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शुक्रवार, 25 अप्रैल, 2025
होममत-विमतभारत के धनवान भगवान और सरकार को तो खुशी से दान देते हैं लेकिन जरूरतमंदों और गरीबों की मदद करना क्यों उन्हें गंवारा नहीं

भारत के धनवान भगवान और सरकार को तो खुशी से दान देते हैं लेकिन जरूरतमंदों और गरीबों की मदद करना क्यों उन्हें गंवारा नहीं

चाहे अमिताभ बच्चन हों या विराट कोहली, भारत के धनवान और प्रसिद्ध लोग लेक्चर देने या प्रधानमंत्री मोदी की बातों का अनुसरण करने के लिए तत्पर रहते हैं. लेकिन अधिकांश भारतीयों में निस्वार्थ दान की प्रवृति का अभाव है.

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दुनिया कोरोनावायरस महामारी के रूप में आधुनिक काल के सबसे गंभीर संकट का सामना कर रही है और भारतीय सेलिब्रिटीज़ क्या कर रहे हैं? बेशक, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आह्वान पर 22 मार्च को शाम 5 बजे कइयों ने ताली बजाई और बर्तन पीटे, और ऐसा करते समय खुद को फिल्माया भी. अन्य कई मज़ाकिया सेलिब्रिटी बर्तन-झाड़ू-पोंछा (बीजेपी) चैलेंज में भाग लेते हुए हमें व्यंजन बनाने और घर को साफ करने के तरीके बता रहे हैं. शेष दुनिया घातक वायरस का इलाज खोजने या गरीबों को आर्थिक मदद प्रदान करने या चिकित्साकर्मियों के लिए उपकरणों की व्यवस्था करने की कोशिश कर रही है, और इससे एक बार फिर दूसरे देशों और भारत के अभिजात वर्गों के बीच उदारता संबंधी खाई उजागर हो रही है.

टेनिस स्टार रोजर फेडरर ने कोरोनावायरस संकट के दौरान स्विट्ज़रलैंड के सर्वाधिक कमजोर परिवारों की सहायता के लिए 10.2 लाख डॉलर का दान दिया है; भारत के पूर्व क्रिकेट कप्तान सौरव गांगुली पश्चिम बंगाल की कंपनी लाल बाबा राइस के सहयोग से 50 लाख रुपये का चावल दान दे रहे हैं, जो स्पष्ट रूप से एक प्रायोजित, पारस्परिक ब्रांड-बिल्डिंग की कवायद है. चीन के अरबपति जैक मा ने अमेरिका को दस लाख फेस मास्क और पांच लाख कोरोनोवायरस परीक्षण किट का दान किया है, और उन्होंने यूरोपीय और अफ्रीकी देशों के लिए ऐसे ही सहयोग का वचन दिया है; अमिताभ बच्चन आधी-अधूरी जानकारी फैलाने के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हैं – जैसे ‘मक्खियां कोरोनावायरस फैलाती हैं’ – और आश्चर्य भाव से कहते हैं कि क्या बर्तन और थाली पीटने से वायरस की शक्ति कम हो जाएगी क्योंकि ऐसा 22 मार्च को अमावस्या के दिन किया गया था (उन्होंने बाद में ये ट्वीट डिलीट कर दिया).

हॉलीवुड के स्टार-युगल ब्लेक लाइवली और रयान रेनॉल्ड्स ने घोषणा की है कि वे निम्न आय वाले परिवारों और बुजुर्गों की मदद के लिए कार्यरत संस्थाओं फीडिंग अमेरिका और फूड बैंक कनाडा को 10 लाख डॉलर का दान देंगे; जबकि क्रिकेट और बॉलीवुड के खूबसूरत भारतीय संगम विराट कोहली और अनुष्का शर्मा अपने चिर-परिचित लेक्चर मोड में सभी को ‘घर में रहने और सुरक्षित बचने’ की सलाह देते हैं. इससे पहले अनुष्का शर्मा की एक ’लग्जरी कार’ के यात्री से झड़प हो चुकी है जब उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी के स्वच्छ भारत के निर्देश का उल्लंघन करने पर उसे आड़े हाथों लिया था.

