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Sunday, 17 November, 2024
होममत-विमतअसदुद्दीन ओवैसी के उदय का हिंदुत्व की राजनीति को एक जमाने से इंतजार था

असदुद्दीन ओवैसी के उदय का हिंदुत्व की राजनीति को एक जमाने से इंतजार था

मुस्लिम एकजुट और एकमुश्त एक जगह वोट करें, ये विचार वैसा ही गर्हित है जैसा कि हिन्दुओं को एक वोटबैंक में तब्दील करने की कोशिश.

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‘एआईएमआईएम का उदय से मुझे चिंता हो रही है’. बिहार विधानसभा के चुनाव के बाद मैंने जब ये बात एक टेलीविजनी बहस में कही तो दस्तूरन इस बार भी मेरे ऊपर ताने कसे गये. हां, इस बार ताना कसने वाले मुस्लिम-परस्त थे. कहा गया कि ये आदमी घुटा हुआ संघी है! मुझे इस्लामोफोबिया (इस्लाम-भीत्ति) से ग्रस्त भी कहा गया. और, ऐसी प्रतिक्रियाओं से मेरे मन में ये विश्वास और भी गहरा हुआ कि ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तिहाद-उल-मुसलमीन (एआईएमआईएम) का उदय सचमुच बड़ी चिन्ता की बात है.

जिन चिंताओं का कोई आधार नहीं

इस मामले में मेरी चिंता वैसी नहीं जैसी कि ‘सेक्युलर जमात’ वालों की चिंता है. मैं एआईएमआईएम को इस बात का दोष नहीं दे रहा कि उसने सेक्युलर वोटों में सेंध लगायी और इस बात को सुनिश्चित किया कि महागठबंधन (एमजीबी) हार जाये. पहली बात तो यही कि एआईएमआईएम पर जो दोष मढ़ा जा रहा है वो सही नहीं है. एआईएमआईएम ने बिहार के उत्तर-पूर्वी छोर के मुस्लिम बहुल इलाके में पांच सीटें जीती जरूर हैं लेकिन इलाके की जिन बाकी सीटों पर पार्टी चुनाव लड़ी वहां वोटों ऐसे नहीं बंटे कि महागठबंधन के उम्मीदवार का बंटाधार हो जाये. विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) का आकलन है कि बिहार में लगभग 76 फीसद मुस्लिम वोट महागठबंधन के खाते में गया है. जाहिर है, फिर मुसलमान मतदाताओं ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को हराने के लिए रणनीतिक ढंग से वोटिंग नहीं की.

इससे भी ज्यादा अहम बात ये कि अगर मुस्लिम वोट सचमुच ही बंट गया तो फिर आखिर ऐसा होने में गलत क्या है? आप किसी राजनीतिक पार्टी पर ये आरोप तो नहीं लगा सकते न कि उसने अपने प्रतिद्वन्द्वी को जीतने नहीं दिया. जो भी नई पार्टी आती है, उसी को वोटकटवा कह दिया जाता है. 2013 में दिल्ली विधानसभा के चुनाव में आम आदमी पार्टी पर भी यही आरोप मढ़ा गया था. ये देखना बड़ा दिलचस्प है कि जिन पार्टियों पर भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की बढ़त को आगे बढ़कर रोकने की मुख्य जिम्मेवारी थी, वो पार्टियां ये उम्मीद लगाये बैठी थीं कि बाकी तमामतर दल उन्हें ऐसा करने में मदद देंगे.

बात चाहे जो भी हो, ये सोचना कि तमाम मुस्लिम एकजुट और एकमुश्त किसी एक दल को वोट डालेंगे उतना ही गर्हित विचार है जितना ये कि तमाम हिन्दू एकजुट होकर किसी एक को वोट करें. स्वस्थ लोकतंत्र तो वही कहलाएगा जहां मतदाता जन्म से प्राप्त अपनी संज्ञा (मतलब जाति, धर्म आदि) के आधार पर नहीं बल्कि किसी पार्टी को मत-मतांतर तथा अपने मूल्यांकन के आधार पर वोट डालता है. अगर मुस्लिम वोट बंट गये तो इससे यही पता चलता है कि उनके पास चुनने को एक से ज्यादा विकल्प थे. और, जो ऐसा था फिर ये एक अच्छी बात है.


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अतीत संदेहास्पद, वर्तमान सांप्रदायिक

मेरी चिंता ये नहीं कि एआईएमआईएम निहायत नुकसानदेह सियासी धड़ा है. इस हैदराबादी पार्टी को लेकर आज जो लोगों के मन में नफरत पल रही है उसकी एक बड़ी वजह तो ये है कि इसके नेता असदुद्दीन ओवैसी टेलीविजन के जमे-जमाये चेहरे हैं. वे बहुत चुन-गढ़ कर अपनी बातें कहते हैं, उनकी बातों में जोर और दम होता है और वे अपनी बातों के साथ हमलावर होने में परहेज नहीं करते. ऐसे में उनकी पार्टी देशभक्ति का प्रमाणपत्र बांटने के भाव से निकले लोगों के लिए बड़ा आसान शिकार बन जाती है.

