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Wednesday, 18 December, 2024
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कर्ज़ की भूख पर लगाम लगाएं तमाम देश, भारत जनकल्याण से थोड़ा हाथ खींचे

केंद्र और राज्य सरकारें उच्च स्तरीय रोज़गार पैदा कर सकती हैं, लेकिन वह ऐसा नहीं करेंगी क्योंकि जनकल्याण योजनाओं पर उनके खर्चे आसमान छू रहे है.

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बीसवीं सदी के महानतम अर्थशास्त्रियों में गिने जाने वाले मेनार्ड केन्स को सबसे बड़ी मंदी से दुनिया को उबरने में मदद करने का श्रेय दिया जाता रहा है, लेकिन उनका मुख्य सिद्धांत आज दुनिया के लिए अभिशाप साबित हो रहा है. इस सिद्धांत के तफसील में जाते हुए सरल शब्दों में कहा जा सकता है कि केन्स ने कहा था कि जब कुल मांग कम हो और अर्थव्यवस्था दुष्चक्र में फंसकर नीचे की ओर जा रही हो तब सरकार के लिए बुद्धिमानी की बात यह होगी कि वह अपने खर्चे बढ़ाए और लोगों के हाथों पर पैसे रखे ताकि अर्थव्यवस्था में जान लौटे. उन्होंने ‘बूनडोगल’ करने यानी लोगों को ऐसे काम करने दिए जिसका कोई उपयोगी परिणाम नहीं हो, उसके लिए पैसे भी दिए ताकि आर्थिक मंदी से बचा जा सके.

केन्स के फॉर्मूले के साथ समस्या यह है कि यह गलत नहीं था, लोग जब कष्ट में हों तब सरकार उनके लिए ज़रूर कुछ करे, लेकिन इसका राजनीतिक पहलू यह है कि यह लगभग सभी सरकारों को मुश्किल वक्त में नोट छापने की छूट दे देता है. वह कभी अपने हाथ नहीं बांधतीं या अपनी चादर देखकर पैर नहीं पसारतीं, जबकि सामान्य बुद्धि यही कहती है.

केन्स के जिस सिद्धांत को जान-बूझकर गलत समझा गया है उसका मूल नतीजा यह हुआ है कि टैक्स से होने वाली कमाई या आमदनी पर नहीं बल्कि शुद्ध कर्ज़ पर आधारित राज्य-व्यवस्था का विस्तार होता गया है. यह बुरी बात क्यों है इस पर चर्चा करने से पहले इस पर विचार कीजिए कि इसके क्या-क्या नतीजे निकले हैं. क्या यह जोखिम उठाना लाभकारी है? खर्चों को बिना सोचे-समझे बढ़ाते जाना क्या अधिक लाभकारी साबित हुआ है या इससे अर्थव्यवस्था अधिक उत्पादक बनी है? कर्ज़ के बूते आर्थिक वृद्धि से क्या लाखों रोज़गार के अवसर पैदा करने और व्यापक आय बढ़ाने में मदद मिली है? क्या जनकल्याण पर आधारित राज्य-व्यवस्था के निर्माण से कानून-व्यवस्था, शिक्षा तथा स्वास्थ्य में सुधार आया है; आतंकवाद में कमी या सार्वजनिक इन्फ्रास्ट्रक्चर में सुधार हुआ है? आज हम दो युद्धों के बीच जी रहे हैं, जो कभी भी विश्वयुद्ध में बदल सकता है और आतंकवाद को मात देना तो दूर की बात साबित हुई है. कुछ अपवादों को छोड़ पूरी दुनिया को शिक्षा और स्वास्थ्य के मामले में शायद ही खुशहाल माना जा सकता है.