धनवान जहां गरीब साबित होते हैं

अमीर और प्रसिद्ध भारतीय लेक्चर देने के लिए इतने उतावले क्यों रहते हैं, खासकर सरकारी पहल वाले मुद्दों पर, लेकिन ज़रूरतमंद गरीबों की मदद करने से उन्हें इतनी चिढ़ क्यों है? वारेन बफेट और बिल गेट्स की 2010 गिविंग प्लेज अपील, जिससे पांच धनवान भारतीय भी जुड़े, का उद्देश्य दुनिया भर में परोपकार को बढ़ावा देना था. उसके बाद भारत के कॉर्पोरेट मामलों के तत्कालीन मंत्री सचिन पायलट की पहल पर कंपनियों को कॉर्पोरेट सामाजिक दायित्व (सीएसआर) परियोजनाओं के लिए अलग से धन उपलब्ध कराने को कानूनी रूप से अनिवार्य कर दिया गया. भारत ऐसा कानून पारित करने वाला दुनिया का पहला देश था. इस वर्ष, इस कानून का अनुपालन नहीं करने को अपराध की श्रेणी में डालने के प्रयास हुए, पर अंततः उद्योग जगत के शोर-शराबे के बाद दंडात्मक प्रावधान को हल्का रखा गया.

वैसे हाल के वर्षों में परोपकारी गतिविधियां बढ़ी हैं. बेन एंड कंपनी की वार्षिक परोपकार रिपोर्ट 2020 के अनुसार भारत में घरेलू परोपकारी गतिविधियों के लिए उपलब्ध धनराशि 2010 के लगभग 12,500 करोड़ रुपये से बढ़कर 2018 में लगभग 55,000 करोड़ रुपये हो गई. व्यक्तिगत परोपकारी योगदान में भी पिछले एक दशक में बड़ी वृद्धि दर्ज की गई है. भारत में 2010 में निजी क्षेत्र के परोपकारी व्यय में व्यक्तिगत योगदान का हिस्सा 26 प्रतिशत था, जो 2018 के अंत तक बढ़कर निजी क्षेत्र के लगभग 43,000 करोड़ रुपये के कुल योगदान का करीब 60 प्रतिशत हो गया था.

लेकिन रिपोर्ट की सटीक साबित हो चुकी एक चेतावनी में इस बात पर बल दिया गया है कि परोपकारी कार्यों के केंद्र में अब ‘भारत के सबसे कमजोर तबके’ को रखे जाने की ज़रूरत है. रिपोर्ट में आह्वान किया गया था कि वंचित तबके में शामिल रहने को मजबूर एक बड़ी आबादी को लक्षित कर उपाय किए जाएं. आज ये वही लोग हैं जिन पर कि कोरोनावायरस की महामारी की सबसे बुरी मार पड़ी है.


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रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘वंचित तबके के लोग खुद को जलवायु परिवर्तन, आर्थिक जोखिमों और सामाजिक-राजनीतिक खतरों जैसी अप्रत्याशित परिस्थितियों के अनुरूप ढालने में असमर्थ हैं, जोकि उन्हें और भी असुरक्षित बना सकते हैं.‘ यहां तक कि हाल ही में अपनी कंपनी के 34 प्रतिशत शेयर – 7.5 बिलियन डॉलर या 52,750 करोड़ रुपये – भारत की सार्वजनिक स्कूल व्यवस्था को बेहतर करने के अपने घोषित उद्देश्य को समर्पित करने के कारण ख़बरों में रहे अज़ीम प्रेमजी ने भी कोरोनावायरस से प्रभावित लोगों के लिए अलग से कोई घोषणा नहीं की है. भारत के दूसरे सर्वाधिक अमीर व्यक्ति प्रेमजी गिविंग प्लेज पर हस्ताक्षर करने वाले पहले भारतीय थे.

रिन्यू पावर में मुख्य सस्टनेबलिटी अधिकारी वैशाली निगम सिन्हा ने कुछ साल पहले परोपकार को बढ़ावा देने के लिए चैरिटी शुरू की थी. उनका अनुभव कोई अच्छा नहीं रहा है. उनके अनुसार भारत के लोग व्यापक सामाजिक परिवर्तनों के लिए योजनाबद्ध तरीके से दान देने में उत्साह नहीं दिखाते हैं. उन्होंने कहा, ‘दान देने का कार्य व्यक्ति-केंद्रित है, न कि नेटवर्क के माध्यम से संचालित जोकि बहुत प्रभावी साबित हो सकता है जैसाकि बिल और मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन के कार्यों में देखा जा सकता है. साथ ही भारत में, आमतौर पर दान कुछ वापस पाने के लिए दिया जाता है – भगवान को चढ़ावा समृद्धि के लिए, संबद्ध धार्मिक संस्थाओं को दान उन्हें बढ़ावा देने के लिए, और सरकार को सहायता बदले में व्यवसाय संबंधी फायदों की अपेक्षा में. धनवान भारतीयों को अधिक सामाजिक प्रभाव और परिवर्तन के लिए योजनाबद्ध तरीके से परोपकार करना सीखने की जरूरत है.’

