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Thursday, 25 April, 2024
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अमिताभ बच्चन का स्टारडम भारतियों को शौचालय पहुँचाने के लिए पर्याप्त नहीं

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कार्यक्रम का उद्देश्य लोगों को इच्छुक शौचालय उपयोगकर्ताओं में बदलने का होना चाहिए, न कि यह कि अमिताभ बच्चन उन्हें खुले में शौच के लिए शर्मिंदा कर सकें।

ब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चार साल पहले स्वच्छ भारत अभियान शुरू किया था, तब उन्होंने कहा था कि खुले में शौच करना महिलाओं की इज्जत के लिए खतरा है। यह पहली बार नहीं था जब भारत के स्वच्छता कार्यक्रम में शौचालय अभियान के तहत महिलाओं के सम्मान का ध्यान रखा गया।

1986 में केंद्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम (सीआरएसपी) से यूपीए के निर्मल भारत अभियान (एनबीए) से मोदी के अभियान तक, सरकार ने लोगों से आग्रह किया है कि वे अपनी “बहू-बेटियों” के लिए शौचालय का निर्माण करवाएं।

उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में, वर्तमान में शौचालय को ‘इज्जत घर‘ का नाम दिया गया है। दीवार पर की गई चित्रकारी लोगों को अपनी ‘बेटियों और बहनों को घर से दूर न जाने’ के लिए कहती हैं। 2011 में मध्य प्रदेश के ‘मर्यादा अभियान’ के पॉलिसी दस्तावेज में कहा गया था कि “महिलाओं के लिए स्वच्छता न केवल उनके स्वास्थ्य के लिए, बल्कि उनके सम्मान और संरक्षण के लिए भी महत्वपूर्ण है”। कुछ साल बाद, एक अभियान फिल्म में विद्या बालन ने एक परिवार के बुजुर्गों को उनकी बहुओं के खुले में शौच जाने कारण फटकार लगाई।

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शौचालयों को महिलाओं की प्रतिष्ठा और सुरक्षा से जोड़ना, सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या, जो पुरुषों तथा महिलाओं दोनों को प्रभावित करती है, के रूप में खुले में शौच के विचार को इसके मूल विषय से अलग ले जाता है क्योंकि यह पुरुषों के बजाय सिर्फ महिलाओं पर ही केन्द्रित है।


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इसके अलावा, इनमें से अधिकतर संदेशों ने हिंदी भाषी क्षेत्र को बढ़ावा दिया है, जो ख़राब लिंग अनुपात, कम महिला साक्षरता और बेरोजगार से ग्रस्त है। यह क्षेत्र वर्तमान में बेटी बचाओ जैसे अभियान चला रहा है।

तंबाकू, मादक पदार्थों के सेवन और कैंसर जैसे क्षेत्रों में व्यवहार परिवर्तन साहित्य ने अनुभवतः दर्शाया है कि इस तरह के विरोधाभासी संदेश लक्षित दर्शकों को भ्रमित कर सकते हैं, और प्रतिकूल परिणामों का कारण बन सकते हैं। उदाहरण के तौर पर, यह इस विचार को बढ़ावा दे सकता है कि महिलाओं को शौचालय की गतिविधि पर अपना स्वयं का निर्णय लेने का अधिकार नहीं है, या उन्हें पुरुषों से सुरक्षा की आवश्यकता है, या और भी बदतर यह कि शौचालयों को उस रूप में प्रचारित करना, जो मानवता का मजाक उड़ाता है।

यह शायद ऐसे विरोधाभासों को ध्यान में लाता है जो स्वच्छ भारत अभियान के तहत हालिया विज्ञापनों से पता चलते हैं, जैसे अमिताभ बच्चन और उनके बच्चे सहयोगी आपस में चर्चा करते हैं कि कैसे एक असली मर्द वही है जो शौचालय का इस्तेमाल करता है और इसके इस्तेमाल के लिए अपने परिवार को भी प्रोत्साहित करता है।