कर्ज़ से बढ़ती है विषमता

भारत ने इन्फ्रास्ट्रक्चर पर काफी खर्च किया है, लेकिन शायद ही कहा जा सकता है कि इससे कानून-व्यवस्था की स्थिति एक दशक पहले जो थी उससे बेहतर हुई है. हमारा सार्वजनिक कर्ज़ जीडीपी के 82.5 फीसदी के बराबर के ऊंचे स्तर पर पहुंच चुका है. पश्चिम एशिया, यूरोप और उत्तरी अमेरिका पर नज़र डालें तो पता चलेगा कि उन देशों में भी कानून-व्यवस्था की स्थिति कोई बेहतर नहीं है और न आतंकवाद कमजोर पड़ता जा रहा है. टेक्नोलॉजी मध्यम स्तर के हुनर वाले रोज़गारों को आसानी से स्वचालित बना सकती थी मगर उसने उन्हें नष्ट करके कुछ लोगों के हाथों में धन केंद्रित कर दिया है, जिसके कारण धन के मामले में विषमता बढ़ी है.

एक चेतावनी : हम यहां धन के पुनर्वितरण या अधिक इनकम टैक्स लगाने की बात नहीं कर रहे हैं बल्कि केवल इस तथ्य का संज्ञान ले रहे हैं कि यह विषमता कर्ज़ की वजह से बढ़ी है, जैसा कि हमने 2008 में बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के पतन के बाद देखा. एक और आर्थिक गिरावट से बचने के लिए अमेरिकी फेडरल बैंक (और दूसरे केंद्रीय बैंकों) ने ब्याज दरों को लगभग शून्य के स्तर पर ला दिया और कर्ज़ लेकर घी पीने लगे. मूल संकट वाल स्ट्रीट की दादागीरी और बैंकों द्वारा अविवेकपूर्ण उधार देने से पैदा हुआ था, जिसका जवाब देने के लिए खरबों डॉलर के नए कर्ज़ जारी किए गए जिसके कारण शेयर बाज़ारों में तेज़ी आई और जिन लोगों ने संकट को जन्म दिया था वह और अमीर हो गए. गलती करने वालों को कोई दंड न देकर आप यही संदेश देते हैं कि अमीरों के लिए सुरक्षा कवच तैयार है. इससे जो असमानता पैदा होगी उससे हर जगह सामाजिक तनाव ही बढ़ेगा.

2008 की आर्थिक गिरावट से लेकर यूरोज़ोन संकट और कोविड-19 तक पिछले जो भी आर्थिक संकट आए उनके कारण आर्थिक गतिविधियां ठप हुईं, लेकिन उनका सामना किफायतसारी तथा सुनिश्चित खर्चों के जरिए नहीं किया गया और सार्वजनिक कर्ज़ में भारी वृद्धि की जाती रही. अकेले अमेरिका ही हर साल करीब 2 ट्रिलियन डॉलर का कर्ज़ बढ़ाता जा रहा है, जो की भारत की मौजूदा जीडीपी के 50 प्रतिशत से भी ज्यादा के बराबर है. जीडीपी के हिसाब से कर्ज़ के अनुपात आसमान छू रहे हैं. अमेरिका में यह अनुपात 123.3 फीसदी का, जापान में 254.6 फीसदी का, तमाम देश फ्रांस में 111.6 फीसदी का है जबकि भारत में 82.5 फीसदी का है. तमाम देश जब भी गड्ढे में गिरे तब-तब नोट छाप कर उससे बाहर निकलते रहे, लेकिन अंतिम हश्र से कोई नहीं बच सकता क्योंकि कोई भी देश अनंत काल तक कर्ज़ लेता रहे और उसके अवांछित नतीजों को न भुगते, यह हो नहीं सकता.