इसलिए आश्चर्य नहीं कि भारत वर्ल्ड गिविंग इंडेक्स 2018 में 124वें स्थान पर था – और 128 देशों के 10 साल के आंकड़ों पर आधारित चैरिटीज़ एड फाउंडेशन सूचकांक के 10 वें संस्करण में भारत 82वें स्थान पर था.

सब का हाल एक समान

लेकिन यह केवल सेलिब्रेटीज़ या धनवान भारतीयों की ही बात नहीं है. हम सभी का यही हाल है. महामारी के कारण विदेशों में फंसे भारतीयों को वापस लाने के लिए विशेष विमान भेजे जाते हैं, लेकिन श्रमिकों और दिहाड़ी मजदूरों को उनके गांवों तक पहुंचने के लिए सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलने पर विवश किया जाता है. कोरोनावायरस रोगियों का इलाज करने वाले डॉक्टरों की सराहना की जाती है लेकिन उन्हें अपने घरों में प्रवेश करने नहीं दिया जाता है.

जेएनयू की समाजशास्त्री मैत्रेयी चौधरी इसे स्वार्थ, आत्मतुष्टि और विशेषाधिकार का एक प्रबल मिश्रण बताती हैं. उन्होंने कहा, ‘हम हाशिये पर बैठे लोगों और उन लोगों की कोई परवाह नहीं करते कि जिनके श्रम पर हमारी ज़िंदगी चलती है.’ उनके अनुसार यह सामुदायिक स्वार्थ 19वीं और 20वीं सदी के प्रारंभ में हुए उथल-पुथल से बहुत अलग है जोकि बड़े समाज सुधार आंदोलनों का कारण बना था. मौजूदा स्थिति में ‘धर्मनिरपेक्षता’, ‘ समाजवाद’ और ‘उदारवाद’ के धीमे और कुशलता किए जा रहे विध्वंस का योगदान है. इसमें नवउदारवादी व्यक्तिगत आत्मकेंद्रिता के उदय की भी भूमिका है. और उनके अनुसार, स्मार्टफोन की मूढ़ता की बात तो पहले से ही जाहिर है. हर जगह संवेदना का अभाव है, उसकी जगह अपनी सेवा करने वालों के प्रति कृतज्ञता जताने के लिए थालियों और घंटियों का शोर है.

दान देने वाले इक्के-दुक्के ही हैं. कॉमेडियन कपिल शर्मा प्रधानमंत्री राहत कोष में 50 लाख रुपये दे रहे हैं और दक्षिण के सुपरस्टार पवन कल्याण, राम चरण और रजनीकांत भी ऐसा ही कर रहे हैं. लेकिन आमतौर पर हमारे सितारे बहुत कम दान देते हैं. उदाहरण के लिए, पूर्व क्रिकेट कप्तान एमएस धोनी द्वारा पुणे में एक चैरिटी ट्रस्ट को एक लाख रुपये दान देने की बात सामने आई है, जिसकी आलोचना हुई और उनकी पत्नी साक्षी को सफाई देनी पड़ी, हालांकि ये स्पष्ट नहीं था कि वह किस घटना का हवाला दे रही थीं.

भारतीय उद्योग जगत का प्रदर्शन भी कोई बेहतर नहीं है. जब प्रधानमंत्री मोदी ने सभी से कोरोनावायरस से लड़ने वाले स्वास्थ्य कर्मचारियों के प्रति अपना समर्थन व्यक्त करने का आह्वान किया तो देश के अतिसक्रिय उद्योगपतियों में से एक समर्थन में सबसे पहले ट्वीट करने वालों में से थे, और इसके लिए ट्रोल होने वाले लोगों में भी वह आगे थे. उन्होंने इसके बाद अपनी त्वरित प्रतिक्रिया में वेंटिलेटर के निर्माण की पेशकश की.

रिलायंस ने कथित तौर पर कोरोनावायरस रोगियों के लिए एक अस्पताल दान में देने की बात की है, हालांकि कुछ ही सप्ताह पहले 7 मार्च को ईशा अंबानी होली पार्टी की मेजबानी कर रही थीं – जबकि उस समय तक कोरोनावायरस के मामलों की संख्या तेज़ी से बढ़ने लगी थी.

आखिरकार उनकी मां दान के क्षेत्र में महारानी की हैसियत जो रखती है, जो विभिन्न उद्देश्यों के लिए परोपकार करती हैं, और इस वजह से वह 2019 में न्यूयॉर्क के मेट्रोपॉलिटन म्यूजियम ऑफ आर्ट के बोर्ड में चुनी गईं या 2016 में अंतर्राष्ट्रीय ओलंपिक समिति के लिए चुने जाने वाली पहली भारतीय महिला बनीं क्योंकि उन्होंने 70 लाख भारतीय बच्चों के खेल संबंधी सपनों को संबल दिया था.


