पुलवामा आतंकी हमले से देश वैसे ही आक्रोशित है जैसे उरी, नागरोटा और पठानकोट जैसे हमलों के बाद था. संसद पर हमले, मुंबई के आतंकी हमले और कारगिल युद्ध के वक़्त भी तो कमोबेश ऐसा ही आक्रोश देश में ही नज़र आया था. तो फिर इस बार अलग क्या है? एक पत्रकार के नाते मैंने इसी सवाल का जवाब तलाशा है. पुराने आक्रोशों के मुकाबले इस बार दो बातें अलग हैं. पहला, इस बार सरकार और ख़ुद प्रधानमंत्री ने भरपूर आक्रोश दिखाया है. दूसरा, इस बार सरकार ने सेना को विवादों के दायरे में ला दिया है.
इस बार प्रधानमंत्री अपनी हर जनसभा में वो पाकिस्तान को चेतावनी दे रहे हैं. प्रधानमंत्री का कहना है कि उन्होंने पाकिस्तान से बदला लेने के लिए सेना को ‘पूरी स्वतंत्रता’ दे दी है. अब सवाल ये है कि आख़िर इस ‘पूरी स्वतंत्रता’ या ‘खुली छूट’ का मतलब क्या है? क्या सेना को ऐसी छूट पहले हासिल नहीं थी?
‘पूरी स्वतंत्रता’ का मतलब क्या?
शिवसेना को छोड़कर कोई राजनीतिक दल ये नहीं कहता कि पाकिस्तान को उसके घर में घुसकर ठोंकना चाहिए. कांग्रेस भी नहीं, जिसकी सरकार ने 1971 में पाकिस्तान में घुसकर उसे दो टुकड़े में बांट दिया था और बांग्लादेश का निर्माण हुआ था. ये बात कहने ही होती भी नहीं है. अलबत्ता, सैन्य मामलों के तमाम विशेषज्ञ दशकों ने टेलीविज़न चैनलों पर ज़रूर ऐसी ही बातें कहते रहे हैं. इनकी देखा-देखी संघ परिवार के छुट-भैय्ये भी आर-पार का फ़ैसला करने की बातें करते रहते हैं. अब पुलवामा हमले के बाद इन्हीं तत्वों को ख़ुद प्रधानमंत्री ने उकसा दिया है कि ‘ख़ून की एक-एक बूंद का बदला’ लिया जाएगा.
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यहां जनता को जानबूझकर ये नहीं बताया जा सकता है कि सेना का काम आमने-सामने के युद्ध में दुश्मन को नेस्तनाबूद करके उसके इलाके पर विजय पाना होता है. किसी भी देश का राजनीतिक नेतृत्व तो सिर्फ़ ये तय करता है कि उसकी सेना, युद्ध करेगी या नहीं? एक बार युद्ध का नीतिगत निर्णय ले लेने के बाद आगे की रणनीति बनाना और उसे अमल में लाने का काम सेना का है. राजनीतिक नेतृत्व को तो बस सेना की मदद करनी होती है. उसे संसाधन मुहैया करवाने होते हैं.
भारतीय सेना का चरित्र
सेना तब तक युद्धरत रहती है, जब तक उसका राजनीतिक नेतृत्व चाहता है. सेना कभी नहीं कहती कि वो कब दुश्मन पर हमला करेगी. ये राजनीतिक नेतृत्व की नीति होती है कि उसकी सेना पहले आक्रमण करेगी या फिर आत्मरक्षा करते हुए दुश्मन को फ़तह करेगी. इसीलिए प्रधानमंत्री के उस बयान को समझना बहुत ज़रूरी है, जिसके तहत उन्होंने सेना को ‘पूरी स्वतंत्रता’ दे दी है. अब सवाल ये है कि क्या ये स्वतंत्रता वैसी ही होगी जैसी पाकिस्तान की सेना को हासिल है? यदि हां, तो प्रधानमंत्री का जवाबदेही क्या होगी?
क्या भारत के प्रधानमंत्री की हस्ती भी वैसी होगी, जैसी पाकिस्तान के प्रधानमंत्री की उसकी सेना के सामने है? वहां वास्तविक अर्थों में सेना का शासन है और प्रधानमंत्री एक मुखौटा है. क्या वही यहां भी होने वाला है? वहां सेना, नीतियां बनाती है और सरकार को उस पर अमल करना होता है. क्या अब वही यहां भी होगा? यदि नहीं, तो फिर सेना को ‘पूरी स्वतंत्रता’ देने के मायने क्या हैं?
मोदी-नीति सही या नहीं?
अभी तो मोदी सरकार, बस गाना गाएगी कि उसने न सिर्फ़ सर्ज़िकल हमला किया, बल्कि सेना को भी पूरी छूट दी. इसके बावजूद यदि आतंकवाद बेकाबू है तो इसके लिए उसकी कोई जवाबदेही नहीं है. इसके लिए तो पूर्ववर्ती कांग्रेसी सरकारें ज़िम्मेदार हैं, जिन्होंने सेना को कभी पूरी छूट दी ही नहीं. जबकि आज़ादी के तुरंत बाद और 1965 और 1971 में कांग्रेस के शासनकाल में भारतीय सेना पाकिस्तानी सेना की खासी धुनाई कर चुकी है.
