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Friday, 1 November, 2024
होममत-विमतआख़िरकार एक और ऑपरेशन क्लीन अप में ढहा दिया गया सियालकोट का अहमदिया मस्जिद

आख़िरकार एक और ऑपरेशन क्लीन अप में ढहा दिया गया सियालकोट का अहमदिया मस्जिद

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सियालकोट मस्जिद को ढहाना, हालिया समय में अहमदिया समुदाय को उनकी जगह से हटाने के उत्तरोत्तर प्रयासों के बीच इस पाकिस्तानी अल्पसंख्यक समुदाय की पहचान पर नवीनतम हमला है।

23 मई की रात 11 बजे से 3 बजे के बीच, एक सांठगांठ वाली राज्य मशीनरी और हामिद मिर्ज़ा के नेतृत्व में सियालकोट की भीड़ ने हाकिम हस्सम-उद-दीन मस्जिद को गिरा दिया।

पाकिस्तान के अहमदिया समुदाय से सम्बद्ध रखने वाली यह मस्जिद कवि-दार्शनिक अल्लामा इक़बाल की पहली शैक्षणिक संस्था है। इसके प्रांगण में इक़बाल ने विद्यालय का अपना पहला अध्याय पढ़ा था।

सियालकोट के महापौर ने 100 साल पुरानी इस इमारत को अवैध निर्माण बताया। अहमदिया समुदाय के सदस्य इस धार्मिक स्थान का नवीनीकरण करते रहे हैं, लेकिन पाकिस्तान के समस्याग्रस्त कानून नगरपालिका समिति को परिसर और स्पष्ट अतिक्रमण को सील करने के लिए पर्याप्त कारण देते हैं।

सियालकोट मस्जिद को ढहाना, हालिया समय में अहमदिया समुदाय को उनकी जगह से हटाने के उत्तरोत्तर प्रयासों के बीच इस पाकिस्तानी अल्पसंख्यक समुदाय की पहचान पर नवीनतम हमला है।

पाकिस्तान में एक के बाद एक लगातार अहमदिया विरोधी हिंसाओं के बाद 7 सितम्बर 1974 को उदार प्रतीत होने वाले प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो और उनकी राष्ट्रीय असेंबली ने अहमदियों को गैर-मुस्लिम घोषित करते हुए एक बिल पारित कर दिया था। भुट्टो वह व्यक्ति थे जिन्हें अहमदियों ने समर्थन दिया था और वोट दिया था। हालाँकि, यह 1984 तक नहीं था और ज़िया एवं उसकी क्रूर शासन व्यवस्था द्वारा अहमदिया समुदाय की गरिमा को तहस नहस कर दिया गया था। अहमदिया अब खुद को मुसलमान नहीं कह सकते थे और उनकी आस्था की साधना का कोई भी कृत्य जैसे नमाज़ अदा करना, कुरान की आयातों को सन्दर्भ बनाना, धर्मान्तरण और धार्मिक सामग्री साझा करना एक अपराध माना जाता था।

पहचान का लुप्त होना

आज समुदाय और उनकी मंडलियाँ छोटे-छोटे पड़ोस व मस्जिद समूहों तक ही सीमित हैं। मूक प्रशासन पर्याप्त सुरक्षा प्रदान करने से इंकार करता है, यहाँ तक कि 2010 के लाहौर नरसंहार के बाद जब आतंकवादियों ने दो अहमदिया मस्जिदों पर हमला किया था, प्रशासन ने सुरक्षा मुहैया कराने से इंकार कर दिया था। नतीजतन अब कई जगहों पर एक खामोश और घिरा हुआ अहमदिया समुदाय अपनी ईद की नमाज सुबह 6 बजे से पहले पढ़ लेता है ताकि उन पर किसी का ध्यान न जाए।

इस पूरे समय में इस समुदाय ने लगातार जोर दिया है कि उन्हें इस्लाम का ही एक संप्रदाय माना जाए। लेकिन आज अहमदिया मित्र दो “I” के क्षरण से उदास हैं: कि उन्हें अब (Insaan) इन्सान नहीं माना जाता और पूरे समुदाय से कोई (Interact) चर्चा नहीं करना चाहता।

यह 1980 के दशक में मैककार्थिज्म के रूप में शुरू हुआ था और यदि आप अहमदियों के प्रति कोई सहानुभूति दिखाते तो मीडिया आपके बारे में नकारात्मक राय तैयार कर देता था। अब अहमदियों को कहानी के अपने पक्ष को प्रस्तुत करने के लिए हर एक मंच से मना कर दिया जाता है, भले ही उनकी पाकिस्तानपरस्ती और मानवता पर सवाल करते हुए वे एक कठोर घृणित अभियान के अधीन हों। एक प्लेटफॉर्म के रूप में सोशल मीडिया सहायक रहा है लेकिन यह भी नफ़रत फैलाती हुई एक दोधारी तलवार है।

