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Saturday, 27 April, 2024
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अग्निपथ से भारतीय सेना को मिलेंगे ‘चार साल के इंटर्न्स’. ये सेना के आपसी रिश्तों पर एक हमला है

एक काल्पनिक पत्र में एक एडजुटांट जनरल बताते हैं कि अग्निपथ स्कीम क्यों चिंताजनक है, और स्पष्ट है कि ये सिविलियन्स द्वारा लिखी गई है.

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ये ‘भारी मन से लिखा गया’ एक पत्र है, लेकिन मैं इसे स्वयं को लिख रहा हूं, अपने भीतर की एक ऐसी चीज़ को- जो कभी मुश्किल से ही दिखाई पड़ती है लेकिन जिसका दबाव बहुत ज़बर्दस्त होता है. ख़ासतौर से जब बात सैनिकों के काम की आती है, जिसे करते हुए मुझे 35 वर्षों से अधिक हो गए हैं. अब मैं अपने करियर के अंतिम दौर में हूं और मेरा वास्ता एक ऐसे निर्णय से पड़ रहा है जो मेरी अंतरात्मा को ऐसे चुभो रहा है जैसे मेरे पूरे कार्यकाल में कभी नहीं हुआ. ऑपरेशन पवन के दौरान एक सेकंड लेफ्टिनेंट के नाते श्रीलंका में मेरे ज़मीर को कोई पछतावा नहीं था, उसके बाद सियाचिन पर, मेरे मन में पाकिस्तान के खिलाफ सिर्फ रोष था.

नागालैण्ड और कश्मीर में आतंकवाद विरोधी अभियानों के दौरान ऐसे लमहे आए जब अंदर से कोई चीज़ मुझे परेशान करती थी. लेकिन फिर मुझपर ऐसे हथियारों और गोलाबारूद से हमला किया गया, जो भारत के बाहर से लाए गए थे, इसलिए मेरे ज़मीर ने मुझे सिर्फ कुछ लमहों के लिए परेशान किया. हम उन लोगों के खिलाफ देश की रक्षा कर रहे थे, जो भारत के विचार का समर्थन नहीं करते थे, इसलिए अंत में सब कुछ जायज़ था. लेकिन अब एक एडजुटांट जनरल के नाते मैं एक ऐसे मामले से निपट रहा हूं, जो अंदर से तकलीफ पहुंचाता है और न केवल अपमानजनक बल्कि चिंताजनक भी है. ख़ासकर जब सेवानिवृत्त सैनिक समूह इस तरह की तस्वीरें पोस्ट करते हैं:

तस्वीर का स्रोत: लेखक

1991 के पहले कोर्स से तीन सेवा प्रमुखों को देखने का रोमांच और गर्व अब भुलाया जा चुका है.

एजी के नाते मेरी शाखा अब किसी हिंदी फिल्म जैसे नाम की स्कीम- अग्निपथ के तहत, युवा लड़कों को चार साल के लिए भर्ती करने के आदेश जारी करेगी. इसमें छह महीने की ट्रेनिंग भी शामिल है, जो बहुत कम है. प्रशिक्षण केंद्रों को बिल्कुल बेसिक सैन्य कौशल के साथ एक सैनिक को तैयार करने में क़रीब दस महीने लगते हैं. लुटियंस दिल्ली में प्रधानमंत्री के क़ाफिले के गुज़रने के दौरान दिल्ली पुलिस का जो सिपाही मेरे आवास के बाहर तैनात होता है, उसकी ट्रेनिंग भी उससे लंबी रही है जितनी इन बेचारे लड़कों को दी जाएगी. इसलिए जिसने भी ये सोचा कि छह महीने की ट्रेनिंग के साथ ये 18 साल के लड़के कसम परेड के लायक़ हो जाएंगे, वो दरअसल न तो सेना को जानता है, न कभी जान पाएगा.


