एअर इंडिया के निजीकरण का पूरा देश जिस तरह स्वागत कर रहा है उससे जाहिर है कि उसमें वाकई कोई बुनियादी गड़बड़ी थी. यह वह देश है जहां अरुण शौरी को दो दशक बाद आज भी एअर इंडिया से कम महत्वपूर्ण कंपनियों के निजीकरण की शर्तों के बारे में सवालों के जवाब देने पड़ रहे हैं. इसके विपरीत, कभी आदर्श एयरलाइन मानी गई एअर इंडिया की बिक्री पर आज किसी भी रंग की राजनीतिक जमात की ओर नगण्य आलोचना हो रही है, सिवाय लाल दलों की ओर से मचाए जा रहे कमजोर-से शोर या कंपनी के कुछ कर्मचारियों की चिंताओं की परंपरागत अभिव्यक्ति के—परंपरागत इसलिए कि उन्हें यह जान कर काफी राहत हुई होगी कि उनका वेतन बदस्तूर जारी रहेगा.
एयरलाइन में ऐसी क्या गड़बड़ी थी कि लगातार 15 साल से वह घाटा उठा रही थी. दूसरी सरकारी कंपनियों का भी ऐसा हाल होगा लेकिन किसी को शायद ही इतना घाटा हो रहा होगा कि उसे इस एयरलाइन की तरह गलत अर्थों में खरबपति कहा जा सके. एअर इंडिया का कुल घाटा एक खरब रुपये के 4/5वें भाग के बराबर है, और रोजाना उसे 20 करोड़ का घाटा हो रहा था. इसलिए ठोस वामपंथियों को भी समझ में आ गया होगा कि यह एयरलाइन तो रनवे के अंतिम छोर पर पहुंच चुकी थी और वह उड़ान भरने के काबिल नहीं रह गई थी. हवाई अड्डों पर खाली पड़े अपने स्थानों, खारिज किए जाने लायक करीब 100 बदहाल विमानों और कर्मचारियों को मुआवज़ा देकर उनसे छुट्टी पाने की जरूरत के कारण कॉर्पोरेट पाताल में धंसने की पूरी आशंका पैदा हो गई थी. यानी भारी मारकाट और शर्मिंदगी मुंह बाये खड़ी थी.
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टाटा की पेशकश से सरकार ने कितनी राहत महसूस की यह इसी से साफ है कि एयरलाइन के हस्तांतरण के दिन प्रधानमंत्री ने टाटा समूह के अध्यक्ष एन. चन्द्रशेखरन को मुलाक़ात का समय दिया. उधर वित्त मंत्रालय के अधिकारी इस हिसाब-किताब में लगे थे कि कंपनी पर 61,000 करोड़ रु. का जो कर्ज बकाया है उसका भुगतान करने के लिए पैसे का इंतजाम कैसे किया जाए. सरकार के पास उड्डयन से इतर 14,000 करोड़ की परिसंपत्तियां बची हैं, बिक्री के रूप में 2,700 करोड़ की नकदी है (एयरलाइन की 18,000 करोड़ रु. की कीमत का बाकी हिस्सा कर्ज के रूप में है जिसे टाटा ने भुगतान करने पर रजामंदी दी है.)
बाकी 44,000 करोड़ रु. के कर्ज की वास्तव में माफी को अपनी जीत बताया जा रहा है. इसका विकल्प जो है उसके मद्देनजर इसे यही माना भी जा सकता है. जिस सौदे पर बिक्रेता और खरीदार, दोनों जश्न मना रहे हों वह एयरलाइन और उसके हाल के इतिहास के बारे में बहुत कुछ कहता है.
इसलिए, इस पूरी तस्वीर में टाटा समूह के पदार्पण पर सरकार तो खुश है मगर कोई उस शख्स, प्रफुल्ल पटेल की टिप्पणी भी तो ले जिन्होंने इस एयरलाइन को पतन के रास्ते पर धकेला और जो मुंह पर ताला लगाए बैठे हैं. मनमोहन सिंह सरकार में नागरिक उड्डयन मंत्री रहे पटेल ने ही एअर इंडिया और इंडियन एयरलाइन्स के विलय पर ज़ोर दिया था जिसके विनाशकारी नतीजे निकले क्योंकि अपेक्षित तालमेल नहीं बन सका. हाल के दिनों में उनसे भारी संख्या में विमान खरीदने के आदेश देकर एयरलाइन के खाते पर भारी बोझ डालने के लिए सवाल पूछे गए थे. इसके बाद ये कहानियां भी सामने आईं कि एक निजी एयरलाइन की खातिर प्राइम स्लॉट खाली किए गए. एक समय विजय माल्या ने अब निष्क्रिय हो चुकी एयरलाइन को अंतरराष्ट्रीय रूटों पर चलाना चाहते थे और उन्होंने मंत्री महोदय पर किसी दूसरी एयरलाइन के लिए काम करने का आरोप लगाया था. इस पर पटेल ने नाराजगी भरा जवाब दिया, जिसकी माल्या की किंगफिशर ने पुष्टि नहीं की.
एअर इंडिया अब टाटा की घाटा उठा रही कंपनियों में शामिल हो जाएगी. एन. चन्द्रशेखरन के नेतृत्व में टाटा समूह के कामकाज और सोद्देश्यता में सुधार हुआ है लेकिन इसकी कामधेनु टीसीएस के सिवा पूरा समूह तीन साल से कर्ज में है. इस साल यह स्थिति बदल सकती है क्योंकि इस्पात की कीमत में तेजी के कारण टाटा स्टील टीसीएस से भी ज्यादा मुनाफा दिखा सकती है. इसके अलावा, एअर इंडिया कुछ समय तक घाटा भी दे तो घाटे का अनुपात जल्दी कम हो सकता है. ब्याज का बोझ कम होना चाहिए, बाकी कर्जों की लागत भी घटनी चाहिए, और समूह की दूसरी एयरलाइन्स के साथ तालमेल से ज्यादा सीटों को भरने में आसानी हो सकती है. बोनस के रूप में टाटा समूह को यह फायदा दिख सकता है कि मंत्री लोग अब उस पर खुला हमला नहीं कर रहे हैं.
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