उपयोग को परिणाम मानना

स्वच्छ भारत मिशन देश के पहले स्वछता अभियान के रूप में अपनी खुद की पीठ थपथपाता है जो आउटपुट (शौचालय) के बजाय आउटकम (ओडीएफ) को मापता है। असल में, इसका मतलब स्वच्छता व्यवहार को बदलने के लिए नवीनीकृत ध्यानकेन्द्रण होना चाहिए था। हालाँकि पॉलिसी पर नवीनतम वार्षिक रिपोर्ट में व्यावहारिक बदलाव का तीन बार उल्लेख हुआ था, तथा शौचालयों का “भौतिक और वित्तीय कवरेज इसके मूल्यांकन का एकमात्र गणना मानदंड था।

शौचालय के उपयोग का पहला उल्लेख भारतीय गुणवत्ता परिषद (क्यूसीआई) द्वारा आयोजित किये गए एक सर्वेक्षण, स्वच्छ सर्वेक्षण ग्रामीण 2017, में किया गया था। लेकिन साथ ही, व्यवहार परिवर्तन के लिए बजट कम हो गया था, और यहां तक कि वह बजट पूरी तरह से खर्च भी नहीं किया गया था।

पिछले अक्टूबर, इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज, वाटर एड एंड प्रेक्सिस की एक संयुक्त रिपोर्ट में पाया गया कि, मध्य प्रदेश और राजस्थान में तीन ओडीएफ गांवों में और उत्तर प्रदेश में दो ओडीएफ गावों में अध्ययन के समय शौचालयों का उपयोग सर्वेक्षित घरों में 1-63 प्रतिशत के बीच था।

आज तक हमने यह मूल्यांकन करने वाला एक विस्तृत अध्ययन नहीं देखा, कि क्यों सरकार द्वारा बनाए गए बहुत सारे शौचालयों का कभी भी इस्तेमाल नहीं किया गया। क्या यह समस्या व्यावहारिक, सामाजिक या पर्यावरणीय है या अपशिष्ट निपटान के लिए मदद की कमी जैसे अन्य कारकों द्वारा संचालित है?

भारत के विभिन्न हिस्सों में किसी भी बर्ताव के लिए व्यापक रूप से भिन्न-भिन्न मुख्य कारकों को देखते हुए, मूल रूप से हम मान रहे हैं कि लोग इन्हीं कारणों से शौचालयों का उपयोग नहीं कर रहे हैं, और इस प्रकार हम उन्हें मनाने के लिए पुरानी घिसी-पिटी व्यावहारिक संचार रणनीतियों का इस्तेमाल कर रहे हैं।

महिलाओं की सुरक्षा या सम्मान से शौचालयों को जोड़ना इनमें से एक है।

खुले में शौच करने वालों को शर्मसार करना

वर्षों से, भारत में चलाए गए विभिन्न अभियानों ने खुले में शौच करने वालों को अपमानित करने की लगातार कोशिश की है। इसमें केंद्र का सबसे हालिया दरवाजा बंद अभियान शामिल है जिसमें बच्चन और अनुष्का शर्मा के द्वारा ग्रामीणों के एक जत्थे के साथ खुले में शौच करने वालों का पीछा करते हुए दिखाया गया है।

इस तरह के एक विज्ञापन में बच्चन खुले में शौच करने वालों को बाघ से डराते हैं। उन्होंने गुस्से से भरे हुए संदेश देने वाले दो और विज्ञापन किए, “यदि आप अभी भी मेरी बात नहीं मानते हैं तो मैं आपको सबक सिखाऊंगा।” झारखंड में एक समुदाय आधारित अभियान में, स्वयंसेवकों ने खुले में शौच करने वालों को सार्वजनिक रूप से माला पहनाया।

यूपीए के निर्मल भारत अभियान के अन्तर्गत, स्वच्छता दूत अभियान में महिला कार्यकर्ता खुले में शौच करने वालों को देख कर सीटी बजाती थीं।

यहां तक कि अनुष्का शर्मा का अभियान भी महिलाओं को खुले में शौच करने वालों के खिलाफ अपनी आवाज उठाने के लिए प्रोत्साहित करता है, जिसमें महिलाएं खुले में शौच करने वाले पुरुषों का मज़ाक उड़ाती हैं और उन्हें शौचालयों में शौच करने के लिए दौड़ाती हैं।

