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Thursday, 31 October, 2024
होममत-विमतकैसा रहेगा राष्ट्रीय राजनीति में उतरने का अरविंद केजरीवाल का तीसरा प्रयास

कैसा रहेगा राष्ट्रीय राजनीति में उतरने का अरविंद केजरीवाल का तीसरा प्रयास

नियति अरविंद केजरीवाल को तीसरा मौका दे रही है और वह अपनी पूर्व की गतलियों से सीख लेकर इस बार अच्छी पारी खेल सकते हैं.

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एग्जिट पोल ने ये स्पष्ट कर दिया है कि अरविंद केजरीवाल लगातार तीसरी बार दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेंगे. जैसा कि उन्होंने अपने पिछले दो कार्यकालों में किया था. उनकी तात्कालिक सोच यही होगी कि आम आदमी पार्टी को तैयारी के साथ राष्ट्रीय स्तर पर ले जाना है.

राष्ट्रीय स्तर पर प्रसार के अपने पहले दो प्रयासों में उन्होंने कई गलतियां की थीं. लेकिन उनमें झटके लगने के बाद हर बार फ़ीनिक्स की तरह दोबारा उठ खड़े होने की अद्भुत क्षमता है. नियति उन्हें अब तीसरा मौका दे रही है. केजरीवाल ने पिछले 10 वर्षों की राजनीति में पर्याप्त गलतियां की हैं. इन गलतियों से सीख लेकर, वह अगले दशक को कामयाब बना सकते हैं.

अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी (आप) के पास अभी भी राष्ट्रीय स्तर पर मुख्य विपक्षी पार्टी के रूप में कांग्रेस की जगह लेने का मौका है. इस बार वह इस बारे में कैसे कदम बढ़ा सकते हैं? ये हैं कुछ बातें जिन पर केजरीवाल दिल्ली चुनाव के नतीजे आने से पहले के खाली समय में विचार कर रहे होंगे.

विनम्र व्यवहार

बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि आप के संयोजक केजरीवाल 11 फरवरी को नतीजे को किस रूप में लेते हैं. क्या उनका दिमाग एक बार फिर गर्व और अभिमान से भर जाएगा?

केजरीवाल का 2015 में दिल्ली विधानसभा चुनाव में जीत के बाद पहला काम था. योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को अचानक बाहर का रास्ता दिखाने का. उनके फिर से ऐसी गलती करने की संभावना नहीं है. वह शायद एक बार फिर एकाधिकारवादी होने का आरोप नहीं झेलना चाहें.

उसके बाद 2017 में पंजाब में हार हुई, जिसने उनके अभिमान को ज़मीन पर ला दिया. उन्होंने चुप्पी साध ली थी और उन्हें इस झटके से उबरने में समय लगा था.

अधिक संभावना यही है कि बिना देरी किए केजरीवाल राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी के विस्तार के काम में जुट जाएं. वह 51 वर्ष के हैं और अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए उनके पास केवल 20-30 वर्ष ही हैं.

सकारात्मक चुनाव अभियान

केजरीवाल को 2015 की जीत के बाद नरेंद्र मोदी का राष्ट्रीय विकल्प बनने की संभावनाएं नज़र आई थीं और उन्होंने सोचा था कि दिन-रात मोदी की आलोचना करके वह खुद को विकल्प के तौर पर खड़ा कर सकते हैं. उन्हें लगा था कि नरेंद्र मोदी का सबसे मज़बूत प्रतिस्पर्द्धी बनकर उभरने का यही तरीका है.


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और इस प्रक्रिया में केजरीवाल ने मुकाबले को व्यक्तिगत बना लिया. उन्होंने मोदी के लिए अप्रिय बातें कहीं. लेकिन 2017 में पंजाब की हार के बाद उन्हें अपनी रणनीति के उल्टा पड़ने का अहसास हो गया. इसके बाद वे ‘सहकारी संघवाद’ की शरण में आ गए और ‘केंद्र में मोदी, राज्य में केजरीवाल’ के सिद्धांत पर ज़ोर देने लगे. इसके पीछे 2020 में मुख्यमंत्री की कुर्सी बचाने का उद्देश्य था.

अब जब ये उद्देश्य पूरा हो गया है, केजरीवाल सकारात्मक प्रचार के जरिए खुद को राष्ट्रीय विकल्प के रूप में पेश करना चाहेंगे. मोदी पर हमला करने के बजाय, केजरीवाल अब यह कह सकेंगे कि उनके पास भारत में शासन करने और जनता की समस्याओं को हल करने के लिए मोदी से बेहतर उपाय हैं. आप पहले से ही भारत की जनता के लिए मोदी द्वारा पेश ‘गुजरात मॉडल’ की तर्ज पर ‘शासन के दिल्ली मॉडल’ की बात कर रही है.

एके और पीके की जोड़ी?