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‘चार साल के इंटर्न्स’

बहुत तकलीफदेह है इस कुर्सी पर बैठे हुए इन नौजवानों को विदा करना- उन्हें बेकार और फालतू बना देना, और ये दरअसल वही होगा. कोई भी बटालियन जहां इन्हें भेजा जाएगा, इन्हें स्वीकार नहीं करेगी. ज़ाहिर है इन्हें ख़ारिज नहीं किया जाएगा, लेकिन तैयार न होने की वजह से भावनात्मक रूप से इन्हें स्वीकार भी नहीं किया जाएगा. ज़ाहिर है कि कंपनी हवलदार मेजर इसे मुझसे ज़्यादा अनगढ़ और सही तरीक़े से व्यक्त करेगा. और चार साल के बाद जब उनके जाने का समय आएगा, तो उनमें कोई कौशल नहीं होगा. वो सेवा के रिश्ते अपने साथ नहीं ले जा सकेंगे, क्योंकि वो अधपके ही रहेंगे.

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एक इनफ्रेंट्री बटालियन में बीस साल बिताने के बाद, मैं जुड़ाव के बारे में किसी भी सिविलियन से ज़्यादा जानता हूं. ये जुड़ाव सेवा में काफी जल्दी शुरू हो जाता है, ऑफिसर बिरादरी में और सैनिकों के साथ. गुणाशेखरन से लेकर हर बडी के पास मेरा बटुआ रहा है, जिसका इस्तेमाल बिलों के भुगतान के लिए खुलकर होता रहा है. मुझे अभी भी याद है कि किस तरह दार ने एक कश्मीरी व्यक्ति की पिटाई की थी, जिसने मेरे हाथ में काटकर ख़ून निकाल दिया था. वो दोनों भले एक ही ज़िले से रहे हों, लेकिन वर्दी का रिश्ता ख़ून से गहरा होता है. या शम्सुद्दीन का लीडर  नदी पर रमेश कुमार के अंतिम संस्कार के लिए आगे आना, क्योंकि उन दिनों शवों को घर वापस नहीं भेजा जाता था.

नए ज़माने के ये सैनिक, या चार-साल के इंटर्न्स जो कुछ वेटरन्स उन्हें कहते हैं, इन रिश्तों को नहीं सीख पाएंगे. अपना कार्यकाल समाप्त होने तक वो अपनी यूनिट के चरित्र को आत्मसात नहीं कर पाएंगे. साफ ज़ाहिर है कि इस स्कीम के पीछे किसी सिविलियन का ही दिमाग़ है.

कॉम्बेट यूनिट का क्या होगा?

ऐसा लगता है कि भारत पर ‘सुधारों’ का जुनून सा सवार है, उसके जो भी मायने हों. छुट्टियों के बाद घर से लौटने वाले मेरे सैनिक हमेशा राजस्व अधिकारियों या पुलिस द्वारा परेशान किए जाने की शिकायत करते हैं, जो ग्रामीण भारत की सबसे बड़ी चिंताएं हैं. लेकिन सुधारों के मामले में इन विभागों को छुआ भी नहीं गया है, और सारा ज़ोर सेना के साथ छेड़छाड़ पर है.

अग्निपथ के पीछे सबसे बड़ा कारण पेंशन तथा आधुनिकीकरण को बताया जा रहा है. लेकिन इसका एक और गहरा तथा चिंताजनक कारण भी है. ये वो बेचैनी है जो सिविलियन्स सैन्य संस्कृति को लेकर महसूस करते हैं. सेना के बारे में उन्हें कुछ परायापन सा महसूस होता है, और इसलिए वो बड़ी आसानी से इसपर ‘औपनिवेशिक’ का ठप्पा लगा देते हैं. वो भूल जाते हैं कि सेना एक ऐसा अबाध क्रम है, जो किसी भी ‘विदेशी’ के भारत पर आक्रमण से पहले से चली आ रही है, और पूरे इतिहास में ये विभिन्न रूपों में मौजूद रही है. अंग्रेज़ों में बस ये चतुराई थी कि उन्होंने इस गहरी भारतीय प्रकृति को सेना में आत्मसात कर लिया, और उन्हें रेजिमेंट के नाम और नंबर दे दिए. इससे ज़्यादा या कम कुछ नहीं.