सियालकोट की टूटी हुई अहमदिया मस्जिद | Zafarullah Khan

समय की संक्षिप्त अवधि में जब मैं 1990 के दशक में विश्वविद्यालय में अपने अहमदी मित्रों के साथ हंसा-रोया, उठा-बैठा, खाया-पिया, तो मैंने उनके समुदाय को धीरे धीरे अलग-थलग किये जाने की कहानियों को सुना।

क्या वहां कभी कोई पड़ोसी था जिसने एक अहमदिया परिवार, जिसे अपना सैटेलाइट डिश एंटीना उतारने पर मजबूर होना पड़ा हो, उनके लिए अपने दरवाजे खोलने की पेशकश की हो? 90 के दशक में, ब्रिटेन में अहमदी खलीफा द्वारा दिए जाने वाले उपदेश को शुक्रवार को देखने के लिए डिश एक आवश्यकता थी। लेकिन पड़ोसी अपने घरों में शांति के साथ प्रार्थनाओं को देखने के लिए अहमदियों को आमंत्रित नहीं करते थे। विश्वविद्यालय की एक युवा अहमदी छात्रा से उसके छात्रावासियों ने उसकी सांप्रदायिक मान्यताओं को स्पष्ट करने के लिए कहा और फिर तुरंत विश्वविद्यालय के अधिकारियों को सूचित कर दिया गया। कायद-ए-आज़म विश्वविद्यालय में भौतिकी के प्रोफेसर नसीम बाबर की एक अहमदी होने के कारण उनके घर पर गोली मारकर हत्या कर दी गयी थी, लेकिन उनके सहयोगियों ने मेमोरियल मीटिंग में अटल मौन बनाये रखने का फैसला किया। अपने पीरों की उपेक्षा के बारे में सक्रोध बोलने के लिए यह उनके प्रिय मित्र (गैर-अहमदी) प्रोफेसर नियाज़ी पर छोड़ दिया गया।

2010 के लाहौर नरसंहार के बाद एक्सप्रेस न्यूज़ के एक पाकिस्तानी न्यूज़ एंकर मुबशिर लुकमान नरम पड़े और एक कॉल-इन शो में एक अहमदिया प्रतिनिधि को स्क्रीन पर समय देने की पेशकश की। इसने कई लोगों को नाराज कर दिया और उन्हें यथानियम दण्डित किया गया और उन्हें उनके गुनाह को दूर करने के लिए तुरंत ही स्क्रीन पर ‘अच्छे मुस्लिम’ मौलवियों का एक पैनल बिठाने के लिए कहा गया।

कथाओं का घर

यह मानते हुए कि अहमदिया धार्मिक स्थानों को मस्जिदों के रूप में संदर्भित नहीं किया जा सकता, मानो वह ईश-निंदा के अपराधी हों, लोगों ने उनके धार्मिक स्थानों को मस्जिद कहने की बजाय उनके बारे में एक नाम बैत-उल-ज़िक्र (कथाओं का घर) का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। ये जगहें आपके सामने छुपे हुए भौगोलिक क्षेत्र की कहानी प्रस्तुत करती हैं जो हमारे ही शहरों के भीतर स्थित हैं – सफेदपोश कामगारों, शिक्षाविदों, वैज्ञानिकों, दन्त चिकित्सकों, डॉक्टरों और व्यवसायियों की लापता आवाजें और नाम, जो चले गये, और छोड़ गए अपने दरवाजों के पीछे और मेल बॉक्स में ठूंस कर भरे वो पर्चे जिनसे उन्हें धमकाया गया था। वहां धर्मान्धता में नक़्शे खींचे गये हैं जहाँ उपनगर हर महीने अहमदियों की हत्याओं के बढ़ते आंकड़ों में योगदान देते हैं।

कुछ ऐसी गलियां हैं जिन्हें शहर के योजनाकार भी अनदेखा करते हैं। अहमदिया खुद को गैर-मुसलमानों के रूप में पंजीकृत करने से इनकार करते हैं, यहां तक कि ईश-निन्दा का आह्वान करने का जोखिम भी उठाते हैं। लेकिन वे मुसलमान होने का दावा करने के लिए पहचान दस्तावेज कहां से लाएंगे? राज्य ने उन्हें ऐसे कोई दस्तावेज प्रदान नहीं किए हैं। इसलिए, वे चुनावी रूप से अधर में लटककर रहना जारी रखते हैं। राजनेताओं को उन्हें नागरिक सेवाओं में शामिल करने में कोई लाभ नहीं दिखता क्योंकि वे वोट बैंक नहीं हैं।

उनके लिए अब जो बचा है वो हैं ऑपरेशन क्लीन-अप, जो रात के मध्य में होते हैं।

अनीला बाबर एक लिंग और सांस्कृतिक अध्ययन विशेषज्ञा हैं और ‘वी आर ऑल रेवोल्यूशनरीज़ हियर: मिलिटरिज्म, पॉलिटिकल इस्लाम एंड जेन्डर इन पाकिस्तान’ की लेखिका हैं।

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