केजरीवाल के दिमाग में शायद पंजाबी की हार के अपमान का बदला लेने की बात सबसे ऊपर हो. 2016 में ये लगभग माना जा चुका था कि 2017 के पूर्वार्द्ध में होने वाले पंजाब विधानसभा के चुनाव में आप की ही जीत होगी, पर एक-के-बाद-एक कई गलतियों तथा कांग्रेस के अमरिंदर सिंह के व्यक्तित्व और उनके चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर की रणनीतियों के कारण पार्टी को बुरी हार का सामना करना पड़ा.

केजरीवाल ने 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनावों के प्रचार अभियान में उसी प्रशांत किशोर की सहायता ली है. यदि केजरीवाल को किसी भी हालत में चुनाव जीतने का अहसास होता, तो वो शायद किशोर के संरक्षण वाली इंडियन पॉलिटिकल एक्शन कमेटी की सेवाएं नहीं लेते. किशोर 2017 में पंजाब में आप की हार सुनिश्चित करने में सहायक बने थे, और केजरीवाल शायद 2022 में पंजाब में अपनी जीत के लिए उनकी मदद लें.

आप के हलकों में पहले से ही इस बात की चर्चा सुनी जा रही हैं कि किशोर शायद पार्टी में शामिल हो जाएं. जनता दल से किशोर के हाल में निष्कासन के बाद इस बात की अटकलें और तेज़ हो गई हैं. सीएए, एनपीआर और एनआरसी पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के ढुलमुल रवैये की आलोचना करने के कारण पिछले दिनों किशोर को जनता दल (यू) से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था.

यदि ‘एके’ और ‘पीके’ साथ आते हैं तो इस बात की संभावना है कि आम आदमी पार्टी शायद किशोर के गृह राज्य बिहार में अपना भाग्य आजमाए. केजरीवाल संभवत: बिहार में किशोर की मदद करें, और किशोर बदले में पंजाब में आप की मदद करें. और ये गठजोड़ उन चार छोटे राज्यों में भी जारी रह सकता है जिनमें कि आप की दिलचस्पी है: हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और गोवा.

भारत के विभिन्न हिस्सों में कई भाजपा-विरोधी दलों के साथ काम कर रहे प्रशांत किशोर आप की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने में सहायक बिल्कुल सही व्यक्ति साबित हो सकते हैं.

लगे रहो मुख्यमंत्री?

‘एके’ और ‘पीके’ साथ आते हैं या नहीं, पर केजरीवाल को एक और बड़े सवाल से निपटना होगा जोकि उनकी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं की राह में बाधक साबित हुआ है. और, सवाल ये है कि क्या वह एक-एक कर राज्यों के चुनावों में ही पूरी ताकत झोंकते रहेंगे. हम जानते हैं कि राज्य के चुनावों में जीत लोकसभा चुनावों में भी बढ़िया प्रदर्शन की गारंटी नहीं होती है. दोनों बिल्कुल अलग तरह के चुनाव साबित हो सकते हैं.

कांग्रेस और वाम दलों के अलावा, विपक्ष की और कोई पार्टी नहीं है जिसकी एक से अधिक राज्य में गंभीर उपस्थिति हो. और यदि सचमुच के प्रभाव की बात करें, तो वाम दलों की भी अब सिर्फ केरल में ही उपस्थिति रह गई है.


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इसलिए आप यदि सिर्फ एक और राज्य में भी जीतती है, तो शायद शेष भारत में उसे सिर्फ दिल्ली की पार्टी के रूप में देखा जाना बंद हो जाए और संभवत: इस वजह से राजनीतिक हलकों में आप तत्काल ही राष्ट्रीय हैसियत हासिल कर ले.
समस्या ये है कि दिल्ली में बसों के संचालन और क्लिनिकों की शुरुआत के लिए जिम्मेवार मुख्यमंत्री रहते केजरीवाल की राष्ट्रीय स्तर के नेता के रूप में सहज कल्पना नहीं की जा सकती है.

खुद को राष्ट्रीय भूमिका के लिए तैयार दिखाने के लिए नरेंद्र मोदी को अपनी छवि बनाने में कई साल लगे थे. अरविंद केजरीवाल के लिए शायद ये उपयुक्त रहेगा कि वे दिल्ली की मुख्यमंत्री की कुर्सी उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के लिए छोड़ दें. इससे केजरीवाल देश भर में घूमने और खुद को मोदी के राष्ट्रीय विकल्प- भारतीय राजनीति में अरसे से खाली पड़ी जगह – के रूप में पेश करने के लिए मुक्त रहेंगे.

हालांकि, लगता नहीं कि अरविंद केजरीवाल इस तरह का जोखिम उठाना चाहेंगे. नेता के रूप में वह जितना परिपक्व हुए हैं, जोखिम लेने की उनकी भूख उतनी ही कम रह गई है.

(लेखक दिप्रिंट के कंट्रिब्यूटिंग एडिटर हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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