दो दिन तक लगातार विवाद और सोशल मीडिया कैंपेन के बाद यह समाचार आया कि रांची की एक अदालत ने छात्रा ऋचा भारती पर जमानत के लिए लगाई कुरान की प्रतियां बांटने की शर्त हटा दी है. आदेश में कहा गया है कि ऐसा पुलिस यानी अभियोजन पक्ष के निवेदन पर किया गया. उन तमाम लोगों ने जो ऋचा के पक्ष में सक्रिय थे, वे सभी इसे एक जीत करार दे रहे हैं और इसमें कोई शक भी नहीं कि सवालों से घिरे इस आदेश के वापस न होने तक मामले का पटाक्षेप मुश्किल नजर आ रहा था. हालांकि किसी अदालत का अपने ही दिए आदेश को बिना अपील में गए इस तरह वापस लेना कानून सम्मत है या नहीं इसकी वृहद चर्चा जरूरी है लेकिन फिलहाल उम्मीद है इस अनावश्यक घटनाक्रम के बाद ऋचा अपने सामान्य दिनचर्या में लौट जाएंगी और अपनी पढ़ाई लिखाई पर ध्यान दे पाएंगी.
लेकिन कब और कितने दिन के अंदर किसी और शहर में एक दूसरी ऋचा का मामला नहीं बनेगा, इसकी गारंटी कोई नहीं ले सकता. उम्मीद तो यही की जाती है कि ऐसे और मामले न हों लेकिन संकेत इसके विपरीत हैं. सोशल मीडिया के विस्तार ने अन्य देशों की तरह भारत के सामाजिक जीवन में उथल-पथल मचा दी है. ऋचा भारती मामले की रोशनी में फिलहाल मेरा फोकस उन युवा महिलाओं पर हैं, जिन्हें शायद पहली बार इस तरह अपने राजनीतिक विचार खुलकर रखने का प्लेटफॉर्म हासिल हुआ है.
बहस से कतराती नहीं है महिलाएं
ऋचा की टाइमलाइन से मुझे अंदाजा लगा कि वह उन्नीस साल की होते हुए भी सामाजिक और राजनीतिक मामलों पर बहस करने से कतराती नहीं. कभी कभार उकसावे में सभ्य भाषा की सीमा पार करने वाले लड़कों को उन्हीं के अंदाज में जवाब देने में भी उसे परहेज नहीं. यह बात डीयू, जेएनयू या जाधवपुर जैसे कैंपस में पढ़ने वाले छात्र के लिए भले कोई मायने न रखे लेकिन भारत के अधिकांश शहरों के लिए एक बेहद दिलचस्प घटनाक्रम है. ऋचा के मामले को एक अकेली घटना के तौर पर देखना एक बड़े बदलाव से मुंह मोड़ने जैसा है.
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सिर्फ छोटे शहरों में ही नहीं, आज गांवों में भी डाटा की आसान उपलब्धता ने युवाओं के लिए नई दुनिया के दरवाजे खोल दिए हैं. चूंकि लड़के पहले भी चौक-चौबारों, बाजारों में बहस मुबाहिसों में शरीक हुआ करते थे लिहाजा लड़कियों के लिए इस बदलाव के मायने कहीं ज्यादा हैं. बेबाक अभिव्यक्ति की इस बाढ़ में सीमाओं का अतिक्रमण भी होगा यह स्वाभाविक है. अगर ऋचा के मामले को ही बानगी के तौर पर लें तो मेरा पक्का मानना है कि कुछ सालों बाद उसकी टाइमलाइन शायद ऐसी नहीं होगी जैसी आज दिखती है. लेकिन यहीं तो चुनौती है.
और इस चुनौती से जूझने में हमारी पुलिस, प्रशासनिक और न्यायिक व्यवस्था अब तक कोई खास परिपक्वता नहीं दर्शा पाई. कुछ अहम सवालों पर गौर करिए.
क्या सचमुच ऋचा का कोई भी वाक्य इतना गंभीर और भड़काऊ था कि उसपर कानूनी कार्रवाई करनी पड़ जाए?
यदि किसी संस्था या व्यक्ति ने शिकायत की थी तो क्या ऋचा समाज के लिए इतना बड़ा खतरा थी कि उसे फौरन गिरफ्तार किया जाए? ऐसे देश में जहां संसद पर हमले के दोषियों को हर कानूनी विकल्प दिया जाता है वहां एक युवती के लिखे वाक्य पर यह कदम अतिसक्रियता और प्रशासन के अपरिपक्वता की मिसाल नहीं है?
ऐसे मामलों को किस हद तक इग्नोर यानी नजरअंदाज किया जाए और किस हद तक सक्रियता से कानूनी कार्रवाई हो, इसपर क्या पुलिस तंत्र के अधिकारियों में व्यापक विमर्श कभी हुआ है?
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क्या कोई सीमा है कि किसी व्यक्ति के खिलाफ कितनी शिकायतें हों तो कठोर कार्रवाई की जाए या यह पुलिस व प्रशासन की अपनी मर्जी पर है?
ऐसे कम से कम आधा दर्जन सवाल और भी हैं लेकिन पिछले कई मामलों से ऐसा ही प्रतीत होता है कि सरकार किसी भी पार्टी की हो और मुख्यमंत्री कोई भी हो, हमारी व्यवस्था और हमारा तंत्र इन स्थितियों से निपटने में या तो खुद को अक्षम पाता है या अनावश्यक रूप से सक्रिय हो जाता है. दोनों ही स्थितियां खतरनाक हैं.
चोर, उच्चके, गुंडे, स्मगलर, हत्यारे, बलात्कारियों और खतरनाक माफिया सरगनाओं से निपटने वाली व्यवस्था सोशल मीडिया पर बेबाकी से बोलने वाली एंग्री यंग वूमन के मामले में निशाने पर है और उसे इस नई दुनिया के लिए खुद को तैयार करना ही होगा. ऋचा भारती जैसा प्रकरण न तो लोकतंत्र के लिए शुभ है और न ही ऋचा जैसी युवतियों के लिए के खुद के भविष्य के लिए. व्यवस्था के इक़बाल के लिए तो कतई नहीं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, प्रसार भारती में सलाहकार हैं और करंट राजनीति पर लिखती हैं, यह लेख उनके निजी विचार हैं )