हैदराबाद में वेटरनरी डॉक्टर की गैंगरेप के बाद जलाकर की गई नृशंस हत्या पर देश का आक्रोश सूचना के तमाम माध्यमों के जरिए दिख रहा है. कुछ लोगों ने अपने आक्रोश को कैंडल मार्च करके दिखाया है तो कुछ ने हाथों में प्ले कार्ड लेकर प्रदर्शन कर दिखाया है.
कई लोगों ने नारेबाजी करके भी आक्रोश दिखाया तो कई ने मौन साध कर भी आक्रोश प्रदर्शित किया है. वहीं कई लोगों ने आपसी चर्चा में तो कई ने सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफॉर्म पर पोस्ट लिखकर अपना आक्रोश प्रदर्शित किया लेकिन इन सब के बावजूद ये सवाल अपने अंतर्मन से जरूर पूछिएगा कि क्या हम सचमुच में आक्रोशित हैं ? अगर हैं तो ये आक्रोश कितने दिनों तक चलेगा और इसका क्या असर होगा?
ऐसा इसलिए भी पूछ रहा हूं क्योंकि कई बार कुछ लोगों के आक्रोश के पीछे राजनीतिक एजेंडा भी होता है और कुछ लोग इस आक्रोश में जातीय मजहबी एंगल भी तलाश लेते हैं. कुछ-कुछ अंतराल के बाद पूरा देश ऐसे ही वीभत्स कांडों के बाद आक्रोशित होता है और फिर आक्रोश प्रकट करके शांत हो जाता है.
क्या हम केवल आक्रोश प्रकट करने के अभ्यस्त हैं?
मुझे लगता है कि आक्रोश प्रकट करने से पहले अब अपनी जागृत संवेदना के साथ हमें कुछ समाधान पर ठोस सुझावों के साथ पहल करने की जरूरत है. आक्रोश के साथ प्रदर्शन करना या विभिन्न प्लेटफॉर्म पर अपने आक्रोश की अभिव्यक्ति का प्रकटीकरण करना गलत नहीं है. कई बार हमें लगता है कि इसके अतिरिक्त हम कर भी क्या सकते हैं किन्तु वास्तव में हमें इसके समाधान के लिए इसके कारणों को समझना जरूरी है.
हैदराबाद के दर्दनाक कांड के बाद राज्य के गृह मंत्री की सतही टिप्पणी थी कि बेहतर होता पीड़िता अपनी बहन को फोन करने के बजाए पुलिस को फोन करती जबकि सच्चाई यह भी है कि पुलिस थानों में भी महिलाओं के साथ यौन अपराध हुए हैं.
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राजस्थान में थाने के भीतर हुआ वीभत्स कांड ज्यादा पुराना नहीं हुआ है. पुरुष परिजन महिलाओं की सुरक्षा करेंगे, ऐसा तर्क रखने वाले भी खोखले साबित हो जाते हैं, जब मेरठ की रुकैया परवीन का मामला सामने आता है. रुकैया परवीन के पति ने अपने साथियों के साथ अपनी पत्नी के हाथ पैर और गला रेतकर सड़क पर मरने के लिए फेंक दिया था.
रुकैया परवीन की गर्दन के साथ वोकल कॉड भी कट गई थी, जिससे वो बोलने में अक्षम हो गई. सांस लेने के लिए गले में लगे रेस्पिरेटरी पाइप के सहारे मौन ही सही लेकिन रुकैया अपनी लड़ाई लड़ रही है. दोनों हाथों की नस कट जाने के कारण लिख नहीं सकती लेकिन उसने टच मोबाइल से आपबीती लिख डाली है जिसे कोर्ट में बयान के रूप में साबित करने की कानूनी लड़ाई अभी बाकी है.
जो लोग केवल कठोर कानून, न्यायपालिका, पुलिस और सरकार को ही इसका समाधान मानते हैं, वह शायद बिना विषय की गम्भीरता समझे फौरी तौर पर अपनी प्रतिक्रिया दे रहे होते हैं. कानून का भय निश्चित ही समाज में जरूरी है. ऐसे आपराधिक घटनाओं के बाद पुलिस को बहुत जल्द ही अपनी विवेचना पूरी करनी चाहिए और समस्त साक्ष्य जल्द से जल्द न्यायपालिका के समक्ष प्रस्तुत करने चाहिए.
न्यायपालिका को भी जल्द से जल्द ट्रायल पूरा कर इंसाफ कर देना चाहिए और अपराधी को दंड भुगतान जल्द से जल्द होना चाहिए. निश्चित तौर पर इससे अपराधियों में कानून का भय बनेगा और अपराध की गति मद्धिम पड़ेगी. लेकिन इन सारी बातों के साथ क्या हम अपने सामाजिक उत्तरदायित्व के निर्वहन की बातें नहीं तय कर सकते. कठोर कानून बेहतर पुलिसिंग और त्वरित न्याय व्यवस्था से निश्चित ही असर होगा लेकिन जब तक ऐसे मामलों में सामाजिक प्रक्रिया नहीं होगी इसके गहरे प्रभाव नहीं पड़ेंगे.
कई गंभीर अपराधों पर कठोर कानून भी है और अपराधियों को कड़ा दंड भी मिला है बावजूद इसके अपराध कम नहीं हुए.
ऐसे में अपराध से निपटने के लिए केवल सरकार, राजनीति, पुलिस और न्यायपालिका पर ही सारी जिम्मेदारी छोड़कर आक्रोश व्यक्त किया जाए उससे बेहतर है कि कुछ सकारात्मक सुझाव लेकर राजनीतिक दलों, सामाजिक संगठनों, आध्यात्मिक-धार्मिक संगठनों, शैक्षिक संस्थाओं और समाज के समस्त बुद्धिजीवी वर्गों को पहल करनी चाहिए. जब इस प्रकार के घटनाक्रम होते हैं तब ऐसे अपराधियों की मनोदशा पर कुछ मनोवैज्ञानिकों के द्वारा शोध किए जाने की आवश्यकता है.
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ऐसे अपराधियों के वे परिजन, जो इन अपराधियों के पक्ष में खड़े हैं उनका सामाजिक बहिष्कार किए जाने की आवश्यकता है. अपराधी के इन परिजनों की जवाबदेही भी जरूर तय की जानी चाहिए जो समय रहते इस आपराधिक मानसिकता को नहीं भाप सके या इन परिजनों की लापरवाही से ऐसी मानसिकता बढ़ती गई, जिस पर शायद समय रहते अंकुश लगाया जा सकता हो. गांव की बेटी पूरे गांव की बेटी है, पूरे गांव की बहन है, इस भाव भावना के अभाव ने ऐसी असुरक्षा को जन्म दिया है.
शहरों में तो पास पड़ोस परस्पर परिचित ही नहीं है तो सुरक्षा की गारंटी कैसे संभव हो सकती है. कानून के भय से बड़ा भय समाज का भय है. समाज ने इस भय को खुद ही दूर कर दिया है. यौन मसलों पर चुप्पी तोड़कर खुल कर बोलना चाहिए.
यौन कुंठा, मानसिक विकार है और यह विकार जाति-मजहब, आयु, लिंग, साक्षर-निरक्षर इन सारी बातों से परे है. वास्तविकता में बलात्कार की चीत्कार अधिकांशतः घरों के भीतर लोक लाज में दबी रह जाती है और वहशी दरिंदों का क्रूर अट्टहास जारी रहता है.
(लेखक उत्तर प्रदेश में बीजेपी के मीडिया पैनलिस्ट हैं और ये उनके निजी विचार हैं)