बिहार चुनाव के बाद सीट शेयर और वोट शेयर का फर्क फिर से सुर्खियों में है. राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) को उनके वोट शेयर के हिसाब से बहुत कम सीटें मिलीं और तुरंत ही हर जगह कुछ इस तरह की बातें होने लगीं: “भारत में गलत प्रतिनिधित्व का असली कारण यह है कि हम पुरानी एफपीटीपी यानी फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट प्रणाली अपनाते हैं. हमें एक ‘ज्यादा निष्पक्ष’ प्रोपोर्शनल रिप्रेज़ेंटेशन (पीआर) प्रणाली अपनानी चाहिए, जिसमें विधानसभा में असली वोट शेयर के बराबर सीटें मिलें.” लेकिन इज़रायल और पहले इटली के पीआर सिस्टम का अनुभव बताता है कि उसमें भी कई बड़ी समस्याएं हैं.
पीआर सिस्टम वोट शेयर को बराबर सीट शेयर में बदलने को प्राथमिकता देता है. इसमें लोग उम्मीदवार नहीं, बल्कि पार्टी को वोट देते हैं. इज़रायल में, जो भी पार्टी तय न्यूनतम सीमा (अभी 3.25%) से ऊपर वोट पाती है, उसे संसद में प्रतिनिधित्व मिलता है.
भारत एफपीटीपी प्रणाली का प्रयोग करता है. इसमें मतदाता उम्मीदवार को वोट देते हैं. जिसके पास सबसे ज़्यादा वोट होते हैं, वही जीत जाता है. हारने वाले उम्मीदवारों वाली पार्टियों को एक भी सीट नहीं मिलती, भले ही वे हर सीट पर विजेता से सिर्फ एक वोट कम ही क्यों न हों. वोट शेयर और सीट शेयर के बीच असमानता इस सिस्टम की कमज़ोरी नहीं, बल्कि इसकी खासियत है. इसलिए कोई पार्टी 30% वोट पाकर भी बहुमत की सीटें जीतकर सरकार बना सकती है.
पीआर सिस्टम की खामियां
दोनों प्रणालियों पर फैसला करने से पहले, हमें उन तीन समस्याओं को समझना होगा जिन्हें इज़रायल जैसे देशों में देखा गया है.
पहला: चुनाव प्रणाली का असली उद्देश्य
एक पीआर सिस्टम प्रतिनिधित्व को तवज्जो देने के बाद भी अकार्यात्मक भी हो सकता है.
इसके समर्थक सही कहते हैं कि वोट शेयर को सीट शेयर में बदलने में यह एफपीटीपी से ज्यादा निष्पक्ष है. इसके कारण संसद में ज्यादा राजनीतिक पार्टियां भी आ जाती हैं.
लेकिन पीआर सिस्टम की एक और सच्चाई है—हर चुनाव के बाद सरकार बनाने के लिए कई छोटी-छोटी पार्टियों से गठबंधन करना पड़ता है और इन्हीं छोटी पार्टियों के पास सबसे ज्यादा दबाव बनाने की ताकत होती है. इज़रायल की हाल की राजनीतिक लड़खड़ाहट इसका उदाहरण है. कई छोटे अतिवादी दल खुलकर कहते हैं कि वे केवल तभी समर्थन देंगे जब उन्हें खास मंत्रालय दिए जाएं.
भारत जैसा देश—जो इज़रायल से 150 गुना बड़ा है—अगर पीआर अपनाएगा, तो अस्थिर और अकार्यक्षम गठबंधन सरकारें और ज्यादा बढ़ जाएंगी. 20-30 पार्टियों की गठबंधन सरकार बनेगी और छोटे दल दबाव डालेंगे. सरकारें अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाएंगी. इज़रायल में अब तक 25 चुनाव हुए हैं, लेकिन सिर्फ 9 बार सरकारें अपना चार साल का कार्यकाल पूरा कर पाई हैं या उसके करीब पहुंची हैं.
अगर आपको 30% वोट लेकर सरकार बनाना बुरा लगता है, तो सोचिए कि इज़रायल में नेतन्याहू की पार्टी, जो सबसे बड़ी पार्टी है, उसका वोट शेयर सिर्फ 24% है.
वोट शेयर से सीट शेयर की “निष्पक्षता” और एक “स्थिर, काम करने वाली सरकार” के बीच समझौता हमेशा रहेगा और भारत जैसे बड़े और विविध देश में पीआर इस संतुलन को बना पाएगा, इसमें काफी शक है.
