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Friday, 20 December, 2024
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हिजाब विरोधी आंदोलन ईरान में असंभव बदलावों की एक शुरुआत है, इस्लामी कायदे नहीं मानना चाहते लोग

ईरान का सत्ता प्रतिष्ठान इसे रोकने के लिए अपनी तरफ से पूरी जान लगा देगा. हालांकि, पश्चिम के साथ टकराव में उलझे इसके नेता जानते हैं कि वह अपना अस्तित्व बचाए रखने के खतरे की कगार पर खड़े हैं.

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अयातुल्लाह की नजर में वो द डेविल्स फेस्ट (शैतानी भोज) था, वहीं ईरान के शाह ने उसे दुनिया की सबसे ग्रांड पार्टी करार दिया था. इस पार्टी के लिए दुनियाभर के तमाम महान शासक, राष्ट्राध्यक्ष प्राचीन ईरानी शहर पर्सेपोलिस में जुटे, जहां उनके लिए शराब-कबाब का बहुत ही शानदार इंतजाम किया गया था. खाने की टेबल पर कैवियार के साथ क्वेल एग्स, क्रेफिश टेल मूस, इंपीरियल पिपॉक आदि सजे थे तो मेहमानों के लिए साठ साल पुरानी वर्षीय शैंपेन और विंटेज कॉग्नेक भी उपलब्ध थी. महीनों तैयारी के बाद हुई पार्टी में कैटरिंग का जिम्मा पेरिस की मैक्सिम्स ने संभाला, टेंट एक स्विस इंटीरियर डिजाइन फर्म से मंगाए गए, और टॉयलटरी का इंतजाम गुएरलेन ने किया था. शहर के गरीबों के लिए एक ऊंची दीवार के आगे आना प्रतिबंधित था, तभी किसी आगंतुक ने कुछ भिखारियों को वहां से झांकते देखा. सूचना मिलने पर सीक्रेट पुलिस ने उन्हें वहां से भगाकर ही दम लिया.

पांच दिन चले इस आयोजन के दौरान तमाम देशों की कोशिश यही रही है कि डॉलर के बदले ज्यादा पेट्रोलियम हासिल करने का मुद्दा कैसे हल किया जाए. अवांट-गार्डे कंपोजर इयानिस जेनाकिस—जो एक जुझारू कम्युनिस्ट थे और ग्रीस में वामपंथी क्रांति के खात्मे के लिए भेजे गए ब्रिटिश टैंकों के खिलाफ सड़क पर उतरने के दौरान तोप के निशाने पर आने की वजह अपनी एक आंख गंवा बैठे थे—ने भी 1971 में पर्सेपोलिस समारोह में एक खास प्रस्तुति दी.

इसके आठ साल बाद, ईरान में शहरी गरीब और मध्यम वर्ग एकजुट होकर अपने शासकों के खिलाफ विद्रोह पर उतर आया और उनके पतन का कारण भी बना, और खुद धर्मतंत्र यानि रुढ़िवादी मजहबी शासन अपनाने की राह पर बढ़ गया. बीते कई दशकों के शासन के दौरान इस इस्लामी गणराज्य ने अपनी सत्ता को मिली कई चुनौतियों का सामना किया है—इसमें 1980 के दशक की शुरुआत में जातीय लामबंदी, अगले दशक में शहरी दंगे, 2000 के दशक में सुधारवादी युवा आंदोलन, और 2017-2018 में और फिर 2019 में आर्थिक प्रतिरोध शामिल है.

हिजाब के विरोध में सितंबर में शुरू हुए विरोध-प्रदर्शनों में हिस्सा लेने कारण जेल भेज दी गई छात्र महसा अमिनी की पुलिस हिरासत में मौत के बाद भड़की आक्रोश की आग शासन के लिए अब तक की सबसे बड़ी चुनौती है.