ये बात तय है कि एआईएमआईएम का अतीत संदेहास्पद है. तत्कालीन हैदराबाद के शासक निजाम की सरपरस्ती में 1927 में कायम हुई इस पार्टी ने मुसलमानों के स्वायत्त भू-भाग की मुस्लिम लीग की मांग का समर्थन किया था. यही नहीं, भारत में हैदराबाद के विलय के खिलाफ हिन्दुस्तानी फौज से लड़ने वाले रजाकारों के सशस्त्र जत्थे से भी एआईएमआईएम का रिश्ता रहा. लेकिन, एक बार जब एआईएमआईएम ने आजाद हिन्दुस्तान की सच्चाई को स्वीकार कर लिया तो फिर इसके नेतृत्व की जिम्मेवारी ओवैसी परिवार के कंधे पर आयी और तब से पार्टी सांवैधानिक लोकतंत्र के तयशुदा दायरे में रहकर अपनी सियासत करती है. इस पार्टी, खासकर ओवैसी परिवार पर इस बात के आरोप लगते रहे हैं कि हैदराबाद के कुल हिस्से-हलके और तबके पर इनकी दबंगई चलती है. लेकिन, इस मामले में फिर एआईएमआईएम वैसी ही जान पड़ेगी जैसे कि मुंबई में शिवसेना.

एआईएमआईएम एक सांप्रदायिक जमात है. ये पार्टी ‘मुसलमानों की, मुसलमानों के लिए, मुसलमानों के द्वारा’ तर्ज की राजनीति करती है. लेकिन, ऐसा करने वाली सिर्फ यही अकेली पार्टी नहीं है. जरा शिरोमणि अकाली दल(एसएडी) के बारे में सोचिए जो ‘सिखों की, सिखों के लिए और सिखों के द्वारा’ तर्ज की राजनीति करती है. या फिर हम केरल की इंडियन युनियम मुस्लिम लीग और उत्तर प्रदेश की मिल्ली काउंसिल के बारे में सोच सकते हैं. या फिर इस सिलसिले में हम उन दलों को याद कर सकते हैं जिनके नाम से तो उनका अजेंडा जाहिर नहीं होता लेकिन अपने तमाम सियासी बर्ताव और राजनीतिक अभिव्यक्तियों में वे किसी एक धर्म-समुदाय की नुमाइंदगी करती हैं : मिसाल के लिए असम की ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट और केरल कांग्रेस के विभिन्न धड़े. और, सबसे जाहिर उदाहरण तो भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का ही है. फिर, हम इस सिलसिले में ऐसी पार्टियों को भी ले सकते हैं जो किसी एक जाति-विशेष की नुमाइंदगी करती हैं. ये तमाम पार्टियां कानून को ठेंगा दिखाते हुए जातिगत या फिर सांप्रदायिक अपील के सहारे अपने लिए वोट जुटाने की कोशिश करती हैं. बेशक, ऐसा करने से रोकने के कानून हैं लेकिन ये कानून कागजी बनकर रह गये हैं. इन पार्टियों को गैरकानूनी घोषित करना समस्या का समाधान नहीं है. ऐसे दलों से सियासी जमीन पर ही निपटना होगा. सांप्रदायिक राजनीति के नाम पर सिर्फ एआईएमआईएम पर उंगली उठाना पाखंड ही कहलाएगा.

असल समस्या

मुश्किल एआईएमआईएम को लेकर नहीं बल्कि मुश्किल उन बातों को लेकर है जिनकी नुमाइंदगी एआईएमआईएम करता है. ये पार्टी राष्ट्रीय राजनीतिक रंगमंच पर मुस्लिम-विशेषी राजनीति का प्रतीक है. मुसलमान होने के नाते किसी व्यक्ति के भीतर जो भय पड़े रहते हैं उन्हें जगाने-जिलाने की तमाम कवायद नरेन्द्र मोदी के शासन-काल में हुई. आज के दिन मुसलमानों को लगने लगा है कि वे अपने ही देश में दूसरे दर्जे के नागरिक बनकर रह गये हैं. उन्हें अंदेशा है कि हालात इससे भी ज्यादा बुरे हो सकते हैं. भय और दुश्चिन्ता का ये माहौल असदुद्दीन ओवैसी सरीखे किसी व्यक्ति के लिए जमीन बढ़ाते जाने का मुकम्मल मौका है. परंपरागत मुस्लिम नेतृत्व के उलट ओवैसी को संवैधानिक लोकतंत्र की भाषा मालूम है. और, परंपरागत सेक्युलरी राजनीति के विपरीत ओवैसी मुस्लिम हितों की बात भी जोर-शोर से कहते हैं. जब सुप्रीम कोर्ट ने राम मंदिर के मामले में अपना अजीब सा फैसला सुनाया तो ओवैसी ने मुस्लिम समुदाय की तरफ से अपना पक्ष रखा. वे जानते हैं कि उन्हें जो कुछ कहना है, उसे कानून के दायरे में रहते हुए कैसे कहा जाये. वे टेलीविजन की ताकत भी समझते हैं. सो, ओवैसी को दोष देना बेकार है. वोट के बाजार में जो कुछ मौजूद है उसे भुनाने से ओवैसी जैसा चुस्त-चतुर नेता परहेज करने से रहा.

