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गुरूवार, 29 मई, 2025
होममत-विमतजातिगत जनगणना का रास्ता AIADMK ने बनाया, इतिहास इसे रखेगा याद : एडप्पादी के. पलानीस्वामी

जातिगत जनगणना का रास्ता AIADMK ने बनाया, इतिहास इसे रखेगा याद : एडप्पादी के. पलानीस्वामी

तमिलनाडु 69 फीसदी आरक्षण की नीति के साथ सकारात्मक कार्रवाई को दिशा देता रहा है. वह उपलब्धि किसी संयोग से नहीं बल्कि एआईडीएमके के राजनीतिक संकल्प और संवैधानिक कौशल के बूते हासिल हुई थी.

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भारतीय लोकतंत्र के गहन ताने-बाने में समानता और प्रतिनिधित्व को लेकर जो सवाल पूछे जाते हैं उनमें जाति के सवाल की तरह कम ही सवाल हैं जो सीधे दिल को छूते हैं. केंद्र सरकार ने विस्तृत जातिगत जनगणना करवाने का जो फैसला हाल में किया है वह एतिहासिक है, जो भारत में सामाजिक न्याय की नीति को नया स्वरूप प्रदान देने की संभावना रखता है. तमिलनाडु विधानसभा में विपक्ष का नेता होने के नाते मैं इस फैसले का पूरे विश्वास और गर्व के साथ स्वागत करता हूं क्योंकि यह उस मांग की पुष्टि करता है जिसे सबसे पहले ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम (एआईडीएमके) ने पूरी स्पष्टता और दूरदर्शिता के साथ उठाया था.

कल्पना से कर्म तक

यह फैसला रातों-रात नहीं आ गया. जातिगत जनगणना की मांग, जिसे अब राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार कर लिया गया है, उसकी जड़ें तमिलनाडु में चले सामाजिक न्याय के आंदोलन के वैचारिक आधार से गहराई से जुड़ी हैं. इस सफर में, पुरात्चि थलैवी अम्मा जे. जयललिथा के नेतृत्व में एआईडीएमके ने ही सच्चे समतामूलक प्रतिनिधित्व की नींव रखी थी.

2021 में ही, जब मैं मुख्यमंत्री था, नई जातिगत जनगणना की सबसे पहले मांग हमारी सरकार ने ही की थी. हमने इस बात पर ज़ोर दिया था कि जनकल्याण की नीतियां 1931 के पुराने आंकड़ों के आधार पर नहीं बनाई जा सकती. तभी हमने मान लिया था और आज हम उस पर अमल करते हैं कि प्रगति के लिए समानुभूति ही नहीं, सबूत भी चाहिए.

तमिलनाडु 69 फीसदी आरक्षण की नीति के साथ सकारात्मक कार्रवाई को दिशा देता रहा है. वह उपलब्धि किसी संयोग से नहीं बल्कि एआईडीएमके के राजनीतिक संकल्प और संवैधानिक कौशल के बूते हासिल हुई थी. 1992 में सुप्रीम कोर्ट के इंदिरा साहनी (मंडल) फैसले ने आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 फीसदी तय कर दी तब तमिलनाडु की नीति के ढांचे को ही खतरा पैदा हो गया, लेकिन अम्मा जयललिथा ने इस चुनौती को स्वीकार किया 1993 में उन्होंने विधानसभा का विशेष अधिवेशन बुलाया, एकमत से प्रस्ताव पारित करवाया और सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के साथ दिल्ली पहुंच गईं. उनके भारी दबाव के कारण तमिलनाडु रिज़र्वेशन एक्ट को संविधान की नौवीं अनुसूची में शामिल किया गया, जिसके बाद यह न्यायिक समीक्षा से मुक्त हो गया. यह केवल शासन नहीं था; यह परिवर्तनकारी नेतृत्व की मिसाल थी.

डीएमके का दोमुंहा दावा

2021 में हमने जातिगत जनगणना की मांग किसी राजनित्क मकसद से नहीं की थी. यह तमिलनाडु की बदलती सामाजिक हकीकतों के बारे में एआईडीएमके की पुरानी समझदारी का प्रमाण है. हमने शिक्षा, रोज़गार और जनकल्याण के मामलों में पिछड़े वर्गों (बीसी), सबसे पिछड़े वर्गों (एमबीसी), अनुसूचित जातियों (एससी), अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के आरक्षण के पुनराकलन की तत्काल ज़रूरत को कबूल किया.

यह मांग जब की गई थी तब सत्ताधारी दल डीएमके ने चुप्पी ओढ़ ली थी, लेकिन यह पार्टी आज इस मांग का प्रवर्तक होने के दावे कर रही है. 2023 में जाकर ही डीएमके मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा जिसमें वही बातें दोहराई जो हम लोगों के बीच पहले से ही कह रहे थे. केंद्र सरकार को इस फैसले के लिए धन्यवाद, कि अब यह राष्ट्रीय एजेंडे में शामिल हो गया है और जातिगत जनगणना के मामले में डीएमके का दोमुंहापन उजागर हो गया है.

