उदारवादियों के लिए इस मध्यम वर्ग में राजनीतिक स्थान की तलाश करना बेकार है – उनके लिए गाँधी और नेहरू एक खोई हुई दुनिया के सिर्फ नाम हैं।
भारत में सबकुछ सामान्य दिखता है। सभी समाचार पत्रों के शहर संस्करणों में फिल्मी गपशप, सेलिब्रिटी पार्टियों और कॉमिक पट्टी की तस्वीरों के साथ दैनिक गतिविधियों और घटनाओं का प्रकाशन किया जाता है। दिल्ली की खान मार्केट, मुंबई की पाली हिल या बेंगलुरू की लवेल्ला रोड पर यूरोपीय और चीनी या जापानी व्यजंन परोसने वाले जो रेस्त्रां हैं, वह मेहमानों से भरे हुए हैं।
मनोदशा को देखते हुए, ऐसा लगता है कि असम के नागरिकों का राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) या मॉब लिंचिंग या बलात्कार के मामले किसी दूसरे हाई महाद्वीपों पर हो रहे हैं।
ऐसा लगता है कि अराजकता की काली छाया प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के चाहने वालों के लिए एक विचित्र भ्रम है। आख़िरकार , तथाकथित भीड़ द्वारा हिंसा और सांप्रदायिक संघर्ष हमेशा से भारत का एक हिस्सा रहे हैं और मोदी की आलोचना करने वाले पत्रकार केवल दिमागी डर पैदा कर रहे हैं। दरअसल, अगर यह डर के सौदागर चुपचाप बैठ जाएं तो जिंदगी में शान्ति आ जाएगी।
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अगर कोई समाचार चैनलों या मीडिया के बनाए गए प्रिज्म से दुनिया को देखता है तो ऐसा लगता है कि केवल भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया दो छावनियों में विभाजित है – इस्लामवादी और इस्लाम विरोधी। कुछ मुस्लिम देशों से आवागमन (प्रवाह) पर प्रतिबंध लगाने की यूरोप या अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की नीति में तथाकथित आप्रवासन संकट इस विभाजन का वैश्विक प्रतिबिंब है।
लगभग 25 साल पहले, अमेरिकी समाजशास्त्री सैमुएल पी. हंटिंगटन ने बताया था कि भविष्य में होने वाले संघर्ष देशों के बीच नहीं बल्कि संस्कृतियों के बीच होंगे। (विदेशी मामले, 1993)। उनके अनुसार, विश्व शांति के लिए सबसे बड़ा खतरा वैश्विक इस्लामी सभ्यता से होगा, जिसमें हिंसक चरमपंथी हाथ है। उनके लेख का शीर्षक “सभ्यताओं का संघर्ष“ था।
यह एक दिलचस्प संयोग है कि उन्होंने सोवियत संघ के पतन और शीत युद्ध (दिसंबर 1991) के अंत के तुरंत बाद अपनी थीसिस का तर्क दिया। माना जाता था कि ‘50 के दशक से लेकर शुरुआती 90 के दशक तक’, दुनिया को कम्युनिस्ट और लोकतांत्रिक देशों के बीच विभाजित किया गया माना जाता था। “जो लोग हमारे साथ नहीं हैं वे हमारे खिलाफ हैं” यह सरल अमेरिकी वैश्विक नजरिया था। इस विचार से भारत में बौद्धिक प्रतिष्ठान पर काफी प्रभाव पड़ा। उस समय दिल्ली में इंडिया इंटरनेशनल सेंटर (आईआईसी) जैसे स्थान सांस्कृतिक शीत युद्ध के उत्पादक के रूप में देखे गए थे।
हंटिंगटन की थीसिस के लिए भारत सबसे उपजाऊ जमीन साबित हुआ। 6 दिसंबर 1992 को हिंदू कट्टरपंथियों ने बाबरी मस्जिद को ध्वस्त कर दिया था। यहां तक कि बुद्धिजीवी प्रतिष्ठान के अगुआकार जैसे गिरिलाल जैन, टाइम्स ऑफ इंडिया के पूर्व संपादक, ने अपनी पुस्तक ‘द हिंदू फेनोमेनन’ में कहा कि विध्वंस “अनिवार्य रूप से फायदेमंद” था, और मुस्लिम एक हिंदू राष्ट्र में सुरक्षित महसूस करेंगे।
