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गुरूवार, 29 मई, 2025
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महत्त्वाकांक्षी PMFBY योजना विफल हो रही है. इसमें पहले की योजनाओं जैसी ही खामियां हैं

इस योजना की एक बुनियादी खामी मुआवजे के दावों के निबटारे की अभेद्य, जटिल, और बेहद तकनीकी किस्म की प्रक्रिया है.

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भारत के किसान देश को खाद्य सुरक्षा प्रदान करते हैं लेकिन खुद वे निरंतर कष्ट में रहते हैं. सरकार की नीतियों में उनकी उपेक्षा की जाती है. उनका योगदान महत्वपूर्ण होता है लेकिन वे वंचित और बेजबान बने रहते हैं. एक किसान परिवार से आए उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ किसानों की शिकायतों को निरंतर सामने लाकर अपना असंतोष जाहिर करते रहे हैं. वे इस बात पर ज़ोर देते रहे हैं कि “किसानों की देखभाल करना सरकार की पहली ज़िम्मेदारी है”.

गांवों का आधार संकट में

कृषि देश की जीडीपी में हालांकि केवल 18.2 फीसदी का योगदान देती है लेकिन यह 42.3 फीसदी आबादी की आजीविका मुख्य स्रोत है. लेकिन पिछले एक दशक से भारत में कृषि क्षेत्र में रोजगार में बड़ी दशकीय गिरावट आई है. यह इस क्षेत्र की बढ़ती कमजोरी का प्रमाण है. फसलों के नाकाम होने, कीमतों में गिरावट और बीमा के जरिए सुरक्षा देने के टूटे वादों की वजह से कृषि क्षेत्र का संकट एक महामारी जैसा बन गया है.

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के 2015 के आंकड़े बताते हैं कि किसानों द्वारा आत्महत्या के 80 फीसदी मामले कर्ज और दिवालियापन की वजह से हुए. इस संकट में बढ़ोतरी ही होती दिखी है. दिसंबर 2023 में एनसीआरबी द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक पिछले 10 वर्षों में इस क्षेत्र में काम करने वाले 1,12,000 से ज्यादा लोगों ने आत्महत्या की. नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफिस (एनएसओ) द्वारा 2018 में किए गए एक सर्वे में पाया गया कि भारत में 50 फीसदी से ज्यादा खेतिहर परिवार कर्ज के बोझ से दबे थे.

फसल बीमा की उलझनें

2016 में शुरू की गई ‘प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना’ (पीएमएफबीवाई) में फसल की बीम का वादा किया गया था, जिससे किसानों के मन में भरोसा जगा था. कागज पर तो इस योजना में पिछली कई खामियों को दूर कर दिया गया था लेकिन ध्यान से देखने पर जाहिर हुआ कि इस महत्वाकांक्षी बीमा योजना में भी पिछली योजनाओं की कई खामियां मौजूद थीं. यह योजना खेतिहर समुदाय की अपेक्षाओं को तो पूरा नहीं ही करती थी, जिन लोगों को सुरक्षा देने के लिए इसे लागू किया गया था उनको ही इसने अलगथलग कर दिया.

इसकी एक बुनियादी खामी दावों के निबटारे की अभेद्य, जटिल, और बेहद तकनीकी किस्म की प्रक्रिया है. उपग्रह चित्र और विशाल यूनिटों के ‘एवरेजिंग डाटा’ के प्रयोग ने जमीनी हकीकत से कटी हुई व्यवस्था का निर्माण कर दिया. अहम बात यह है कि उपग्रह के जरिए जांच का दायरा सीमित है, इसमें केवल यह पता लगता है कि फसल लगी है या नहीं लगी है. इससे फसल के स्तर या उपज क्षमता का पता नहीं लगता और फसलों के बीच भेद भी नहीं किया जा सकता. यह तकनीकी खामी के कारण मुआवजे का गलत आधार तय होता है, जो वास्तविक आजीविका को नुकसान पहुंचाता है. कीड़ों के कारण किसानों को जो भारी नुकसान होता है या फसल की पौष्टिकता घटती है उसका मुआवजा उन्हें नहीं मिलता क्योंकि उपग्रह के चित्र में फसल हरी-भरी नजर आती है.

