपियन कहती हैं—इसे एक मिसाल की तरह देखें. कांग्रेस और बाकी पार्टियों को, जो खुद को प्रगतिशील बताते हैं, इस पल को गंभीरता से समझकर इससे सीखने की जरूरत है. सालों तक उन्होंने महिलाओं के अधिकारों, न्याय और बराबरी की बात तो की है, लेकिन सिर्फ बातें किसी का जीवन नहीं बदलतीं. यहां तक कि केरल हाई कोर्ट भी, एक कम्युनिस्ट सरकार के तहत, आस्था और संविधान को मिलाकर आगे बढ़ने की कोशिश कर चुका है.
क्योंकि सच यही है—ज़ुबानी दावे किसी को आज़ाद नहीं करते. भाषण लोगों की ज़िंदगी नहीं बदलते. अगर आप उन मूल्यों पर खड़े होने को तैयार नहीं जो आप खुद प्रचार करते हैं, तो लोग आप पर भरोसा कैसे करें? अगर एक बीजेपी-शासित राज्य यह कदम उठा सकता है, तो वे क्यों नहीं जो अपनी राजनीति बराबरी और सशक्तिकरण की भाषा पर बनाते हैं?
यह राजनीति से ज़्यादा सिद्धांत का सवाल है. अगर हम सच में न्याय, बराबरी, और संविधान के वादे को मानते हैं, तो हर वो कदम जो महिलाओं को मजबूत बनाता है, उसकी सराहना होनी चाहिए, राजनीति नहीं. असम ने एक छोटा कदम लिया है, लेकिन इसका संदेश बहुत साफ़ और दूर तक जाने वाला है. एक मुस्लिम महिला के तौर पर, मैं चाहती हूं कि यह कदम सिर्फ तालियों का कारण न बने, बल्कि पूरे भारत में, हर समुदाय और हर पार्टी में, असल बदलाव की शुरुआत करे.
(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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