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Thursday, 19 December, 2024
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ब्राह्मण वर्चस्व और द्रविड़ आंदोलन के बाद अब तमिलनाडु को चाहिए कि सारी कड़वाहट भुला दे

बयानबाजी के पीछे, तमिल समाज में जाति-आधारित संघर्ष और घृणा का एक वास्तविक मुद्दा है. मार्टिन लूथर किंग जूनियर, मंडेला और रेनन ने आगे की राह दिखाई है.

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तमिलनाडु बीजेपी के अध्यक्ष पूर्व आईपीएस अधिकारी के. अन्नामलै ने हाल में अपने भाषण में तमिलनाडु में ब्राह्मणों के साथ होने वाले भेदभाव की चर्चा की है. उन्होंने कहा कि ब्राह्मणों को दशकों तक तमिलनाडु में खदेड़ा गया और धमकाया गया. ऐसा कहते हुए उन्होंने तमिलनाडु में ब्राह्मणों और द्रविड़ आंदोलन द्वारा उनके वर्चस्व के विरोध की तुलना, दूसरे विश्व युद्ध के दौरान यहूदियों पर किए गए नाजी अत्याचार से कर डाली. उनके वक्तव्य का तीखापन इस बात का प्रमाण है कि तमिलनाडु के समाज में विभाजन रेखाएं बहुत स्पष्ट है और उनके बीच संवाद की सख्त कमी है.

इस वक्तव्य के बाद मुझे उम्मीद है कि तमिलनाडु में उस बहस और चर्चा की शुरुआत होगी, जो काफी समय से लंबित है. ये गौरतलब है कि अन्नामलै ब्राह्मण नहीं हैं.

यह सही है कि अन्नामलै ने बहुत बढ़ा-चढ़ाकर बयान दिया है. तमिलनाडु के द्रविड़ आंदोलन की तुलना जर्मनी की नाजी पार्टी के अत्याचारों के साथ करने का कोई तुक नहीं है. जिस द्रविड़ आंदोलन पर वे ब्राह्मणों पर अत्याचार ढाने का आरोप लगा रहे हैं, उस आंदोलन की ऐतिहासिकता को वे नकार रहे हैं. ये आंदोलन शिक्षा, सरकारी नौकरियों और सत्ता तथा धन के केंद्रों में अतिशय ब्राह्मण वर्चस्व के खिलाफ अन्य जातियों की प्रतिक्रिया में खड़ा हुआ था. इसने तमिलनाडु के समाज को लोकतांत्रिक बनाने में बड़ी भूमिका निभाई. आज तमिलनाडु शिक्षा, स्वास्थ्य और जन-कल्याण में देश का अग्रणी राज्य है, तो इसमें द्रविड़ आंदोलन और उससे निकली पार्टियों का रोल रहा है. न ही इस आंदोलन को किसी समुदाय के प्रति दैहिक हिंसा या उसके अतिरेक के लिए जाना जाता है. इस आंदोलन से तमिलनाडु के समाज में कड़वाहट जरूर आई, लेकिन इसकी तुलना नाजी अत्याचार से करना इस विषय को हल्का बना देना है.

बहरहाल, अन्नामलै के अतिरेक और बढ़ा-चढ़ा कर की गई बात की अनदेखी कर दें, तो इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि द्रविड़ आंदोलन के बाद तमिलनाडु समाज दो खेमों ब्राह्मण और अब्राह्मण में बंट गया. दोनों के बीच अविश्वास और तनाव की गहरी खाई बन गई है. इसे आपसी बातचीत, परस्पर सम्मान और साझा प्रयासों से दूर किए जाने की जरूरत है. ये आलेख इसी मकसद से लिखा गया है.

