यदि 2019 के लोकसभा चुनाव में वोटिंग हुए बिना कोई हार चुका हो, तो वह समाजवादी प्रमुख अखिलेश यादव हैं. और इसका 23 मई को आने वाले चुनाव परिणाम से कोई संबंध नहीं है.
जो सोचते हैं कि समाजवादी पार्टी (सपा) के पितृपुरुष मुलायम सिंह यादव को गुस्सा क्यों आता है, उनके लिए बड़ा ही सरल जवाब है. मुलायम को दिख रहा है कि उनका बेटा अखिलेश यादव उनकी राजनीतिक विरासत को लुटा रहा है.
इसके बावजूद, जूनियर यादव आश्वस्त हैं -और राजनीतिक रूप से ढीठ भी.
वह इसी सप्ताह अपने पिता के संसदीय क्षेत्र मैनपुरी में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की प्रमुख मायावती के साथ एक रैली को संबोधित करने वाले हैं. यह रैली गठबंधन में बसपा को आधी सीटें देकर सपा को कमज़ोर करने के लिए अखिलेश को मुलायम की सार्वजनिक फटकार के बमुश्किल तीन सप्ताह बाद हो रही है. इस बारे में मुलायम की राय देखी जाएगी, लेकिन उनसे असहमत होना मुश्किल है.
यदि बसपा-सपा गठजोड़ भाजपा को बुरी तरह हराता है
आइए शुरुआत सकारात्मकता के साथ करते हैं.
एक क्षण के लिए मान लेते हैं कि मई के चुनाव में उत्तरप्रदेश में सपा-बसपा गठजोड़ भाजपा को बुरी तरह हराता है और इस तरह नरेंद्र मोदी सत्ता से बाहर कर दिए जाते हैं. ये भी मान लेते हैं कि उत्तर प्रदेश में साथ ही मध्यप्रदेश और उत्तराखंड में भी, जहां गठजोड़ ने उम्मीदवार उतारने का फैसला किया है – प्राप्त जनादेश मायावती को प्रधानमंत्री की कुर्सी के करीब पहुंचा देता है. पर इससे अखिलेश को क्या मिलेगा?
वह विश्वास कर सकते हैं कि ऐसे में ‘बुआ’ धन्यवाद कहने आएंगी और ‘भतीजे’ को 2022 में मुख्यमंत्री की कुर्सी की पेशकश करेंगी. पर ये सोच तभी संभव है जब हाल के दिनों में सपा प्रमुख एवरली ब्रदर्स (ऑल-आई-हैव-टू-डू-इज़-ड्रीम से चर्चित) की दुनिया में खोए रहे हों.
मायावती वास्तविक दुनिया में रहती हैं. वह अखिलेश के साथ गठजोड़ में वरिष्ठ सहभागी की भूमिका हथियाने में सफल रहीं, क्योंकि सपा के 37 के मुकाबले बसपा राज्य की 38 सीटों पर चुनाव लड़ेगी. ऐसा 2007 के विधानसभा चुनाव के बाद से बसपा की निरंतर घटती लोकप्रियता के बावजूद हुआ है, जब बसपा ने 30.43 प्रतिशत वोटों के साथ बहुमत हासिल किया था. उस सफलता के बाद बसपा को मिलने वाले मतों का प्रतिशत 2012 में गिरकर 25.95 प्रतिशत और 2017 में 22.23 प्रतिशत रह गया था.
इस अवधि में सपा का वोट प्रतिशत कमोबेश स्थिर रहा – 2007 में 26.07 प्रतिशत, 2012 में 29.29 प्रतिशत और 2017 में 28.32 प्रतिशत. इसी तरह 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान उत्तरप्रदेश में 22.35 प्रतिशत मतों (पांच सीट) के साथ सपा, बसपा के 19.77 प्रतिशत (कोई सीट नहीं) से बेहतर स्थिति में रही थी.
बसपा का वोट शेयर कम होते जाने के अलावा मायावाती को अपने मूल समर्थकों के बढ़ते मोहभंग का भी सामना करना पड़ा है. दलितों के कल्याण और सशक्तिकरण के उनके वायदे का बहुजन समाज पर वैसा असर नहीं पड़ता जैसा कि 2007 मे स्थिति थी. तब उत्तरप्रदेश में उन्हें स्पष्ट जनादेश देने वाले दलितों को आखिरकार निराशा ही हाथ लगी थी. दलितों का एक वर्ग, गैर-जाटव, 2014 में भाजपा के पाले में जाने का रुझान प्रदर्शित कर चुका है, और शेष वर्ग इनदिनों भीम सेना के प्रमुख चंद्रशेखर आज़ाद के उदय को जिज्ञासा और उम्मीद के साथ देख रहे हैं.
अब, सवाल ये है कि क्या बसपा प्रमुख उनके प्रधानमंत्री बनने के सपने को पूरा करने में मददगार अखिलेश के एहसान के बदले पर्याप्त उदारता दिखाएंगी?
सबसे पहले तो विपक्ष के एनडीए को परास्त करने तथा राहुल गांधी और बाकियों के प्रधानमंत्री पद की दावेदारी छोड़ने की असंभाव्य स्थिति में भी मायावती का सपना पूरा होने की संभावना नहीं के बराबर है. लेकिन यदि कल्पना करें कि ऐसा होता है, तो वैसी स्थिति में भी मायावती जैसी चतुर नेता महज एक प्रतिद्वंद्वी नेता के प्रति कृतज्ञता दिखाने के लिए अपनी पार्टी को मज़बूती और विस्तार देने के मौके को गंवाने की मूर्खता नहीं करेंगी.
