पशुओं को लेकर सियासत भारत के लिए कोई नयी बात नहीं है. चाहे यह हिंदुओं की पवित्र गाय हो या मुसलमानों के लिए कुरबानी का बकरा या केरल में विस्फोटकों से भरा फल खाने वाली अभागन गर्भवती हथिनी, पशुओं को लेकर धार्मिक आस्थाओं और परंपराओं से बंधे इस देश में नेता लोग अपना एजेंडा चलाने के लिए पशुओं की लाशों को प्रायः उछालते रहे हैं. लेकिन पशुओं की हत्याओं पर शोरशराबा का पशुओं के कल्याण से कोई लेना-देना नहीं है. निर्मला सीतारमण के महान शब्दों में कहें तो यह महज ‘ड्रामेबाजी‘ है. यह घोर पाखंड है. असल में तो यह सब नकली है.
अगर ऐसा न होता तो मेनका गांधी और प्रकाश जावड़ेकर सरीखे मंत्रियों समेत पूरे हिंदुत्व ब्रिगेड और भाजपा खेमे ने हिमाचल प्रदेश में हुई उस वारदात पर भी खूब शोर मचाया होता, जिसमें एक गर्भवती गाय इसलिए मारी गई क्योंकि किसी ने उसे विस्फोटक मिली हुई चीजें खिला दी थी. लेकिन कोई हायतौबा नहीं मचाई गई क्योंकि यह घटना भाजपा शासित राज्य में हुई थी और इससे कोई मुसलमान नहीं जुड़ा था.
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Maneka Gandhi : 0— Mohammed Zubair (@zoo_bear) June 6, 2020
पशुओं के मामले में भारत की जो गहरी ऐतिहसिक परंपराएं रही हैं. उन्हें मुगलों ने भी मान्यता दी थी. यही वजह है कि अयोध्या में बाबरी मस्जिद के कारण हिंदू राष्ट्रवादियों के लिए सबसे घृणित मुगल बादशाह बाबर के राज में भी गायों की सुरक्षा और गोहत्या पर रोक लगाए जाने के जिक्र मिलते हैं. कहा जाता है कि उसने अपने बेटे हुमायूं को मुगल इलाकों में गोहत्या पर पाबंदी लगाने की सलाह दी थी. अकबर ने यह पाबंदी जारी रखी जैसा कि 1586 के उसके फरमान से जाहिर है. बहादुर शाह जफर ने 1857 में हिंदू-मुस्लिम एकता की खातिर भारत में गोहत्या के दोषी पाए जाने वालों के लिए सजाए-मौत तय कर दी थी.
लेकिन, आज इस सबका क्या कोई मोल रह गया है? नहीं, मोल इस बात का रह गया है कि किसी पशु की हत्या पर नकली शोरशराबा करने के लिए उसे सांप्रदायिक रंग कैसे दिया जा सकता है. क्योंकि, अगर घटना से किसी मुस्लिम का नाम जुड़ा है तो हिंदू नफरत भड़काने के लिए बहुत दूर नहीं जाना है. आधुनिक राजनीति ने गाय को हिंदुत्व का प्रतीक बना दिया है, जो गोमांस खाने वाले मुसलमानों के निशाने पर है. इस एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए कम्युनिस्ट शासन वाले केरल में एक हथिनी की मौत को उछाला जाता है. इसके तौरतरीके जाने-पहचाने थे- पवित्रता को और इस तथ्य को मुद्दा बनाया गया कि हिंदू लोग हाथी की पूजा करते हैं. इसका असर भी जाना-पहचाना हुआ. मुसलमानों और कम्युनिस्टों के खिलाफ खूब नफरत उभरा. हथिनी की बर्बर हत्या का देशव्यापी विरोध हुआ, जो कि सही भी था. लेकिन इसके बाद इसे नफरत की सूत कातने का बहाना बना लिया गया. हथिनी की हत्या मुस्लिम-बहुल मलप्पुरम में हुई. हथिनी ने गलती से विस्फोटक से भरा अन्नानास खा लिया था लेकिन इस मामले को इस तरह उछाला गया कि ‘हिंसक मुसलमानों’ ने जानबूझकर उसे यह खिला दिया. लोग पशु को भूल गए, यह हिंदुत्ववादियों के लिए नया हथकंडा बन गया.