अगर कसौटी किसी एक इलाके से बाहर निकलकर मुस्लिम-विशेषी राजनीति को आजमाने की बनायी जाये तो फिर कहना होगा कि इस कसौटी पर एआईएमआईएम सबसे ज्यादा कामयाब रही है. बिहार में इस पार्टी की कामयाबी अंधे के हाथ बटेर लगने जैसा मामला नहीं. वह एक लंबे वक्त से इस कोशिश में लगी थी कि उसकी सियासत हैदराबाद के पार भी फैले. बिहार की ही तरह, ओवैसी अपना पैर जमाने के लिए तीसरा मोर्चा के दलों के साथ अपनी पार्टी का तुक मिलाने की कोशिश करते रहे हैं. 2019 में उन्होंने महाराष्ट्र विधानसभा के चुनावों में प्रकाश आंबेडकर के बहुजन वंचित अघाड़ी के साथ गठजोड़ किया था. उनकी पार्टी को औरंगाबाद म्युनिसिपैलिटी के चुनावों में भारी कामयाबी मिली. आगे हम ये भी देखेंगे कि एआईएमआईम पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश के अगामी चुनावों में अपनी कोशिश जारी रखेगी.

देश के बंटवारे के बाद के वक्त में भारत में मुसलमानों ने जिस तर्ज की राजनीति की है, इस लीक से बहुत अलग हटकर है एआईएमआईएम की राजनीति. मालाबार और हैदराबाद सरीखे छोटे से इलाके को छोड़ दें तो अन्य किसी भी जगह मुसलमानों ने मुस्लिम-परस्त पार्टियों और दलों पर अपना यकीन नहीं जताया. इसके उलट मुसलमानों ने अपना भरोसा जवाहरलाल नेहरू, वी.पी.सिंह और मुलायम सिंह यादव जैसे नेताओं पर जताया. मुसलमानों ने अपना वोट सेक्युलर पार्टियों को दिया जिन्हें बहुसंख्यक समुदाय का भी विश्वास हासिल था.

एआईएमआईएम का उदय इस बात के संकेत करता है कि मुस्लिम जनता अब कांग्रेसी तर्ज की सेक्युलर राजनीति से ऊब चुकी है. राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) और समाजवादी पार्टी (एसपी) भी कांग्रेसी तर्ज की ही सेक्युलर राजनीति करते थे. ये मुसलमानों को बंधक बनाये रखने और उन्हें एक वोटबैंक के रूप में मानकर चलने की राजनीति है और मुस्लिम जनता अब इस बात को समझ चुकी है. इस तर्ज की राजनीति मुसलमानों को जीवन की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने की चीजें कारगर तरीके से मुहैया कराने में मददगार नहीं. और, बतौर मुस्लिम उनके मन में कोई दुख-तकलीफ है तो उसे भी सेक्युलर तर्ज की राजनीति खुलकर नहीं कहने देती. भारतीय मुसलमानों की दुविधा बहुत कुछ अमेरिकी अश्वेत आबादी से मिलती-जुलती है: रिपब्लिकन पार्टी को अश्वेतों की फिक्र नहीं सताती क्योंकि उसे लगता है, अश्वेत मतदाता तो इसे वोट देने से रहे और डेमोक्रेटिक पार्टी भी अश्वेतों की चिंता नहीं करती क्योंकि उसे लगता है, हमें वोट देने के अलावा इनके पास चारा क्या है. भारत में कुछ ऐसे ही हालात के बीच एआईएमआईएम ने मुस्लिम जनता को एक रास्ता दिखाया है कि अगर वह बराबर का नागरिक नहीं हो सकती तो कम से कम मुस्लिम तो हो ही सकती है. ये कोई समाधान नहीं लेकिन समाधान जैसा जान पड़ता है.

राजनीति के राष्ट्रीय रंगमंच पर मुस्लिम-विशेषी सियासत का उदय हिन्दू बहुसंख्यकवाद का वो मनमाफिक साथी साबित हो सकता है जिसका इंतजार उसे एक जमाने से रहा है. इसके नतीजे में अब होगा ये कि हिन्दू-मुस्लिम के बीच मौजूद भेद की खाई को पाटने की राजनीति के भीतर कोई पुरजोर जज्बा न रह जायेगा. बीजेपी को सत्ता में बैठाकर हिन्दू बहुसंख्यकों ने सेक्युलर राजनीति को खारिज कर ही रखा है. अगर अल्पसंख्यकों को भी सेक्युलर राजनीति बेकार लगने लगी तो फिर समझिए कि भारत के संविधान में जिस सेक्युलर भारत का विचार दर्ज है, उसका खात्मा हो गया. सेक्युलर राजनीति को चाहिए कि वो अपने को बदले और इस खतरे से निपटे. सेक्युलर राजनीति के पास अब ज्यादा वक्त नहीं है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. व्यक्त विचार निजी है)


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