मानव अधिकार संगठनों की तरफ से लगाए गए अनुमान के मुताबिक, अब तक विरोध-प्रदर्शनों के दौरान दर्जनों बच्चों सहित कम से कम 434 लोग मारे गए हैं, और हजारों की संख्या में लोगों को गिरफ्तार भी किया गया है. बोकान में जातीय-कुर्द प्रदर्शनकारियों और जाहेदान में बलोच सुन्नियों ने सरकारी इमारतों पर धावा बोला है. शासन से जुड़ा कुलीन वर्ग भी गुस्से से लबरेज नजर आ रहा है. दोहा में जहां फुटबॉल खिलाड़ियों ने राष्ट्रगान गाने से इनकार कर दिया. वहीं, फिल्म स्टार तरानेह अलीदूस्ती—जिन्होंने पूर्व में दावा किया था कि ‘लाखों ईरानी कैद’ हैं—ने अपनी बिना हिजाब की तस्वीरें पोस्ट कीं.

यहां तक की सत्ता वर्ग का पॉवर बेस कहे जाने वाले बाजार मर्चेंट्स ने भी तेहरान, मशहद और इस्फ़हान में अपने स्टोर बंद रखे. कोम में मदरसे एक हिस्से को आग के हवाले कर दिया गया, जो इस्लामिक गणराज्य के संस्थापक और रुढ़िवादी मजहबी शासन के पॉवरहाउस माने जाने वाले अयातुल्ला रूहुल्लाह खुमैनी के बचपन का घर था.


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लिंग-भेद पर केंद्रित राष्ट्र

हिजाब विरोधी प्रदर्शनों ने धीरे-धीरे आम तौर पर कैसे राजनीतिक विद्रोह की शक्ल ले ली, इसकी जड़ें ईरानी राजनीति में लिंगभेद हावी रहने से जुड़ी हैं. शुरू से ही, खुमैनी ने महिलाओं के रुढिवादी मजहबी नियम-कायदों के पालन करने को नई राजनीतिक व्यवस्था से जोड़ा. उन्होंने पत्रकार ओरियाना फलासी से कहा था, ‘जिन महिलाओं ने क्रांति में योगदान दिया, वे इस्लामी पोशाक धारण करने वाली थीं, और हैं भी. सब सुंदर स्त्रियां तुम्हारी जैसी नहीं हैं जो पूरी तरह बदन ढके बिना घूमती रहें और अपने पीछे पुरूषों की लाइन लगा लें.’ इस्लामिक स्टेट मूलत: एक लिंग-भेद के वर्चस्व वाला देश रहा है.

शाह के शासन के दौरान महिलाओं के लिए हिजाब पहनने की कोई बाध्यता नहीं थी और उन्हें अमूमन क्रूर हिंसा भी नहीं झेलनी पड़ती थी. यह पाश्चात्यकरण की व्यापक प्रक्रिया की थी जिसे शाह ने आगे बढ़ाने की कोशिश की थी. वहीं, अयातुल्लाओं ने महिलाओं को हिजाब में रखने को ही अपना उद्देश्य बनाया.

किसी ईरानी महिला के सम्मान में जारी किए गए पहले डाक टिकट में एक ब्लैक ओवल सेल के अंदर एक गोल चेहरे वाली महिला की तस्वीर थी. पृष्ठभूमि में एक बंदूक थी. द न्यू वुमन कोई परंपरावादी नहीं बल्कि लिंगभेद से परे इस्लामी क्रांति के मूल्यों को वहन करने वाली महिला का प्रतीक थी.

विद्वान हमीद सेदगी के मुताबिक, बड़ी संख्या में ऐसी महिलाओं, जिनका पश्चिमीकरण से मोहभंग हो गया था, ने नई विचारधारा का समर्थन किया. तेहरान में पुरुषों के जत्थे के साथ बड़ी संख्या में महिलाओं ने मार्च किया और ‘बिना हिजाब वाली महिला और उसके कायर पति की मौत’ की शपथ भी ली. सेदगी का मानना है कि गरीब तबके की इन कुछ महिलाओं के लिए मजहबी कट्टरपंथी दस्तों के साथ मार्च में भागीदारी के पीछे कुलीन वर्ग पर हावी होने की भावना भी रही हो सकती है.

मौलवियों की तरफ से जारी फतवों ने हिजाब को महिलाओं के अनिवार्य हिस्सा बना दिया. इसमें पूरी तरह से शरीर ढकने वाले चादर, ढीले-ढाले अंगरखा और रुसरी स्कार्फ का इस्तेमाल भी अनिवार्य किया गया. 1983 में तो किसास या कठोर दंड लाकर इसे शासनादेशों की शक्ल दे दी गई और इसका उल्लंघन करने पर महिलाओं को 74 कोड़े मानने की सजा तय की गई. कानून ने यह भी अनिवार्य किया कि व्यभिचार के मामलों में किसी महिला की गवाही को किसी पुरुष की तुलना में महज आधी अहमियत ही मिलेगी.