इससे भी ज्यादा भयावह बात इस मॉडल में निहित असमानता का तत्व है. किसान व्यक्तिगत रूप से किस्त जमा करते हैं लेकिन मुआवजा गांव के अंदर के झुरमुटों या बड़ी और छोटी काश्तों के बड़े अस्पष्ट इलाकों के आधार पर तय किया जाता है जिसमें यूनिटों का समता मूलक सीमांकन नहीं किया जाता. इसके कारण दावों को भेदभावपूर्ण ढंग से खारिज कर दिया जाता है, खासकर उन लोगों का जिनकी पूरी फसल खराब हो गई है या कहीं-कहीं खराब हुई है. इलाका आधारित मापन का अजो मॉडल अपनाया जा रहा है वह इन समस्याओं को और बढ़ा देता है. स्थानीय मौसम की खराबी, गांव के किसी इलाके में अचानक आई बाढ़ किसी छोटे किसान की फसल को नष्ट कर सकती है जबकि उसके पड़ोसी की फसल बच जाती है, लेकिन दोनों का आकलन एक ही पैमाने से किया जाता है. व्यक्तिगत क्लेश या नुकसान को सामूहिक आंकड़ों के तहत दबा देना बेहद अनुचित है.

इस कार्यक्रम में उन लोगों लाभ नहीं मिलता जो सबसे ज्यादा खतरे में हैं, मसलन काश्तकार, बटाई खेतिहर, महिला किसान और कर्ज न लेने वाले किसान. इन लोगों को भूमि स्वामित्व शर्तों, काश्तकारी के पुराने नियमों, और आधार से संबद्ध बैंक खातों जैसे नौकरशाही बाधाओं से व्यवस्थित और परोक्ष रूप से बाहर कर दिया गया है. पुरुषों के विस्थापन के कारण मुख्य किसान बनी महिलाओं की गिनती, औपचारिक भूमि स्वामित्व न होने के कारण इस व्यवस्था में नहीं की जाती. ये चूकें आकस्मिक नहीं हैं, ये उस साजिश का प्रमाण हैं जो आज के समय में भारतीय कृषि के असली चेहरे को नहीं देखती.

केंद्र और राज्य की सरकारें किस्तों का 80-85 फीसदी हिस्सा देती हैं जिससे निजी बीमा कंपनियों को तो निरंतर मुनाफा होता है लेकिन किसानों को बहुत लाभ नहीं मिलता. दावों के निबटारे में देरी की जाती है या उन्हें खारिज कर दिया जाता है जबकि निजी कंपनियां जोखिम मुक्त किस्तों की उगाही करती हैं. इस बीच, फसल कटाई के प्रयोग अपर्याप्त मजदूरों, खराब किस्म के कंट्रोल किया जाता है, और इन्फ्रास्ट्रक्चर में खामी तथा जमीनी स्तर पर प्रशिक्षण की कमी के कारण ड्रोन तथा एआइ आधारित विश्लेषण जैसे तकनीकी उपायों का अधूरा इस्तेमाल होता है. सबसे चेतावनी वाली बात यह है कि सीएजी की 2022 की रिपोर्ट कहती है कि सर्वे में शामिल 37 फीसदी किसानों को ही प्रधानमंत्री फसल बीमा के लाभों, किस्तों के ढांचे या दावा निबटारे की प्रक्रिया के बारे में वास्तविक जानकारी थी.

उपेक्षा की कहानियां

जमीनी वास्तविकताएं फसल बीमा की गंभीर खामियों को उजागर करती हैं. जबरन सदस्यता, दावों के निबटारे में देरी या उन्हें खारिज किया जाना और दोषपूर्ण सर्वे के कारण किसानों को मुआवजा नहीं मिलता है और वे कर्ज से दबे रहते हैं.

तमिलनाडु के मयिलादुथुराई जिला के कुल 277 गांवों में से केवल 68 गांवों को ही 2024 में फसल बीमा दावों की सुविधा हासिल थी और उनमें से केवल 16 गांवों को मुआवजा मिला था. दूसरे जिलों का भी यही हाल था.

तमिलनाडु के 55 वर्षीय किसान डी. आरोग्यम ने कोई कर्ज नहीं लिया था लेकिन अधिकारियों ने उन्हें प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में जबरन शामिल होने को मजबूर किया. वे समय पर किस्तें भरते रहे लेकिन सूखे के कारण लगातार दो साल फसल खराब होने के बावजूद उन्हें कोई मुआवजा नहीं मिला और वे कर्ज लेने को मजबूर हुए. किल्ल्यूर के पास शिवगंगई के कर्जदार किसान एस. वेलु ने अपने 15 एकड़ खेत के लिए 70,000 रुपये हासिल किए. हालांकि वे सर्वे और बीमा वाले क्षेत्र के थे लेकिन देनदारियों के कारण उन्हें दावों के निबटारे में काफी समस्याओं का सामना करना पड़ा. तूतुकुड़ी में किसानों ने मुआवजे का एकतरफा फैसला किए जाने के विरोध में प्रदर्शन किए. बाढ़ से प्रभावित किसानों के दावों पर विचार नहीं किया गया जबकि उनके समान नुकसान उठाने वालों को मुआवजा दिया गया. किसानों ने गलत सर्वे की शिकायत की और जवाबदेही तय करने की मांग की.