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लेकिन भारत के कॉरपोरेट वर्ग को ये याद दिलाने के लिए सरकार के प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार के. विजयराघवन को आगे आना पड़ा कि कंपनी अधिनियम की अनुसूची VII में स्वास्थ्य और निवारक स्वास्थ्य सेवाएं भी शामिल हैं: “इसलिए कोविड19 को रोकने या नियंत्रित करने या देखभाल संबंधी किसी भी परियोजना या कार्यक्रम में योगदान करना एक वैध सीएसआर व्यय है.’ इसके एक दिन बाद ही उन्होंने कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय द्वारा इस बारे में एक आधिकारिक विज्ञप्ति भी निकलवा ली.

अभिजातों का पूंजीवादी दृष्टिकोण

क्या भारत के व्यापारिक अभिजात वर्ग में भी देश के मध्य वर्ग में संवेदना की कमी के अनुरूप ही करुणा की कमी है? चर्चित लेखक तमाल बंद्योपाध्याय कहते हैं कि अपवाद भी हैं, लेकिन पारंपरिक रूप से जब तक कोई बाध्यता नहीं हो भारतीय व्यापारी समुदाय दान के लिए स्वत: ही अपना पर्स नहीं खोलता. ‘यहां तक कि जब कंपनियां मजबूर होती हैं, तब भी वे इससे बचने के तरीके ढूंढती हैं. हम सबको पता है कि उनमें से कितने ट्रस्टों का गठन कर उनके जरिए अपनी सीएसआर गतिविधियों को चलाते हैं. जब चुनावी बॉन्ड खरीदने की बात आती है, तो कहानी अलग ही होती है.’

वह आगे कहते हैं, ‘इसी तरह, उनमें से कुछ उत्साहित होकर सत्तासीन सरकार के साथ एकजुटता व्यक्त करने के लिए कतिपय कामों के लिए हड़बड़ी दिखाने लगते हैं. उदाहरण के लिए, जब डिजिटलाइजेशन पर ज़ोर दिया जा रहा हो, तो विशेष महत्व वाले निर्वाचन क्षेत्रों में पड़ने वाले शहरों को डिजिटलाइजेशन के लिए गोद लेने के लिए उनमें से काफी आगे आते दिखते हैं. सच तो ये है कि उनमें से अधिकांश ऐसे काम करने में विश्वास नहीं करते जिनसे उनका मतलब नहीं सधता हो. बेशक, ऐसे लोग भी हैं जो चुपचाप काम करने में विश्वास करते हैं, लेकिन वे अपवाद हैं.’

अमेरिका जैसे पश्चिमी देशों में, परोपकार की जड़ें गहरी हैं, जो मुख्यत: धार्मिक संगठनों को दान के माध्यम से शुरू होती हैं. 19वीं शताब्दी के अंत तक, एंड्रयू कार्नेगी और जॉन डी रॉकफेलर जैसे धर्मनिरपेक्ष परोपकारी लोगों का उदय हुआ, जिसे स्टैनफोर्ड के प्रोफेसर रॉब रेख ने विवादास्पद और बुरे तरीके से कमाए गए धन से दागदार हाथ को साफ करने का एक तरीका बताया है. अपनी पुस्तक जस्ट गिविंग: व्हाई फिलैंथ्रॉपी फेलिंग डेमोक्रेसी एंड हाउ इट कैन डू बेटर (2018) में उन्होंने कहा है: ‘बड़े परोपकारी कार्य का मतलब ही है हमारे लोकतंत्र में धनिकतंत्र की आवाज़, अमीरों द्वारा अपनी ताकत की नुमाइश, जो अनुत्तरदायी, अपारदर्शी, दाता-निर्देशित, स्थायी और कर-अनुदानित है.’

इसी तरह की आलोचना आनंद गिरिधरदास ने की है, जिन्होंने अपनी किताब विनर्स टेक ऑल: द एलीट शराड ऑफ चेंजिंग द वर्ल्ड में दलील दी है कि वैश्विक वित्तीय अभिजात वर्ग ने एंड्रयू कार्नेगी के विचार कि समाज के लिए यह अच्छा है कि पूंजीपित समाज को कुछ वापस दें, की नए सिरे से व्याख्या कर एक नया फॉर्मूला निकाला है: उद्यमियों का सही समय पर ही ऐसा करना अच्छा है, अन्यथा नहीं. रेख के अनुसार, परोपकार तब प्रभावी साबित होता है जब वह सरकारों के कार्य और बाजार की इच्छा के बीच के फासले को भरता हो.