शौच सिंह नामक रेडियो कार्यक्रम शुष्क शौचालयों के छोटे गड्ढे के आकार के बारे में लोगों की चिंताओं पर ध्यान वाले कार्यक्रमों में से एक था। लेकिन यहाँ भी नायक पड़ोसियों की समझ की खिल्ली उड़ाता है जो किफायत से अपने शौचालय का इस्तेमाल बिना इस डर के करते हैं कि गड्ढा जल्दी भर सकता है। वह कहते हैं कि “यह गड्ढा छोटा नहीं है बल्कि उनकी समझ छोटी है।”

शर्मसार करने वाली इस विषयवस्तु से ऐसा लगता है कि जो वयस्क पुरुष और महिलाएं खुले में शौच के लिए जाते हैं वे मूर्ख हैं और कि वे इस काम के लिए सार्वजनिक रूप से उपहास, या शारीरिक यातना की धमकी दिए जाने के पात्र हैं।

दुर्भाग्यवश, आम जनता के बीच वास्तविकता कुछ और ही है। हमने देखा है कि ग्रामीण घरों में शौचालयों का निर्माण उनके उपयोग की गारंटी नहीं है। जाहिर है, लोग खुले में शौच जाने का निर्णय जानबूझ कर ले रहे हैं। लक्षित दर्शकों के रूप में उन विवेकशील वयस्कों को संबोधित करना ज्यादा बुद्धिमत्तापूर्ण हो सकता है जो अपने स्वयं के व्यवहार के लिए उत्तरदायी होते हैं।


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दबाव

2017 में, झारखंड ने पुलिस अधिकारियों के साथ खुले में शौच करने वालों पर जुर्माना लगाने और उनकी लुंगी उतारकर धमकी दिए जाने की मुहिम शुरू की थी। 2019 तक की समयसीमा में खुले में मलत्याग की आदत को समाप्त करने के लक्ष्य को पूरा करने के लिए राज्य सरकारों पर डाला गया दबाव उन्हें इन जबरदस्ती वाले तरीकों को अपनाने के लिए मजबूर कर रहा है। लेकिन, खुले में शौच जैसी एक आधारभूत, सदियों पुरानी मानवीय आदत को बदलने के लिए अधिक धैर्य और विचारशीलता की आवश्यकता है।

क्या किया जाना चाहिए

उपरोक्त सभी अभियान खुले में शौच और स्वास्थ्य परिणामों (दरवाजा बंद तो बीमारी बंद) के बीच के संबंध को रेखांकित करते हैं लेकिन खुले में शौच जाने वाले लोगों को लज्जित करने के बाद। भविष्य के हस्तक्षेपों को इन स्वास्थ्य चिंताओं को अधिक प्रमुख और रचनात्मक रूप से प्रकाश में लाने की आवश्यकता है।

शायद पहली बार शौच सिंह रेडियो अभियान ने व्यवस्थित रूप से शौचालयों के बारे में लंबे समय से प्रचलित मिथकों पर निशाना साधा। इसमें गड्ढे का आकार, शौचालय बनाने के लिए बड़े घर की आवश्यकता समझना और यह धारणा कि शौचालय को अधिक पानी की आवश्यकता होती है और क्लॉस्ट्रोफ़ोबिया (एक बंद स्थान में रहने का डर) आदि शामिल हैं।

अधिकांश व्यवहारिक सिद्धांतों का कहना है कि हमारे सामाजिक तंत्रों, हमारे समुदायों, और सामाजिक मानदंडों आदि के द्वारा हमारे व्यक्तिगत कार्यों का पता चलता है। उस समुदाय में, जहाँ मल की धारणा जाति से जोड़ी जाती है, सरकार ऐसे विश्वासों को बिना तोड़े शौचालयों का इस्तेमाल करने के लिए लोगों को प्रोत्साहित नहीं कर सकती है।
जन आंदोलन की भावना के लिए लक्ष्य सच्चा होना चाहिए, स्वच्छ भारत अभियान जिसका दावा करता है – लोगों को इच्छित शौचालय उपयोगकर्ताओं में बदलो और न कि इसलिए कि यह औरतों की प्रतिष्ठा को कम करता है या अमिताभ बच्चन उन्हें शर्मिंदा कर सकते हैं।

पृथा चटर्जी एक पत्रकार तथा हार्वर्ड विश्वविद्यालय में जनसंख्या स्वास्थ्य विज्ञान विषय से पीएचडी की छात्रा हैं।

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