‘डाउन टु अर्थ’ पत्रिका की खबर के मुताबिक, हरियाणा में सोनीपत के रोशन लाल ने बीमा करवाने की कभी सहमति नहीं दी थी फिर भी उन्हें यह धमकी देकर किस्त भरने को मजबूर किया गया कि वे ऐसा नहीं करेंगे तो उन्हें कर्ज के ब्याज पर मिलने वाली छूट नहीं दी जाएगी. लेकिन जब उनकी फसल खराब हो गई तो ‘तकनीकी कारणों’ से उन्हें कोई मुआवजा नहीं दिया गया और उन्हें बीमा के कागजात कभी दिखाए नहीं गए.

राजस्थान में कई किसानों के दावे इसलिए निरस्त हो गए कि स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने उनकी किस्तों को दर्ज नहीं किया. इसलिए उन्होंने अपेक्षित भुगतान की उम्मीद किए बिना अगली फसल लगाई.

मॉनसून और बदकिस्मती

तमिलनाडु के किसानों को मौसम की गड़बड़ियों को अक्सर झेलना पड़ता है. दूसरे राज्य तो दक्षिण-पश्चिमी और उत्तर-पूर्वी मॉनसून पर निर्भर करते हैं लेकिन तमिलनाडु उत्तर-पूर्वी मॉनसून पर ही निर्भर करता है, जो जलवायु परिवर्तन के कारण काफी अनिश्चित रहता है. ‘इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रौपिकल मेटियरोलॉजी’ के 2023 के एक सर्वे में पाया गया कि पिछले दशक में बादल फटने और कहीं-कहीं बाढ़ आ जाने की घटनाओं में वृद्धि के बावजूद उत्तर-पूर्वी मॉनसून की बारिश में 15 फीसदी की कमी आई है.

उदाहरण के लिए तंजावुर, तिरुवरुर, पुदुक्कोट्टई और नागपट्टिनम जैसे तटीय इलाकों में 2022-2023 के एक ही फसल सीजन में कभी देर से तो कभी बेमौसम बारिश हुई. लेकिन किसानों की आय में कमी की भरपाई प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत तब तक नहीं की जाती जब तक इलाके की औसत पैदावार ‘कट-ऑफ’ सीमा से नीचे नहीं जाती, और यह व्यक्तिगत मुआवजे को खारिज कर देती है.

क्या बदलाव चाहिए

फसलों का आकलन जीपीएस एप और उपग्रह चित्रों के आधार पर किया जाना चाहिए और फसलों की निगरानी में एआई का इस्तेमाल किया जाना चाहिए. ‘ब्लॉकचेन’ से किसानों की पहचान की जा सकती है और सबको जोड़ा जा सकता है. खुले मंचों और मोबाइल के जरिए हासिल सूचनाओं की मदद से जवाबदेही तय की जा सकती है. ड्रोन, सेंसर, और प्रशिक्षण की मदद से डिजिटल खाई को पाटा जा सकता है. पंचायतें व्वाइस आधारित हेल्पलाइन की मदद से स्थानीय लोगों को आधुनिक टेक्नोलॉजी की शिक्षा दे सकती हैं.

मैं ‘डाइरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर’ (डीबीटी) जैसे सबसे महत्वपूर्ण उपायों का पूरा समर्थन करता हूं. यह व्यवस्था किसी बिचौलिए, किसी जटिलता और अपारदर्शी नौकरशाही प्रक्रियाओं में उलझे बिना सीधे लाभार्थी को लाभ पहुंचाती है. हाल में, इसकी इसी की पुष्टि करते हुए उपराष्ट्रपति ने अप्रत्यक्ष सब्सीडी की खामियों को रेखांकित करते हुए कहा कि “इसमें ‘लीकेज’ की हमेशा गुंजाइश रहती है, इससे अधिकतम परिणाम नहीं मिलते”.

प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना जैसे कार्यक्रम भारत की कृषि नीति में ढांचागत दरारों और वित्तीय खामियों को उजागर करते हुए सुधारों की जरूरत पर ज़ोर देती हैं. जलवायु और कृषि संबंधी संकटों से निबटने के लिए इस योजना को पारदर्शी, जवाबदेह, और संवेदनशील सहायता व्यवस्था बनाने की जरूरत है जो किसानों को डाटा न मान कर मनुष्य माने जिनकी आजीविका उनके दावों की समय पर तथा मानवीय निबटारे पर आधारित हो. खेती सिर्फ आर्थिक गतिविधि नहीं है, यह एक जीवनशैली है जिसे ऐसी शासन व्यवस्था की जरूरत है जो किसानों की बात सुनती हो, समझती हो और सच्चे सरोकार के साथ काम करती हो.

कार्ति पी चिदंबरम शिवगंगा से सांसद और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य हैं. वे तमिलनाडु टेनिस एसोसिएशन के उपाध्यक्ष भी हैं. उनका एक्स हैंडल @KartiPC है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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