चार साल की ये स्कीम दरअसल सेना की संस्कृति और उसकी संरचना पर एक हमला है. कॉम्बेट यूनिट के भीतर अगर सैनिक अलग अलग रोज़गार अनुबंधों पर हों, तो उनके लिए साथ मिलकर काम करना मुमकिन नहीं है. अनुभवी सैनिक अपनी जान के लिए ‘इंटर्न’ पर भरोसा नहीं करेगा, और इसके बदले में ‘इंटर्न’ भी अपनी जान दांव पर नहीं लगाएगा. बिल्कुल सीधी सी बात है. लेकिन एक विदेशी डिग्री से लैस अर्थशास्त्री जिसने ये स्कीम तैयार की है, वो इस समीकरण को कभी नहीं समझेगा क्योंकि किसी ऑपरेशनल अनुभव ने उनके अंदर उस रिश्ते को धार नहीं दी है. एजी के नाते यूनिट की एकजुटता का ये बिखराव सबसे बड़ी चिंता है.

इसलिए अब मुझे उस अपमान की याद आ रही है, जब रक्षा मंत्री के निजी सचिव ने उस समय वेतन आयोग के ज्वलंत मुद्दे के बारे में मुझसे कुछ कहा था. उसने कहा आप लोग सैन्य नेतृत्व की बात करते रहते हैं, लेकिन अपने वेतन के बारे में मुझसे बात कर रहे जनरलों ने कभी सैनिकों के वेतन के बारे में नहीं पूछा. एक आईएएस अधिकारी होने के नाते, ज़ाहिर है कि उसने मुझपर ये जताने का मौक़े नहीं गंवाया. और एक तरह से ये आज भी जारी है, क्योंकि हम जनरल अपनी संस्था के लिए एक तबाही का अनुमोदन कर रहे हैं, जबकि रिटायर्ड सैनिक इसके विरोध में सबसे अधिक मुखर हैं. इस मामले में वो रिटायर्ड जनरलों से भी आगे हैं, जो थोड़े उत्साहहीन नज़र आते हैं.

पिछले कुछ सालों में, क्यूएमजी ब्रांच के एक आदेश से, हमने गांवों में पूर्व सैनिकों के लिए मोबाइल कैंटीन बिक्री बंद कर दी है. फिर हमने दो साल के लिए भर्ती पर रोक लगा दी जिससे हज़ारों उम्मीदवार अधर में लटक गए, क्योंकि घड़ी की सुईं ज़्यादा उम्र की ओर जा रही थी. और यही मेरी ब्रांच की नाकामी थी. लेकिन ये ‘इंटर्न’ स्कीम उन ग़लतियों पर भी भारी पड़ती है. मैं सोचता हूं कि क्या नौसेना और वायुसेना में मेरे समकक्ष सहयोगी भी इस फैसले पर उतना ही कुढ़ रहे हैं जितना मैं कुढ़ रहा हूं. उन्हें कुढ़ना चाहिए क्योंकि हम सब के पास एक ज़मीर है, और योद्धाओं के नाते हमारे ऊपर ज़्यादा ज़िम्मेदारी है, कि हम भारत के लिए अच्छे से अच्छा करें.

मानवेंद्र सिंह एक कांग्रेस नेता, डिफेंस एंड सिक्योरिटी अलर्ट के प्रधान संपादक, और सैनिक कल्याण सलाहकार समिति, राजस्थान के अध्यक्ष हैं. वो @ManvendraJasol.पर ट्वीट करते हैं. लेखक न तो एडजुटांट जनरल हैं, न कभी रहे हैं. लेख में हवाला दिए गए नाम और घटनाएं काल्पनिक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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