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दूसरी बात, फिर से एक काल्पनिक परिस्थिति में, यदि एक विपक्षी गठबंधन केंद्र में सत्ता में आता है और सपा एवं बसपा के बीच प्रमुख पदों को लेकर खींचतान होती है, तो राजनीतिक तार्किकता यही बताती है कि मायावती उत्तरप्रदेश में अपना मुख्य प्रतिद्वंद्वी अखिलेश को ही मानेंगी, ना कि नरेंद्र मोदी रहित भाजपा को.
जहां तक विपक्ष की जीत से अखिलेश को मिलने वाले फायदों की बात है, तो वह स्वयं और उनके पार्टी सहयोगी केंद्र में कुछेक मंत्री पद पा सकेंगे. पर, इस प्रक्रिया में, वह बसपा पर सपा की मौजूदा बढ़त को गंवा देंगे और साथ ही मायावती को दलितों पर पकड़ और मुसलमानों के बीच कद बढ़ाने का मौका सुलभ कराएंगे. अभी तक मुसलमान मतदाता बसपा को लेकर उत्साहहीन ही रहे हैं, भले ही पार्टी 2007 से 2012 के बीच, सपा सरकार के विपरीत, राज्य में दंगामुक्त शासन देने का दावा करती है.
तो ये थे सपा-बसपा गठबंधन के बारे में सकारात्मक सोच से बने परिदृश्य.
यदि सपा-बसपा गठजोड़ भाजपा को हराने में नाकाम रहता है
अब, इस संभावना पर विचार करते हैं कि सपा-बसपा गठजोड़ उत्तरप्रदेश में भाजपा की संभावनाओं पर नाममात्र का ही असर डाल पाता है, जैसा कि शुरुआती ज़मीनी रिपोर्टों से संकेत मिल रहा है.
इसका मतलब होगा बहुप्रचारित दलित-यादव-मुस्लिम धुरी का बिखर जाना. यकीन करें, ऐसा होने पर मायावती अखिलेश पर सपा वोटों के बसपा को हस्तांतरण कराने में नाकाम रहने का आरोप लगाएंगी. और जब गठजोड़ टूटेगा जो तय है – तो अखिलेश अपने पैरों तले ज़मीन खिसकती पाएंगे. यादवों के साथ उनका अपने पिता जैसा भावनात्मक लगाव नहीं है. और, ऐसा प्रतीत होता है कि यादव मतदाता, ज़रूरत पड़ने पर, भाजपा को अपने दूसरे ठौर की तरह देखते हैं. जबकि मुसलमानों के लिए तो हमेशा कांग्रेस ही दूसरा विकल्प रहा है.
अखिलेश की रणनीति
विपक्ष के अन्य नेताओं की ही तरह सपा प्रमुख मोदी-विरोधवाद का अधिकतम फायदा उठाना चाहते हैं. अपने पिता से पार्टी का नियंत्रण झटकने के बाद, उन्हें अब राजनेता के रूप में अपनी काबिलियत सिद्ध करने की ज़रूरत है. उनका तीव्र मोदी-विरोध अपने पिता के मुस्लिम वोट बैंक को साथ लेने के उद्देश्य से प्रेरित है. वह इस चुनाव में यादवों के समर्थन की उम्मीद कर सकते हैं पर इसे मज़बूत करने के लिए उन्हें जीत हासिल करनी होगी.
हालांकि, थोड़ा सा टटोलने पर ही पता चल जाता है कि अखिलेश और मायावती दोनों ही भाजपा से अधिक कांग्रेस को लेकर चिंतित हैं. सपा को दिख रहा है कि कांग्रेस उसके मुस्लिम वोट बैंक को अपने पाले में करने की कोशिश कर रही है, जबकि मायावती अपने दलित वोट बैंक को लेकर असुरक्षा की शिकार हैं. इस तरह, उनके मोदी-विरोधवाद के मूल में कांग्रेस-विरोधवाद है. एक बार यदि उत्तरप्रदेश से कांग्रेस का सफाया हो जाता है, तो सपा और बसपा के लिए राज्य में त्रिकोणीय संघर्ष की स्थिति में भी शीर्ष स्थान पाना अपेक्षाकृत आसान रहेगा, और भाजपा तीसरे नंबर की पार्टी रह जाएगी.
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गत सप्ताह दिप्रिंट से बातचीत में अखिलेश ने इशारा किया था कि उत्तरप्रदेश में भाजपा को हराने का जिम्मा सपा-बसपा पर छोड़ दिया जाना चाहिए, जबकि कांग्रेस अन्य राज्यों पर फोकस करे.
निश्चय ही, मायावती पर इतना भरोसा जताने के पीछे अखिलेश के अपने तर्क होंगे. परंतु, अतीत के अपने अनुभवों के कारण इस बारे में मुलायम सिंद यादव कहीं ज़्यादा समझदार साबित हो सकते हैं. मुलायम देख चुके हैं कि बसपा सुप्रीमो सत्ता के खातिर कैसे अपने गठबंधन सहयोगियों – अलग-अलग समय सपा और भाजपा दोनों – को इस्तेमाल कर छोड़ देती हैं.
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