कर्ज़ की मदद से हासिल वैश्विक जीडीपी फिलहाल 105 ट्रिलियन डॉलर के बराबर है और इसमें सार्वजनिक कर्ज का हिस्सा 97 ट्रिलियन डॉलर है यानी कर्ज़-जीडीपी अनुपात 92.3 फीसदी है. यह 100 फीसदी के आंकड़े को तेज़ी से छूने जा रहा है और तब यह काबिल-ए-बर्दाश्त नहीं रह जाएगा क्योंकि ब्याज की लागत विकास के लिए होने वाले तमाम खर्चों से कहीं ज्यादा बड़ी हो जाएगी. विश्वयुद्ध के बाद की दुनिया कर्ज़ पर चल रही थी और 2008 के बाद यह स्थिति और बुरी हो गई. 2010 से लेकर अब तक के बीच वैश्विक सार्वजनिक कर्ज के आंकड़े में दोगुनी वृद्धि हो गई है. अमेरिका तथा चीन और तेज़ी लाने के लिए और कर्ज़ लेने की योजना बना रहे हैं. बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में भारत अलग-थलग है. केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पिछला बजट पेश करते हुए सार्वजनिक बयान दिया है कि वे कर्ज़-जीडीपी अनुपात में निरंतर कमी लाने की योजना बना रही हैं. अगर ‘इंडिया’ गठबंधन सत्ता में आया होता तो उसने जनकल्याण के जो वादे किए हैं उनके चलते यह अनुपात और बड़ा हो सकता था.

हम कर्ज़ के बूते हासिल आर्थिक वृद्धि के नकारात्मक पहलू पर नजर डालें. अतिरिक्त नोट छापने से घाटे में चल रही या मृतप्राय कंपनियों को जीवनी शक्ति मिलती रहती है, जिससे पूंजी ऐसे कामों में फंसी रहती है जिनसे रोज़गार नहीं पैदा होते. लेखक और ग्लोबल निवेश विशेषज्ञ रुचिर शर्मा का कहना है कि अमेरिका की करीब 20 फीसदी कंपनियां ‘जोंबी’ हैं यानी वह सरकारी समर्थन या अनुपयुक्त कर्ज़ के बूते कृत्रिम रूप से ज़िंदा रखी गईं हैं. यहां भी कुछ ऐसा ही हो रहा है.

भारत में, खर्चीले चुनावी वादे — महिलाओं, किसानों, युवाओं के लिए आय की गारंटी, आदि — न केवल आर्थिक दृष्टि से अनुपयुक्त होंगे बल्कि रोज़गार के संभावित अवसरों को नष्ट भी करेंगे. 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने खाली पड़े सरकारी पदों पर नियुक्तियां करके 30 लाख नौकरियां देने का वादा करते हुए यह नहीं सोचा था कि अगर यह वित्तीय रूप से संभव होता तो कोई भी लोकप्रिय सरकार अब तक यह क्यों नहीं कर चुकी होती.


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जनकल्याणवादी राजनीति के सबक

तथ्य यह है कि वित्तीय दबावों के कारण सरकारी नौकरियां बढ़ाई नहीं जा सकतीं. जब किसी वर्ग में कल्याण/सबसीडी के खर्चे बढ़ते हैं तब उस सेक्टर की रोज़गार देने की क्षमता कम हो जाती है. जब एअर इंडिया को सरकारी सबसीडी पर चलाया जा रहा था तब उसने देश के बाकी पूरे विमानन उद्योग की क्षमता को गिरा दिया था. जब ‘वन रैंक, वन पेंशन’ लागू किया गया तब सेना में भर्तियां सामान्य स्तर पर जारी रखना असंभव हो गया क्योंकि रक्षा बजट का 53 फीसदी हिस्सा कर्मचारियों और उनकी पेंशन पर खर्च होने लगा. ऐसे में ‘अग्निपथ’ योजना (अल्प काल के लिए सैनिकों की भर्ती की योजना) लाना अनिवार्य हो गया.

जनकल्याण पर भारी खर्चों के कारण कर्नाटक इन्फ्रास्ट्रक्चर और नई परियोजनाओं पर खर्च को लटकाने को मजबूर हो गया है. अगर इस चुनाव के बाद हरियाणा में कांग्रेस सत्ता में आती तो जनकल्याण के उसके बड़े वादों के कारण उसे भी इसी समस्या का सामना करना पड़ता, लेकिन भाजपा भी कम नहीं है. महाराष्ट्र में अगले महीने चुनाव हैं और महायुति सरकार ने जनकल्याण पर खर्च में भारी वृद्धि कर दी है.