आगे के सालों में तो लैंगिक भेदभाव और भी ज्यादा बढ़ गया. कार्यालयों से लेकर खेल परिसरों और यहां तक कि अस्पतालों तक में सार्वजनिक बुनियादी ढांचे को लिंग के आधार पर अलग-अलग बांटा गया. शिक्षण संस्थानों में भी यही प्रक्रिया अपनाई गई. यहां तक कि सार्वजनिक परिवहन में भी महिलाओं को अलग सीट दी जाती—और वे सबसे पीछे बैठतीं. विवाहित महिलाओं को यात्रा के लिए पतियों की सहमति आवश्यक थी, और अकेली महिलाओं को विदेश में अध्ययन करने के अधिकार से वंचित कर दिया गया था.

आर्थिक संकट के कारण आंतरिक मतभेद उभरे

साक्ष्य के तौर पर ऐसी घटनाएं सामने मौजूद हैं जो बताती है कि 2007 के आसपास वहां मजहबी कट्टरता अतिवाद के चरम पर पहुंच गई थी. उस वर्ष, ईरान की शीर्ष अदालत ने मिलिशिया सदस्यों को बरी करने का फैसला बरकरार रखा, जिन्होंने उन व्यक्तियों को मारने की बात स्वीकार की थी, जिनके बारे में माना जाता था कि वे नशीली दवाओं की तस्करी, विवाहेतर यौन संबंध और वेश्यावृत्ति जैसे अपराधों में लिप्त थे. अदालत ने एक संवैधानिक प्रावधान का हवाला देते हुए कहा था कि इस्लाम लागू कराने के लिए मार डालना वैध है. इसी तरह के और भी कई मामले सामने आए थे, मसलन ‘शुचिता संबंधी अपराध’ को लेकर एक किशोरी को फांसी पर लटका देना.

1997 से 2005 तक शासन करने वाले राष्ट्रपति मोहम्मद खातमी ने जरूर रुढ़िवादी इस्लामी कायदों में थोड़ी ढील के प्रयास शुरू किए. लेकिन सत्तावादी-लोकप्रिय नेता के तौर पर उभरे महमूद अहमदीनेजाद के राष्ट्रपति बनते ही स्थिति फिर उलट गई. अहमदीनेजाद ने मजहबी राष्ट्रवाद के जरिये सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश की.

हालांकि, 2017 के अंत तक, ईरान के परमाणु-हथियार कार्यक्रम के खिलाफ पश्चिमी प्रतिबंधों के कारण उपजे आर्थिक संकट के बीच शासन का सामाजिक आधार बिखरना शुरू हो गया. 2019 में ईंधन की कीमतों में बढ़ोतरी के कारण सरकारी कार्यालयों और बैंकों पर हमले हुए, साथ ही सुपरमार्केट में लूटपाट की घटनाएं भी हुईं. पत्रकार मरियम सिनाई के मुताबिक, समानता सुनिश्चित करने के सरकार के तमाम वादों के बावजूद गरीबी की रेखा के नीचे जीवन बिताने को मजबूर एक-तिहाई ईरानियों का धैर्य जवाब देने लगा था.

और, अब हालिया विरोध-प्रदर्शनों ने सत्ता प्रतिष्ठान के भीतर गहरी दरारें खुलकर उजागर कर दी हैं. कई शहरों में तो प्रदर्शनकारियों ने देश के सर्वोच्च धार्मिक नेता अयातुल्ला अली खामनेई के खिलाफ सख्त और कभी-कभी अश्लील नारे लगाए तक लगाए हैं.