चुनाव प्रणाली का मूल उद्देश्य ज़रूरी नहीं कि “अनुपातिक प्रतिनिधित्व” हो—बल्कि एक वैध सरकार बनाना है. एफपीटीपी से चुनी गई भारतीय सरकारों को चुनाव के बाद आमतौर पर जनता ने स्वीकार किया है. हाल के समय में वोटर लिस्ट में जल्दबाज़ी में किए गए बदलावों ने इस भरोसे को ज़रूर हिलाया है, लेकिन सरकार की वैधता पर अभी बड़ा संकट नहीं है. इसलिए फोकस एफपीटीपी सिस्टम को ही ज्यादा पारदर्शी और मज़बूत बनाने पर होना चाहिए.
दूसरा: पार्टी बनाम विधायक
पीआर सिस्टम में विधायक लगभग “रबर स्टाम्प” बन जाते हैं, क्योंकि लोग उम्मीदवारों को नहीं, बल्कि सिर्फ पार्टी को वोट देते हैं. यहां पार्टी सबसे ताकतवर संस्था बन जाती है.
भारत में राजनीतिक पार्टियां पहले से ही बहुत ज्यादा शक्तिशाली हैं—चाहे वह एंटी-डिफेक्शन कानून हो या इलेक्टोरल बॉन्ड्स. पीआर सिस्टम अपनाने से विधायक और जनता के बीच जो थोड़ी-बहुत सीधी कड़ी है, वह भी खत्म हो जाएगी.
तीसरा: अतिवादी समूहों का केंद्र में आ जाना
भारत जैसे विविध देश में, सफल पार्टियों को 30-40% वोट पाने के लिए बहुत बड़े और विविध समूहों को साथ लेना पड़ता है.
लेकिन पीआर सिस्टम में पार्टियों को ऐसा करने की ज़रूरत नहीं है. अगर कोई पार्टी सिर्फ एक छोटे, सीमित वोटर समूह को खुश करके अपनी कुछ सीटें पक्की कर सकती है, तो वह “किंगमेकर” बन सकती है—जैसे इज़रायल में होता रहा है.
इससे छोटे-छोटे कट्टरपंथी समूह भी वैधता पा सकते हैं—जो भारत के लिए वर्तमान समय में बिल्कुल भी अच्छा नहीं होगा.
वैधता सुनिश्चित करने पर ध्यान दें
ये तीनों मुद्दे दिखाते हैं कि पीआर सिस्टम हमें और भी खराब स्थिति में पहुंचा सकता है. बेशक, पीआर और एफपीटीपी के बीच यह बहस नई नहीं है. कुछ देशों, जैसे जर्मनी, ने एक मिक्स्ड-मेंबर सिस्टम अपनाया है जिसमें मतदाता दो वोट डालते हैं—एक अपने विधायक के लिए (जो एफपीटीपी से जीतना ज़रूरी है) और दूसरा एक पार्टी लिस्ट के लिए (जिसके आधार पर अनुपात में सीटें मिलती हैं). लेकिन एक बात तय है: हर विकल्प ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य पर निर्भर होता है और हर विकल्प में कुछ न कुछ कमी ज़रूर रहती है.
पीआर की ओर बिना सोचे-समझे झुकाव एक बड़ी समस्या का छोटा उदाहरण है, जिसे मैं ‘परिस्थिति की तानाशाही’ कहता हूं. जो प्रणाली हमारे पास है, वह हमें इसलिए खराब लगने लगती है क्योंकि हम उसकी कमज़ोरियों को बहुत अच्छी तरह जानते हैं. दूसरी तरफ, किसी दूसरे देश का सुधार इसलिए आकर्षक लगता है क्योंकि हम उसे ठीक से समझते ही नहीं हैं.
सिर्फ पीआर सिस्टम अपनाने से बेहतर शासन मिलने की गारंटी नहीं है. इसके कुछ फायदे हैं, पर कई मामलों में यह हालात और खराब भी कर सकता है. चाहे एफपीटीपी हो या पीआर—हमें उन कठिन मुद्दों पर ध्यान देना चाहिए जो मतदाताओं की नज़र में चुनाव प्रक्रिया की वैधता को बढ़ा सकते हैं: चुनाव आयोग की स्वतंत्रता सुनिश्चित करना, एंटी-डिफेक्शन कानून खत्म करना और चुनावी भ्रष्टाचार को बढ़ाने वाली प्रलोभनों को कम करना.
(प्रणय कोटस्थाने बेंगलुरु के तक्षशिला इंस्टीट्यूशन में रिसर्चर हैं. विचार उनके निजी हैं.)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: बिहार चुनाव नतीजे असम, बंगाल, तमिलनाडु और केरल में BJP की संभावनाओं के बारे में क्या बताते हैं