केंद्र और राज्य सरकारें उच्च स्तरीय रोज़गार पैदा कर सकती हैं, लेकिन वह ऐसा नहीं कर सकतीं क्योंकि जनकल्याण पर उनके खर्चे आसमान छू रहे हैं. भारत ने (कम-से-कम छोटी अवधि के लिहाज़ से) अच्छी आर्थिक वृद्धि दर्ज की है. इसकी वजह केवल यह है कि उसने अर्थशास्त्रियों और वित्तीय स्तंभकारों की इस सलाह की अनसुनी कर दी कि वह कोविड महामारी के दौरान भारी खर्चे करे. बाकी देशों ने इस सलाह को माना और अब उसकी कीमत चुका रहे हैं.

इससे मिलने वाले सबक सरल हैं.

एक तो यह कि आप आर्थिक समस्याओं से समय-समय पर बच नहीं सकते; उन्हें केवल नोट छापकर दूर नहीं किया जा सकता. ऐसा करके आप समस्या को हल नहीं करते, केवल उसकी अनदेखी करते हैं. कुछ समय के लिए किफायतसारी बरतना ही उचित हो सकता है.

दूसरे, राज्यसत्ता उधार लेकर अपना आकार जितना बढ़ाती है, उसकी कार्यकुशलता उतनी ही घटती है. इसकी वजह यह है कि वह लोगों को आसानी से बर्खास्त नहीं कर सकती या सार्वजनिक कर्ज़ का उपयोग करके उसका पुष्ट परिणाम हासिल करने के लिए उनका कुशल इस्तेमाल नहीं कर पाती. अधिकांश मामलों में राज्यसत्ता को कर्ज में कटौती करनी चाहिए (कम-से-कम सापेक्ष अर्थों में) ताकि निजी पहल, नए प्रयोग और कुशल खर्चों के लिए गुंजाइश रहे. निजी हाथों में दिया जाने वाला एक रुपया सरकार के हाथ में दिए जाने वाले एक रुपये के मुक़ाबले ज्यादा फल देता है.

तीसरे, जनकल्याण पर होने वाला खर्च तार्किकता की सीमाएं तोड़ता है तो इससे सार्वजनिक क्षेत्र में रोज़गार पैदा करने की सरकार की क्षमता घट जाती है. गरीबों के लिए मुफ्त भोजन भूख और कुपोषण को दूर कर सकता है, लेकिन महिलाओं को सरकारी बसों में मुफ्त यात्रा की छूट या मुफ्त बिजली बेशक जनकल्याण के मामले में अति ही है, जो ‘रेवड़ी’ की परिभाषा को सार्थक करते हैं. जो भी मुफ्त में दिया जा रहा है और अच्छी वजह से दिया जा रहा है उसे निशाने पर लिया जाना चाहिए.

चुनावी लोकतंत्र में नेताओं में चुनाव जीतने के लिए करदाताओं के पैसे और साधनों का दुरुपयोग करने की प्रवृत्ति प्रबल होती है. केवल इसी वजह से ‘एक देश, एक चुनाव’ के प्रस्ताव पर विचार किया जाना चाहिए. इसके अलावा, सरकार को कर्ज की अपनी भूख पर लगाम लगानी चाहिए और लोगों, कंपनियों तथा दूसरे संगठनों को उस पैसे का बेहतर उपयोग करने देना चाहिए. यह बात भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के लिए लागू होती है. वास्तविक गरीबी की उपेक्षा किए बिना कमर कसना ही असली कुंजी है.

(आर.जगन्नाथन स्वराज्य पत्रिका के संपादकीय निदेशक हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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