मेनका गांधी : झूठे दावे
इसके पीछे मंशा साफ थी- यह दिखा दो कि जिहाद की खातिर मुसलमानों ने एक नया निशाना खोज लिया है और वह है हाथी. हाथी को भगवान गणेश का रूप माना जाता है और हिंदुत्ववाद का पाठ यही कहता है कि मुसलमान तो जानवरों की हत्या करने और हिंसा करने के लिए बम बनाने में माहिर हैं. सुल्तानपुर से भाजपा सांसद मेनका गांधी ने इस कहानी को एक नया मोड़ दे दिया. उन्होंने मलप्पुरम के लोगों को बदनाम करते हुए कह दिया कि आज वे बम का इस्तेमाल ‘हाथी को मारने के लिए कर रहे हैं, कल वे इसका इस्तेमाल मनुष्य के खिलाफ करेंगे.’ मनगढ़ंत धारणाओं को खूब तेजी से प्रचारित करो और उसे भ्रांति के नया आयाम दे दो.
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केंद्रीय मंत्री रह चुकीं मेनका गांधी ने वन्यजीवों के रखरखाव, पशुओं तथा महिलाओं की सुरक्षा के मामलों में केरल के कामकाज को लेकर झूठे आंकड़े पेश कर डाले. उन्होंने आरोप लगा दिया कि केरल वाले हर साल 600 हाथियों को मार डालते हैं कि हर तीसरे दिन वहां एक हाथी को मार डाला जाता है. ये आंकड़े सबसे पहले तो गणित के लिए और फिर फर्जी खबरों के लिए शोक संदेश ही हैं. पिछले तीन सालों में केरल में कुल 21 जंगली हाथी मारे गए, न कि मेनका गांधी के मुताबिक 600 हाथी, यानी हर साल सात के औसत से. मेनका के दावों का मीडिया में और सोशल मीडिया में भी खंडन किया गया मगर उनके ट्वीट पर वे दावे कायम हैं. देश में पालतू हथियों की मौतों के आंकड़े अस्पष्ट हैं लेकिन कुछ प्रकाशनों में दावा किया गया है कि 2014, 2018, 2019 में क्रमशः 24, 33, और 16 पालतू हाथी मरे. केंद्र सरकार के मुताबिक, ऐसे अधिकतर हाथी असम में मारे गए, जहां मेनका गांधी की भाजपा का राज है. असम में पिछले तीन साल में 90 जंगली हाथी मारे गए हैं.
लगता है, मेनका को कुछ चुनींदा बातें भूलने की भी आदत है. उत्तर प्रदेश के पीलीभीत में, जो 1989 से उनका गढ़ माना जाता रहा है और जहां से उनके पुत्र वरुण गांधी ने 2019 का लोकसभ चुनाव जीता, 2012 के बाद से 16 बाघ और तीन तेंदुए मारे जा चुके हैं और इसे कौन भूल सकता है कि जुलाई 2019 में पीलीभीत में लोगों ने एक बाघिन को किस तरह पीट-पीट कर, उसकी हड्डियां तोड़कर मार डाला था? तब भाजपा नेता आंकड़े पेश करना और शोरशराबा मचाना कैसे भूल गई थीं? जाहिर है, यह सब सियासी खेल ही है.
गाय पर दावे करने से पहले यह भी जान लें
हिंदुत्व ब्रिगेड को याद दिलाया जाना चाहिए कि पशुओं की खासकर हिंदू धर्म में पूजनीय माने गए पशुओं की सुरक्षा को लेकर उनकी तुनुकमिजाजी नकली है क्योंकि अगर वे सचमुच गोहत्या बंद करवाना चाहते तो हिंदुओं ने तबला-मृदंग बजाना बहुत पहले बंद कर दिया होता, बोन चाइना, साबुन, कॉस्मेटिक्स, डिटर्जेंट, लुब्रिकेंट का प्रयोग कब का बंद कर दिया होता, जो सारे के सारे गाय के किसी-न-किसी अंग (चमड़ी, हड्डी, चर्बी आदि) से बनाए जाते हैं. बल्कि हिंदुत्व के पहरुओं को तो वाहनों के टायर का भी इस्तेमाल बंद कर देना चाहिए, जो गाय कि चर्बी से मिलने वाले स्टीयरिक एसिड से बनाया जाता है और हां, उन्हें मालूम होना चाहिए कि उनकी चाय में मिठास पैदा करने वाली चीनी को भूरी से सफ़ेद बनाने के लिए गाय और दूसरे मवेशियों की हड्डी का इस्तेमाल किया जाता है. और जब वे क्रिकेट खेलने जाएं तो उसकी गेंद पर बार-बार थूक लगाने से पहले याद कर लिया करें कि उसे गाय की चमड़ी से बनाया जाता है.