आज भी डीएमके का रुख मुद्दे को आगे बढ़ाने की जगह अवसरवादी ही नज़र आ रहा है. जातियों की गणना करने के लिए उसने जो एक सदस्यीय आयोग की घोषणा बड़े शोरशराबे के साथ की है उससे इस मुद्दे पर स्थिति या दिशा स्पष्ट नहीं हुई है. एआईडीएमके के साहसी, संवैधानिक रूप से बाध्यकारी कार्रवाई के विपरीत डीएमके अक्सर प्रतीकात्मक संकेत ही देती रही है.

हमारा रिकॉर्ड सब कहता है

आरक्षण का इतिहास एआईडीएमके की विरासत का अभिन्न हिस्सा है :

  • 1980 के दशक में एआईडीएमके के संस्थापक एम.जी. रामचंद्रन ने बीसी को दिए गए आरक्षण की सीमा बढ़ाकर 50 फीसदी कर दी, इस तरह कुल 68 फीसदी आरक्षण दे दिया गया.
  • 1990 में आरक्षण की सीमा 69 फीसदी कर दी गई, लेकिन अदालतों ने इसकी वैधता पर सवाल उठाए तो अम्मा जयललिथा ने संवैधानिक उपायों से इसका बचाव किया.

मसले को आखिरकार महत्व मिला

आज तमिलनाडु ही वह अकेला राज्य है जहां इतनी मजबूत आरक्षण नीति लागू है और उसे संवैधानिक कवच हासिल है क्योंकि एआईडीएमके विरोध के आगे लड़खड़ाई नहीं.

अब केंद्र सरकार ने जबकि जातिगत जनगणना कराने का फैसला कर लिया है, एआईडीएमके ने इस ऐतिहासिक और साहसी फैसले का स्वागत किया है. मेरा मानना है कि इसके आंकड़े न केवल आज की ज़रूरतों के मुताबिक, जनकल्याण की नीतियां बनाने मदद करेंगे बल्कि संसाधनों के उचित वितरण और बेहतर प्रतिनिधित्व की गुंजाइश भी बनाएंगे. संतोष की बात है कि इस मसले पर पूरा देश ध्यान दे रहा है. केंद्र में हमारे सहयोगियों ने इसके महत्व को समझा है, इसकी हम प्रशंसा करते हैं.

इस जनगणना में देश भर में जातियों के अनुपात, शिक्षा के स्तर, रोज़गार की व्यवस्था, और सामाजिक-आर्थिक स्थिति से संबंधित आंकड़े मिलेंगे. इसके निष्कर्षों के आधार पर आरक्षण की सीमाएं तय की जाएंगी, सामाजिक कार्यक्रमों के लक्ष्य तय किए जाएंगे और यह तय होगा कि केंद्र और राज्य मिलकर समावेशी विकास की बड़ी योजनाओं को कैसे आगे बढ़ाएंगे.

चुनावी गणित बनाम नैतिकता

सवाल उठता है कि डीएमके इतने समय तक हिचकिचाती क्यों रही? इसका जवाब उसकी चुनावी गणित में निहित है. पूर्ण और पारदर्शी जातिगत जनगणना उस कमज़ोर जातीय गठबंधनों को तोड़ सकती है जिसे डीएमके ने दशकों में बड़े जतन से तैयार किया है. इसके अलावा एआईडीएमके हमेशा से यह मानती रही है कि सुविधाजनक कल्पनाओं की जगह असुविधाजनक सच्चाइयां ज्यादा बेहतर हैं. हमारा मानना है कि न्याय तथ्यों की नींव पर खड़ा होना चाहिए और हम इसी पर अटल रहेंगे.

डीएमके ने जातिगत जनगणना को अचानक जो समर्थन दिया है वह वैचारिक प्रतिबद्धता से ज्यादा राजनीतिक मजबूरियों का परिणाम दिखता है. इस मसले पर वह जो टालमटोल करते रहे हैं वह एआईडीएमके की स्पष्टता और निरंतरता के एकदम विपरीत है.

जातिगत जनगणना कोई रामबाण नहीं है, लेकिन यह एक ज़रूरी औज़ार है. अगर हम ऐसा भारत बनाना चाहते हैं जिसमें सभी लोगों को प्रतिनिधित्व मिले, तो हमें शुरुआत इससे करनी पड़ेगी कि वे लोग कौन-कौन हैं और वह किस स्थिति में हैं और उन्हें आगे कितनी दूर तक जाना चाहिए. तमिलनाडु को खुद एक उदाहरण बनकर एक बार फिर नेतृत्व देना पड़ेगा.

(एडप्पादी के. पलानीस्वामी तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री, AIADMK के महासचिव और तमिलनाडु विधानसभा में विपक्ष के नेता हैं. उनका एक्स हैंडल @EPSTamilNadu है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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