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Friday, 22 November, 2024
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ब्रह्मोस, INS विक्रांत खूब सक्षम हैं लेकिन भारत की अदूरदर्शिता को भी उजागर करते हैं

गलती से पाकिस्तान की ओर दग गई ब्रह्मोस मिसाइल की यूनिटें अभी भी पश्चिमी सीमा पर तैनात हैं जबकि ऐसे अस्त्रों को चीन के खिलाफ तैनात किया जाना चाहिए था.

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पाकिस्तान की ओर अस्त्र विहीन ब्रह्मोस मिसाइल के गलती से दग जाने की घटना के लिए वायुसेना के तीन अधिकारियों को अपनी नौकरी गंवानी पड़ गई. हादसे के महज पांच महीने के अंदर जिस तेजी से यह कार्रवाई की गई उससे यही लगता है कि यह गोपनीयता बनाए रखने के लिए गई.

यह हादसा कई स्तरों पर सुरक्षा तंत्र की नाकामी के बिना नहीं हो सकता था और इसके पीछे मुख्य वजह मानवीय भूल ही रही होगी. इसके अलावा, उस समय कोई युद्ध नहीं चल रहा था कि खतरे और अनिश्चितता के मनोविज्ञानिक दबाव के कारण यह भूल हो गई, जैसा कि बालाकोट हवाई हमले के अगले दिन कश्मीर में एक ‘एमआइ-17’ हेलीकॉप्टर को गलती से मार गिराया गया था और भारतीय वायुसेना के छह सैनिक और एक असैनिक की मौत हो गई थी. इस हादसे के लिए वायुसेना के दो अधिकारियों को दंडित किया गया था.

लेकिन हाल के ब्रह्मोस वाले मामले का ज्यादा असर राष्ट्रीय शर्म के रूप में सामने आया. किस्मत से, किसी जान-माल की कोई हानि नहीं हुई जिसके करण पाकिस्तान की उग्र प्रतिक्रिया नहीं हुई और उसके अधिकारियों ने समझदारी का परिचय दिया जिससे मामले ने तूल नहीं पकड़ा.

ब्रह्मोस के एकांगी उपयोग से आगे

पारंपरिक ‘वारहेड’ से लैस ब्रह्मोस मिसाइल भारत-रूस के उस संयुक्त उपक्रम की सफलता की देन है, जिसकी शुरुआत 1990 के दशक के अंत में हुई थी. सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल अब तीनों सेनाओं के पास हैं. वायुसेना ने इसे एसयू-30 में वेपन्स सिस्टम के रूप में शामिल किया है. इस मिसाइल ने भारतीय सेना को निश्चित बढ़त प्रदान की है क्योंकि इसमें विमान की रेंज के साथ मिसाइल की रेंज का अच्छा मेल किया गया है.

हाल की रिपोर्टें दिखाती हैं कि मिसाइल की रेंज 290 किमी से बढ़ाकर 350-400 किमी कर दी गई है, इसका एक युद्धपोत-नाशक रूप भी है जो हिंद महासागर में भारत की रणनीतिक पैठ बढ़ा सकता है, वह पैठ जिसे अंडमान और निकोबार द्वीपों के कारण मदद मिलती है. लेकिन यह विमानवाही पोत के रूप में समुद्री नौसैनिक उड्डयन का स्थान नहीं ले सकती. विमानवाही पोत न केवल समुद्र में तैनात बेड़े को हवाई सुरक्षा देता है बल्कि फिक्स्ड-विंग विमान और हेलीकॉप्टरों के द्वारा एअरबोर्न प्लेटफॉर्म के जरिए पनडुब्बी रोधक क्षमता को बढ़ाता भी है.

ऑपरेशन के मामले में ब्रह्मोस की क्षमता इस बात में है कि वह दुश्मन के अहम इन्फ्रास्ट्रक्चर को नुकसान पहुंचा सकती है या नष्ट कर सकती है. जमीन पर तैनात चलंतू प्लेटफॉर्म और हवा में तैनात एसयू-30 का घातक मेल दुश्मन के संचार तंत्र और अहम इन्फ्रास्ट्रक्चर को, खासकर उसके पुलों, हवाई अड्डों, असलहों के भंडार को नष्ट करके नाकाम कर सकता है.


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होना तो यह चाहिए था कि भारत की ब्रह्मोस मिसाइलें चीन के खिलाफ तैनात की जातीं क्योंकि पहाड़ी इलाके दुश्मन के खिलाफ कार्रवाई के लिए जरूरी अहम और चुनौतीपूर्ण तैयारी में बाधा बन सकते हैं. लेकिन विरासत में मिले सोच और पश्चिमी सीमा और उत्तरी सीमा के बीच संतुलन स्थापित करने से परहेज के कारण ब्रह्मोस मिसाइलें पश्चिमी सीमा पर ही तैनात हैं, जैसे कि वह मिसाइल तैनात थी जो गलती से दग गई थी. जमीन और हवा में तैनात की जा सकने वाली मिसाइलों को उत्तरी सीमा पर तैनात करने के पीछे का कारण मजबूत है, वह यह कि इन मिसाइलों का तंत्र चलंतू होता है और उसे पर्याप्त तैयारी के बाद दूसरी जगह तैनात किया जा सकता है.