इसी तरह, बक़रीद पर बकरों की कुरबानी को लेकर हिंदू राष्ट्रवादियों का हायतौबा मचाना भी उतना ही बड़ा पाखंड है.
हिंदू धर्म में भी बलि को लेकर कोई पश्चाताप नहीं दिखता है. असम के कामाख्या मंदिर या बूढ़ी गोसानी दुर्गा मंदिर में कुछ घंटे बिताने के बाद आपको समझ में आ जाएगा कि पशु बलि को हिंदू परंपरा में क्या महत्व हासिल है. कामाख्या मंदिर प्रबंधन ऑथरिटी के प्रमुख बर दोलोई शर्मा ने साफ कहा है कि पशु बलि ‘नित्य पूजा’ का हिस्सा है. बूढ़ी गोसानी दुर्गा मंदिर की प्रबंधन कमिटी के एक सदस्य प्रदीप मिश्र ने पुष्टि की कि पिछले साल दुर्गा पूजा में यहां केवल एक रविवार को 15 भैंसों, 20 बकरों और बेहिसाब कबूतरों तथा बतखों की बलि दी गई. त्रिपुरा हाइकोर्ट ने त्रिपुरा सुंदरी मंदिर में पशु बलि पर रोक लगाने का आदेश जब पिछले साल दिया, तो वहां की भाजपा सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका दायर कर दी, और सुप्रीम कोर्ट ने बलि को जारी रखने का अंतरिम आदेश जारी कर दिया और केवल 15 दिनों के अंदर फिर वहां पशु बलि शुरू हो गई.
असली मुद्दा तो यह है कि पशु को मारा किसने
बड़ी संख्या में दलितों, मुसलमानों, और आदिवासियों को सिर्फ इस अफवाह पर भीड़ ने घेर कर मार डाला कि वे गायों की हत्या या तस्करी में शामिल थे. लेकिन हिंदू ‘धर्म’ के पहरुओं द्वारा स्थापित गोशालाओं में गायें भूख से मरती हैं तो वह शोरशराबा करने या उसे दुरुस्त करने का मुद्दा नहीं बनता. कानपुर में भारत की सबसे अमीर, 220 करोड़ की संपत्ति वाली गोशाला में 2017 में पांच महीने के अंदर 150 गायें मर गईं. यह तब हुआ जब कि उस राज्य में भगवा वस्त्रधारी योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री हैं, और जो गायों को खाना खिलाते तस्वीरों में प्रायः दिखते हैं.
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उस हाथी की तरह कई गायों के चेहरे भी उन किसानों के द्वारा बनाए गए देसी बमों को चबाने के कारण उड़ चुके हैं, जो मौजूदा आर्थिक संकट के दौर में फसल की बरबादी या कर्ज के कारण बुरी तरह परेशान हैं. इस पर कोई हंगामा क्यों नहीं हो रहा? किसानों को सुरक्षा और आश्वासन देने की जगह नरेंद्र मोदी सरकार ने और भाजपा शासित कई राज्यों ने उन्हें अपनी खेती के भरोसे छोड़ दिया है. उनकी फसल की बरबादी उनके लिए घोर विपदा के समान है. फसलों को बचाने के लिए किसान क्रूर उपायों का भी सहारा ले लिया करते हैं, जबकि सरकार को इसकी ज़िम्मेदारी उसी तरह उठानी चाहिए जिस तरह वह हिंदुओं के लिए पूजनीय पशुओं की सुरक्षा को अपनी ज़िम्मेदारी मानती है (हालांकि वह इसका दिखावा करने के सिवा कुछ नहीं करती).
मोदी सरकार ने पिछले साल छत्तीसगढ़ में 170,000 हेक्टेयर जंगली क्षेत्र में कोयले की खुदाई की मंजूरी दे दी. अब जरा अंदाजा लगाइए कि इससे कितने पशु मारे जाएंगे. और तब उस हायतौबा को याद कीजिए. आपको वह महज ‘ड्रामेबाजी’ ही लगेगी.
(लेखक एक राजनीतिक पर्यवेक्षक हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)
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