इनमें से ज्यादातर समस्याएं याद रखने यानी स्मृतियों से जुड़ी हैं. तमिलनाडु के ब्राह्मणों की यादों में वह दौर ताजा है, जब समाज के हर क्षेत्र में उनका वर्चस्व हुआ करता था और बाकी लोग खुद को उनसे नीचे मानते थे. वह दौर, जब शिक्षा-संस्कृति, धन-संपदा हर क्षेत्र में उनका दबदबा था. द्रविड़ों की यादों में वह दौर बुरे सपने की तरह जिंदा है. उनकी कथा-कहानियों, फिल्मों और गानों में उस दौर की पीड़ा मौजूद है. इसके अलावा द्रविड़ आंदोलन को लेकर जहां ब्राह्मणों में ये भाव है कि इस आंदोलन से उनको कमजोर कर दिया गया, वहीं द्रविड़ों के लिए ये जीत की दास्तान है. आप समझ सकते हैं कि यादों के कितने स्तरों को तमिलनाडु का समाज एक साथ जी रहा है. ऐसा नहीं है कि ये सारी यादें पूरी तीक्ष्णता के साथ मौजूद हैं, लेकिन जितनी यादें बची हैं, वह समाज को कटुतापूर्ण बनाने के लिए काफी है. कड़वाहट की ये निरंतरता टूटनी चाहिए. किसी भी समाज को निरंतर विवादों और झगड़ों में फंसा नहीं रहना चाहिए.


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समाधान ये है कि अतीत को पीछे छोड़ दिया जाए

दुनिया के ज्यादातर देशों और समाजों के निर्माण में ऐसा बहुत कुछ हुआ है जो अच्छा और सुखद नहीं है. तमाम युद्धों, जीत-हार, षड्यंत्रों, संधियों, अत्याचारों के बीच राष्ट्र और समाज बने हैं. लेकिन वे एक देश के रूप में इसलिए बने और टिक पाए कि वहां रहने वाले लोग अतीत की कड़वाहट को भूल पाए. जहां ऐसा नहीं हुआ, वे कृत्रिम राष्ट्र हैं और उन्हें बाहरी बल या अन्य कारणों से जोड़े रखना पड़ता है. फ्रांस के दार्शनिक अर्नस्ट रेनॉन अपने महत्वपूर्ण आलेख राष्ट्र क्या है में ये बताते हैं कि राष्ट्र का मूल तत्व ये है कि उसके लोगों ने अतीत में कुछ साथ मिलकर अच्छा किया है, वे साथ मिलकर आगे भी कुछ अच्छा करना चाहते हैं. इस क्रम में उन्होंने अतीत की उन यादें को भुला दिया है, जो अच्छी या प्रीतिकर नहीं हैं. वे लिखते हैं, “भुला देना या मैं कहूंगा कि ऐतिहासिक भूल किसी राष्ट्र के निर्माण का जरूरी तत्व है. यही वजह है कि इतिहास (की पढ़ाई) पर ज्यादा जोर राष्ट्रीयता के लिए खतरा पैदा कर सकता है.”

यहां रेनॉन इस बात पर जोर दे रहे हैं कि किसी राष्ट्र के अंदर मौजूद विभिन्न समुदाय अगर अतीत में हुई बुरी घटनाओं को सीने से चिपकाए बैठे रहेंगे तो वे आपस में बंधुता कैसे पैदा करेंगे? रेनान स्मृति-लोप की बात नहीं कर रहे हैं बल्कि वे कह रहे हैं कि अतीत का जो अच्छा है उसे समेटकर भविष्य में साथ मिलकर चलने की इच्छा राष्ट्र के निर्माण का अनिवार्य तंतु है.

क्या रेनॉन के इस दार्शनिक सिद्धांत में तमिलनाडु के समाज के समन्वय का रास्ता है. पुरानी कड़वाहट को भूलकर नए रास्ते पर साथ मिलकर चलना क्या मुमकिन हो पाएगा?

मंडेला और मार्टिन लूथर किंग जूनियर से सीखिए

आधुनिक युग में दो बड़े नेता और विचारक ऐसे हुए हैं, जिन्होंने इस बारे में मार्गदर्शन किया है. उन्होंने दिखाया है कि पुरानी कड़वाहट भुलाई जा सकती है. कम से कम इसकी ईमानदार कोशिश तो की ही जा सकती है. इस संदर्भ में हम दक्षिण अफ्रीका के स्वतंत्रता सेनानी और नस्लभेद शासन के बाद के वहां के प्रथम राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला और अमेरिका के सिविल राइट्स मूवमेंट के नेता और अश्वेतों के समान अधिकारों के चैंपियन मार्टिन लूथर किंग जूनियर की बात कर रहे हैं.