अन्यथा के आर मलकानी, एमवी कामथ और टीवीआर शेनॉय जैसे छोटे संपादकों ने जैन के विचारों को प्रतिबिंबित किया। भले ही अनजाने में लेकिन लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा वास्तव में हंटिंगटन द्वारा दिखाए गए मार्ग का पालन कर रही थी।
तब से, सांप्रदायिक विभाजन हिंदू मध्यम वर्ग चेतना के माध्यम से देखा गया है। इतिहास के अगर और मगर दिलचस्प और शिक्षाप्रद हो सकते हैं। अगर अटल बिहारी वाजपेयी की अगुआई वाली बीजेपी 2004 में सत्ता में आई थी (सहायक एनडीए साथियों के साथ), तब हमने देखा कि हिंदू समेकन शायद उस समय शुरू हो गया था।
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आइए हम इस तथ्य को अनदेखा न करें कि 2004 के चुनावों में सोनिया गांधी की अगुआई वाली कांग्रेस और वाजपेयी की अगुवाई वाली बीजेपी के बीच सीटों (कांग्रेस 145 और बीजेपी 138) का अंतर सिर्फ सात था।
सोनिया के “धर्मनिरपेक्ष” दलों के साथ पूर्व चुनाव गठबंधन के गठन ने कांग्रेस को बचाया। उस समय संघ परिवार में चर्चा यह थी कि वाजपेयी अपने कार्यकाल के मध्य में आडवाणी के लिए अपनी सीट छोड़ देंगे और 2007 में राष्ट्रपति बनेगें।
यह सब आज कल काल्पनिक लगता है। लेकिन उन दिनों आडवाणी भी कम हिंदुत्ववादी नहीं थे। “मुखौटा और चेहरा” की प्रसिद्ध वार्ता उस समय ड्राइंग रूम में हो रही थी। ऐसा कहा गया था कि वाजपेई का उदार “मुखौटा” आडवाणी के वास्तविक “चेहरे” द्वारा प्रतिस्थापित किया जाएगा। आख़िरकार ,वह आडवाणी ही थे जिन्होंने गुजरात के गोधरा के बाद मोदी का जोरदार बचाव किया था।
आज, आडवाणी कई मोदी आलोचकों को उदार चेहरे के रूप में भी दिखाई दे सकते हैं, लेकिन आर. के. लक्ष्मण के एक कार्टून में वह “त्रिशूल” धारण किए हुए नजर आए। अगर मोदी आज अपने सहायकों के साथ कल्याणकारी व्यवहार कर सकते हैं, तो ऐसा इसलिए होगा कि वास्तविक चेहरा प्रशासन पर हावी हो गया है। आरएसएस का “चेहरा” अब काबू में है और तथाकथित “मुखौटा” की स्थिति अच्छी नहीं है।
वामपंथ को आज क्यों त्याग दिया गया है और उदारवादी अपना राजनीतिक स्थान बचाने की कोशिश कर रहे हैं, ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्हें समय पर एहसास नहीं हुआ कि सियासी संभाषण की शर्तें बदल गई हैं। मध्यम वर्ग, जो उदार-धर्मनिरपेक्ष मूल्यों का प्रतिनिधि था, ने इसे बदल दिया।
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मध्यम वर्ग का एक भाग सुखवादी-उपभोगवादी बन गया था, जो अमेरिकी जीवन शैली की आकांक्षा रखता था, और दूसरा भाग नव-हिंदुत्व में अपनी पहचान ढूंढने की कोशिश कर रहा था। अपनी जड़ें अमेरिका या गल्फ देशों में ढूँढ़ने वाले अप्रवासी भारतीयों ने पहले आडवाणी और फिर मोदी को स्वीकार किया।
जो लोग अपनी शाम काफी महंगे रेस्तरां में गुजारते थे वे उच्च मध्यम वर्ग के लोग थे। बाहर अराजकता और लिंचिंग के प्रति उदासीनता से मध्यम वर्ग का दूसरा भाग नव-हिंदुत्व को क्षमा करने वाला बन गया। उदारवादियों के लिए इस वर्ग में राजनीतिक स्थान की तलाश करना बेकार है – उनके लिए महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू खोई हुई दुनिया के सिर्फ नाम हैं।
कुमार केतकर पूर्व संपादक और राज्यसभा के कांग्रेस सदस्य हैं।
Read in English : As BJP’s Hindutva grew, India’s pleasure-seeking middle classes looked away