इसकी बिल गेट्स से बेहतर और कोई मिसाल नहीं हो सकता, जो लंबे समय से वैश्विक स्वास्थ्य सेवा के लिए दान देते रहे हैं. बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन वायरस पर नियंत्रण के लिए पहले ही 100 मिलियन डॉलर का योगदान कर चुका है, जिसे गेट्स ने विश्व स्वास्थ्य संगठन से भी पहले एक महामारी घोषित कर दिया था. फाउंडेशन का न्यूज़लेटर ऑप्टिमिस्ट भी कोविड-19 महामारी के बारे में अहम सूचनाओं के प्रसार और मिथकों को दूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है.

भारतीय परोपकारी धर्मनिरपेक्ष नहीं हैं

भारत में, धार्मिक दान और धर्मनिरपेक्ष फंडिंग का जुड़ाव नहीं हो पाया है. प्रबंधन विशेषज्ञ निर्मल्य कुमार इसे एक संवेदनशील विषय बताते हैं. उनके अनुसार यह हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म और सिख धर्म जैसे भारतीय धर्मों के पुनर्जन्म में विश्वास करने वाली दार्शनिक अवधारणा से संबंधित है. ‘हमारी आत्मा पिछले जन्मों के कर्म के आधार पर फिर से एक अलग भौतिक रूप में जीवन शुरू करती है. इस प्रकार, जैसा कि कई बार मुझे बताया गया है, दान की कमी उन परिणामों के साथ हस्तक्षेप करने की अनिच्छा को दर्शाती है जोकि भगवान ने निर्धारित किए हैं. मैं व्यक्ति और उनके भगवान के बीच में आने वाला कौन होता हूं?’

लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सामाजिक सेवा (सिर्फ स्वयं सेवा ही नहीं) के लिए भी जाना जाता है, जोकि भारतीय जनता पार्टी द्वारा 21 दिनों के लॉक़ाउन के दौरान पांच करोड़ लोगों को खाना खिलाने के संकल्प से स्पष्ट है. सिख धर्म में गुरु के लंगर की एक पूर्ण विकसित परंपरा है, और यह शाहीन बाग में खुलकर दिखा था जब आम सिख नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे लोगों को खाना खिला रहे थे.


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कुछ उद्यमी परिवार भी परोपकार करते हैं, उनमें शामिल हैं नीलेकणी परिवार, मूर्ति परिवार और पुराना भरतराम परिवार (उनके पूर्वज लाला श्रीराम ने दिल्ली क्लॉथ मिल्स, तथा श्रीराम कॉलेज ऑफ़ कॉमर्स और लेडी श्रारीम कॉलेज जैसे कई शैक्षिक संस्थान स्थापित किए थे) श्रीराम स्कूल्स की संयुक्त उपाध्यक्ष राधिका भरतराम एक मध्यमवर्गीय प्रगतिशील परिवार में बीते अपने बचपन को याद करती हैं, जहां उन्हें और उनकी बहन को चेशायर होम और मदर टेरेसा होम में स्वयंसेवकों के तौर पर काम करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था. उन्होंने कहा कि शादी के बाद वह ऐसे घर में आ गईं जहां समाज के लिए काम करना परिवार के डीएनए में था, और वह अब दिल्ली क्राफ्ट्स काउंसिल, ब्लाइंड रिलीफ एसोसिएशन, एसआरएफ फ़ाउंडेशन, सीआईआई फ़ाउंडेशन वुमन एग्जेंपलर प्रोग्राम और कैंसर अवेयरनेस प्रीवेंशन एंड अर्ली डिटेक्शन जैसे संगठनों के साथ एक स्वयंसेवक के रूप में जुड़ी हुई हैं. उन्होंने कहा कि वह हमदर्दी से प्रेरित होती हैं: जब ‘आप विशेषाधिकार की स्थिति से आते हैं, तो किसी और के जीवन में बेहतरी लाने में आपको खुशी मिलती है’. वह कहती है कि जब उद्देश्य व्यक्ति से बड़ा हो तो उन्हें प्रोत्साहन मिलता है.

दुर्भाग्य से, मध्य वर्ग और अभिजात वर्ग की प्रवृति स्वहित को सार्वजनिक हित से ऊपर रखने की है. कोरोनावायरस महामारी के बाद की नई दुनिया में, इस दृष्टिकोण को बदलना होगा.

(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

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