बीते पांच साल के अनुभवों ने इतना तो साफ़ कर ही दिया कि पूर्ववर्ती सरकारों की कश्मीर नीति ग़लत तो कतई नहीं थी. सेना से जुड़े नीतिगत स्तर पर देखें तो पाएंगे कि मोदी राज में बयानबाज़ी के सिवाय कुछ भी नया नहीं हुआ. पिछली सरकारों में भी सेना की ओर से आतंकवादियों की ख़िलाफ़ ज़ोरदार कार्रवाई होती थी. सीमा पार से होने वाली गोलीबारी का पहले भी मुंहतोड़ जवाब देने की सेना को पूरी छूट थी. घुसपैठियों को देखते ही गोली मार देने की नीति भी पुरानी ही है. पहले भी सर्ज़िकल हमले होते ही रहे हैं. ‘गोली और बोली एक साथ नहीं’ वाली नीति भी पुरानी ही है. पाकिस्तान को वैश्विक स्तर पर अलग-थलग करने की नीति में भी नया कुछ नहीं है.
उपलब्धि बनाम नाकामी
ज़ाहिर है कि यदि पुरानी नीति ही क़ायम है तो फिर मोदी राज और पूर्ववर्ती सरकारों के बीच उपलब्धियों और नाकामियों की ही तुलना हो सकती है. मोदी सरकार अपनी पीठ ठोंकती है कि उसके राज में ज़्यादा आतंकवादी मारे जा रहे हैं. लेकिन वो इस बात की समीक्षा नहीं करती कि मोदी राज में आतंकी हमलों, इसमें मारे जाने वाले सैनिकों और नागरिकों की संख्या और आतंकवाद की राह पकड़ने वाले युवाओं की संख्या में भारी इज़ाफ़ा हुआ है. इसी तरह, यूपीए-2 के मुकाबले मोदी राज में आतंकवाद की राह पकड़ने वाले कश्मीरी युवाओं की संख्या में भी 12 गुना इज़ाफ़ा हुआ है.देखें ग्राफ़. ये आंकड़ें भी उसी सरकारी तंत्र के हैं, जिसके राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग के सदस्य, अपने सियासी आकाओं पर आंकड़ों को छिपाने का आरोप लगाते हुए इस्तीफ़ा दे देते हैं.
जम्मू-कश्मीर में आतंकी हमलों में मारे गये सैनिक और नागरिक | |||||
वर्ष | जानलेवा वारदातें | नागरिक | सुरक्षा बल | आतंकवादी | कुल मृतक |
2014 | 91 | 28 | 47 | 114 | 189 |
2015 | 86 | 19 | 41 | 115 | 175 |
2016 | 112 | 14 | 88 | 165 | 267 |
2017 | 163 | 54 | 83 | 220 | 357 |
2018 | 205 | 86 | 95 | 270 | 451 |
2019 | 16 | 2 | 43 | 29 | 74 |
कुल* | 673 | 203 | 397 | 913 | 1513 |
*14 फरवरी 2019 तक |
मोदी-नीति को सियासी पटखनी
सियासी मोर्चे पर भी बीजेपी-पीडीपी गठबन्धन का हश्र हमारे सामने हैं. 2014 की मोदी लहर के बाद जम्मू-कश्मीर ने खंडित जनादेश दिया. सत्तालोलुप बीजेपी ने ऐसी तिकड़म भिड़ाई कि मुफ़्ती मोहम्मद सईद की पीडीपी ने नेशनल कॉन्फ़्रेंस और कांग्रेस की खुले समर्थन की पेशकश को नज़र अंदाज कर दिया. मुफ़्ती के निधन के बाद कश्मीर की सियासी प्रतिद्वंदिता की आड़ में महबूबा भी बीजेपी के जाल में जा फंसी. जल्द ही मोदी सरकार अपनी ही राज्य सरकार के ख़िलाफ़ साज़िश करने लगी और निर्वाचित सरकार को गिराकर सत्ता अपनी मुट्ठी में कर ली.
आंकड़ें और ज़मीनी हक़ीक़त दोनों बता रहे है कि कश्मीर के मोर्चे पर पूर्ववर्ती सरकारों की तुलना में मोदी सरकार कहीं अधिक नाकाम साबित हुई है. बीजेपी का चुनावी वादा था कि ‘अपने ही देश में विस्थापित’ कश्मीरी पंडितों को उनके घरों में वापस भेजा जाएगा. इसके लिए माकूल माहौल बनाया जाएगा. लेकिन बीते पांच साल में कश्मीरी पंडितों की घाटी में वापसी नहीं हुई.
मोदी सरकार जानती है कि पुलवामा हमले के बाद उसकी कश्मीर-नीति पर जमकर सवाल उठेंगे. इससे बचने के लिए ही प्रधानमंत्री ने सेना को ‘पूरी स्वतंत्रता’ देने का शिगूफ़ा फेंका है.
(लेखक ने लगभग डेढ़ दशक तक संसद की रिपोर्टिंग की है.)