कट्टर-दक्षिणपंथी सत्तावादियों ने संकट से उबरने की कोशिशों में सुधारों के इच्छुक होने जैसे संकेत भी दिए हैं. खामनेई के करीबी मौलवी अली रजा पनाहियन ने सरकार में अधिक से अधिक लोकप्रिय भागीदारी सुनिश्चित करने की बात कही है. ईरानी न्यायपालिका के प्रमुख घोलमहोसीन मोहसेनी एजेई और सुरक्षा प्रमुख अली शमखानी, विशेष तौर पर प्रमुख सुधारवादी राजनीतिज्ञ फतेमेह राकेई से मिले हैं. हालांकि, राकेई ने बाद में कहा, ‘सुलह के लिए तो बहुत देर हो चुकी लगती है. लेकिन हमारे पास अभी भी रक्तपात और हिंसा को रोकने का समय है.’

आला दर्जे के एक मौलवी और सुधार-समर्थक अयातुल्ला असदुल्ला बयात-जंजानी ने जोर देकर कहा है कि ‘प्रदर्शनकारियों को सिविल ड्रेस में मौजूद एजेंटों के खिलाफ खुद के बचाव का अधिकार है जो (उन पर) हमला करते हैं.’ जातीय अल्पसंख्यक भी तेजी से अलग-थलग हो रहे हैं. ईरान की सुन्नी आबादी के आध्यात्मिक प्रमुख, और एक लंबे समय से शासन समर्थक अब्दोलहामिद इस्माईलज़ाही ने आरोप लगाया है कि सरकार ने ‘पीड़ितों और घायलों के परिवारों से माफी मांगने के बजाये धमकियों और डराने का सहारा लिया है.’

आगे एक लंबा संघर्ष है

खुमैनी ने 1979 की शुरुआत में घोषणा की, ‘शाह एक बीमार मानसिकता वाली सपनों दुनिया में जीते हैं.’ इसके कुछ ही दिन बाद शाह—जो खुद को लाइट ऑफ द आर्यन्स कहते हैं—ने यह कहते हुए ईरान हमेशा के लिए छोड़ दिया कि वो छुट्टियां मनाने जा रहे हैं. विद्वान अली अंसारी ने आधुनिक ईरान के इतिहास में दर्ज किया है कि उनके स्व-निर्वासन से पहले उस खूनी वर्ष में करीब 2,781 लोग मारे गए थे. अंसारी लिखते हैं कि बगावत पर काबू पाने को लेकर अपने बहुप्रतीक्षित भाषण के बाद शाह ने सत्ता-प्रतिष्ठान से जुड़े तमाम लोगों की गिरफ्तारी का आदेश दिया जिसने कुलीन वर्ग को उनकी रक्षा करने की क्षमता पर भरोसा खो देने को बाध्य किया.

ईरान का सत्ता प्रतिष्ठान इसे रोकने के लिए अपनी तरफ से पूरी जान लगा देगा. हालांकि, पश्चिम के साथ टकराव में उलझे इसके नेता जानते हैं कि वह अपना अस्तित्व बचाए रखने के खतरे की कगार पर खड़े हैं. सेना के साथ-साथ देश में सत्ता की कमान अपने हाथ में रखने वाले मजहबी तौर पर अति-रुढ़िवादी तबके के पास भागकर विदेश जाने का भी कोई रास्ता नहीं है. ईरान के शक्तिशाली रिवोल्यूशनरी गार्ड्स के प्रमुख जनरल होसैन सलामी ने इस हफ्ते प्रदर्शनकारियों को चेतावनी दी है, ‘इस अनिष्टकारी बगावत का नतीजा आपके लिए सुखांत नहीं होगा.’

वहीं, कुछ लोगों को लगता है कि यह सारी जोर-जबर्दस्ती किसी भी काम नहीं आने वाली है. प्रख्यात अर्थशास्त्री मोहसेन रेनानी का तर्क है कि ‘सरकार शायद यह सोचकर प्रदर्शकारियों की भीड़ पर गोलियां चलवाती है कि बुलेट के बूते वो यह घातक जनसैलाब रोकने में सक्षम हो जाएगी.’ वैसे, प्रदर्शनों को कुचला जा सकता है लेकिन ईरान में तो लोग इस्लामी कायदे तोड़ने पर आमादा हैं और उन्होंने कभी असंभव माने जाने वाले बदलावों की प्रक्रिया शुरू होकर दी है.

लेखक दिप्रिंट में नेशनल सिक्योरिटी एडिटर है. वह @praveenswami पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.

अनुवाद- रावी द्विवेदी

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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