सवाल यह है कि थलसेना और वायुसेना जमीन पर तैनात एक ही ब्रह्मोस मिसाइल का प्रयोग क्यों करती है? इसका जवाब इस धारणा में मिलता है कि हरेक सेना के अपने लक्ष्य होते हैं जो उसके अपने नियंत्रण में मौजूद तंत्र के जरिए ही बेहतर तरीके से हासिल किए जा सकते हैं. यह तर्क उस बहस पर भी हावी था, जो हमले में इस्तेमाल होने वाले हेलीकॉप्टरों के नियंत्रण के सवाल पर थलसेना और वायुसेना के बीच छिड़ गई थी. इस बहस का निबटारा नहीं हुआ था मगर उसे संभाल लिया गया था. इसका नतीजा यह हुआ कि ट्रेनिंग, ऑपरेशन की कामयाबी, और व्यवस्था को लेकर जो अधिकतम तालमेल बननी चाहिए थीं उसमें कमजोरी रह गई.

सामरिक महत्व और रणनीतिक प्रभावों के कारण, मिसाइल के लक्ष्य संवेदनशील होते हैं. इस तरह के लक्ष्य इस बात पर निर्भर होंगे कि युद्ध की स्थिति तथा स्तर के आधार पर नियंत्रण का अनुपात क्या रहता है. लक्ष्यों का केंद्रीय स्तर पर आकलन जरूरी है वे ऑपरेशन की मांगों के हिसाब से सौंपे जा सकते हैं. इसलिए, विमान-आधारित ब्रह्मोस को लंबी दूरी के लक्ष्य सौंपे जा सकते हैं, जबकि जमीन पर तैनात ब्रह्मोस तोपों और रॉकेटों की रेंज से बाहर के लक्ष्य साध सकती हैं.

बेशक, विशेष लक्ष्य के लिए वारहेड की क्षमता पर भी विचार किया जा सकता है. गौर करने वाली बात यह है कि ब्रह्मोस जैसे तंत्र को केवल सेना के विशेष अंग के नजरिए से नहीं देखा जाए. इसलिए बख्तरबंद हेलीकॉप्टरों पर नियंत्रण के लिए वायुसेना और थलसेना के बीच विवाद नहीं चलना चाहिए. जमीन पर आधारित जमीन से जमीन पर मार करने वाले अस्त्र थलसेना के पास रहें. ब्रह्मोस की अप्रत्याशित फायरिंग के बाद अधिकारीगण बदलाव कर सकते हैं.

भूले सबक सीखने का समय

ब्रह्मोस की एक सबसे बड़ी ताकत यह है कि वह भारत में बनती है और ‘आत्मनिर्भरता’ को बढ़ावा देती है. सेना के ओर अभी भी इसकी कम मांग की जा रही है. इसकी मुख्य वजह यह है कि तमाम तरह की मांगों और बजट की सीमा के बीच संतुलन रखना होता है. ब्रह्मोस की क्षमता को देखते हुए यह दयनीय स्थिति है. इससे यह तथ्य भी उजागर होता है कि वेपन्स सिस्टम का विकास किया जाने के बाद भी वे सेना को आसानी से मिल नहीं पातीं. इस समस्या का समाधान राजनीतिक नेतृत्व ही कर सकता है.

ब्रह्मोस की गलती से हुई फायरिंग का सकारात्मक नतीजा यह होना चाहिए कि हमारा राजनीतिक नेतृत्व, जो विकास और सुरक्षा की मांगों के बीच होड़ में फंसा है, एक निर्णायक बदलाव करे और भारत की बाहरी सुरक्षा की जरूरतों को पूरा करने के लिए अतिरिक्त वित्तीय व्यवस्था का समर्थन करे. बुरी बात यह है कि मौजूदा असमर्थता हमें अपनी क्षमताओं का पूरा उपयोग करने से रोक देती है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कोचीन बन्दरगाह में निर्मित विमानवाही युद्धपोत आइएनएस विक्रांत को 2 सितंबर को कमीशन करने जा रहे हैं. इस क्षमता का उपयोग अगले विमानवाही पोत के निर्माण में किया जाना चाहिए. इस फैसले में असहनीय देरी की गई है जिसने भारत को वह बढ़त लेने से रोक दिया है जो वह ले सकता था. यहां गौर करने वाली बात यह है कि भारत उन चंद देशों में शामिल है जो विमानवाही पोत का इस्तेमाल छह दशकों से ज्यादा समय से कर रहा है. यह सुविधा चीन को हासिल नहीं है, जबकि इस सुविधा के महत्व का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता. देश में पहला देशी एचएफ-24 मारुत लड़ाकू विमान बनाने के अनुभव का इस्तेमाल करने में विफलता हमें महंगी पड़ी है. यह इस बात से जाहिर है कि भारतीय नौसेना ने आइएनएस विक्रांत के लिए हल्के लड़ाकू विमान (एलसीए) को खारिज कर दिया है.

ब्रह्मोस और आइएनएस विक्रांत भू-राजनीतिक वास्तविकताओं के मद्देनजर दीर्घकालिक रणनीतिक नजरिए से निर्देशित न होने की हमारी अदूरदर्शिता को उजागर करते हैं. अब जबकि हम अपनी अतिरिक्त क्षमताओं का विकास करना चाह रहे हैं तब हम कम-से-कम इतना तो कर ही सकते हैं कि मौजूदा क्षमताओं का पूरा लाभ उठाएं.

(लेफ्टिनेंट जनरल (डॉ.) प्रकाश मेनन (रिटायर) तक्षशिला इंस्टीट्यूशन में स्ट्रैटेजिक स्टडीज के डायरेक्टर हैं; वे नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल सेक्रेटेरिएट के पूर्व सैन्य सलाहकार भी हैं. उनका ट्विटर हैंडल @prakashmenon51 है. व्यक्त विचार निजी है)
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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