दोनों ने निजी जीवन में उत्पीड़क समूहों की क्रूरता और हिंसा देखी, पर जब उनका समय आया तो उन्होंने इसे घृणा में तब्दील नहीं होने दिया, बल्कि सबको साथ लेकर चलने का रास्ता चुना. इन्होंने पुरानी कड़वाहट को भुला दिया और अपने अनुयायियों से भी ऐसा ही करने को कहा. ये रास्ता समन्वय और समझौते का था.

दक्षिण अफ्रीका की नस्लभेद से मुक्ति के बाद जब नेल्सन मंडेला के पास नया दक्षिण अफ्रीका बनाने का मौका आया तो उन्होंने श्वेत लोगों से बदला लेने या उनकी संपत्ति छीन लेने जैसा रास्ता नहीं चुना. हालांकि उनकी पार्टी अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस में काफी लोग इस विचार के थे, पर मंडेला ने सत्य और समन्वय का रास्ता चुना. इस वजह से श्वेत लोगों की जमींदारियां छीन लेने से उस समय परहेज किया गया. इस क्रम में अश्वेत लोगों को क्रमिक तरीके से सक्षम और समर्थ बनाया गया, लेकिन इसमें जोर-जबरदस्ती से परहेज किया गया. इस तरह समाज का पुनर्निर्माण भी हुआ और दक्षिण अफ्रीका जिंबाब्वे की तरह अराजकता का शिकार नहीं बना और न ही पश्चिमी दुनिया की नजर में वह विलेन राष्ट्र की तरह देखा गया. नेल्सन मंडेला ने ऐसे दक्षिण अफ्रीका की कल्पना नहीं की जिसमें श्वेत न हों. बल्कि उन्होंने सतरंगी राष्ट्र की बात की.

इसी तरह मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने अश्वेतों के अधिकारों और समानता के लिए आंदोलन करते हुए उसे कभी श्वेतों के खिलाफ कड़वाहट में तब्दील नहीं होने दिया. उन्होंने हमेशा प्रेम और क्षमा की बात की. उन्होंने कहा, “हमें माफ कर देने की क्षमता पैदा करनी होगी. जो लोग माफ नहीं कर सकते, वे प्रेम नहीं कर सकते.” किंग के लिए माफ कर देना कमजोरी का नहीं, प्रेम का एक साहसिक कृत्य था.

तमिलनाडु का समाज भी अपनी पिछली कड़वाहट भुलाने के रास्ते पर है. वहां सरकार की ज्यादातर योजनाएं सभी वर्गों के लिए हैं. हालांकि इस बात का ध्यान रखा जाता है कि वंचित वर्गों को ऐतिहासिक पिछड़ेपन से मुक्ति दिलाने के लिए विशेष प्रयास किए जाए. वहां द्रविड़ पार्टी का शासन है, लेकिन शासन चलाने में हर वर्ग की हिस्सेदारी है. मिसाल के तौर पर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद में रघुराम राजन और अरविंद सुब्रह्मण्यन जैसे ब्राह्मण जाति के लोग भी हैं, जो अपनी विशेषज्ञता के कारण इस पद पर हैं.

तमिलनाडु के लोगों के लिए सही समय है कि रेनॉन, मंडेला और किंग और ऐसे ही तमाम समन्वयवादियों के दिखाए रास्ते पर चले. इसमें दोनों पक्षों को कुछ कदम आगे या पीछे चलना पड़ सकता है. यही भविष्य का रास्ता है.

(दिलीप मंडल इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व मैनेजिंग एडिटर हैं, और उन्होंने मीडिया और समाजशास्त्र पर किताबें लिखी हैं. उनका ट्विटर हैंडल @Profdilipmandal है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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