शायद कोलकाता जैसी कोई अन्य प्रांतीय राजधानी नहीं होगी. जहां का कुलीन वर्ग ज़िलों से इतना अधिक कटा हुआ हो. पश्चिम बंगाल में 2016 के विधानसभा चुनावों के दौरान राज्य में घूमते हुए फर्क साफ दिख रहा था. कोलकाता के आभिजात्य भद्रलोक को लगा था माकपा-कांग्रेस गठजोड़ प्रभावशाली साबित होगा और शायद ममता बनर्जी को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा. आखिरकार, जनता तृणमूल कैडरों से, उनकी हिंसा और गुंडई से ऊब जो चुकी थी.
पश्चिम बंगाल की राजनीति में हिंसा और गुंडई उतनी ही सहज है, जितनी उसके सांस्कृतिक जीवन के लिए टैगोर. कोलकाता के बाहर लोगों ने खुलकर बताया था कि उन्हें एक पार्टी के रूप में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) से घृणा है, पर ममता बनर्जी पर उन्हें भरोसा है. दीदी खुद ही कभी नरमी तो कभी सख्ती दिखाते हुए इस द्वंद्व को बढ़ावा देती हैं. टीएमसी कैडरों का आतंक ऐसा था कि लोग एक बाहरी गैर-बंगाली पत्रकार से राजनीति की चर्चा करने तक से कतरा रहे थे. भारत के किसी भी अन्य राज्य में केरल समेत चुनावों में इतनी दखलअंदाज़ी और पक्षपात देखने को नहीं मिलता.
इसलिए आश्चर्य नहीं कि कुछ लोगों खास कर युवकों की दिचलस्पी एक वास्तविक विपक्ष में थी. वामपंथी और कांग्रेस साथ मिलकर भी टीएमसी को चुनौती देने के काबिल नहीं दिख रहे थे. उनके पास ऐसा कोई नेता नहीं था. जिस पर कि लोग भरोसा कर सकें. बंगाल ने हमेशा से ही मज़बूत नेताओं में यकीन किया है. सुभाषचंद्र बोस से लेकर ज्योति बसु या फिर ममता बनर्जी तक.
टीएमसी को नापसंद करने वाले ग्रामीण युवकों का कहना था कि उन्हें पता है कि उन्हें नेता के रूप में कौन चाहिए. नरेंद्र मोदी, पर तब राज्य में एक पार्टी के रूप में भाजपा की उपस्थिति नाम मात्र की ही थी. मोदी के इन प्रशंसकों से जब मैंने जानना चाहा था कि राज्य के विधानसभा चुनावों में भाजपा कमज़ोर क्यों है, तो एक आम जवाब ये था कि ‘उनके पास दादालोग नहीं हैं. जिस दिन उन्हें दादालोग मिल गए, वे जीत जाएंगे.’
विरोधियों को खोखला करना
और ठीक ऐसा ही हुआ 2019 के लोकसभा चुनावों में. भाजपा ज़मीनी राजनीति करना सीख गई, पश्चिम बंगाल शैली की राजनीति, राजनीतिक हिंसा में भागीदारी करते हुए, जैसे को तैसा की तर्ज पर जवाब देते हुए.
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टीएमसी को लोकसभा चुनावों में पटखनी नहीं दी जा सकी. उसने 12 सीटें गंवाई, फिर भी उसने राज्य की 42 लोकसभा सीटों में से सम्मानजनक 22 सीटें हासिल की. दूसरी ओर भाजपा ने 2014 के मात्र 2 के मुकाबले इस बार 18 सीटें जीत कर सबको चौंका दिया. फिर भी, ये ‘मोदी नहीं तो कौन?’ के कथानक पर लड़ा गया राष्ट्रीय चुनाव था. और निश्चय ही 2021 में इस तरह की दलील का फायदा ममता बनर्जी को मिलना चाहिए. क्योंकि भाजपा खेमे में मुख्यमंत्री पद का कोई विश्वसनीय उम्मीदवार नहीं है.
पर भाजपा को शायद मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार की ज़रूरत ही ना पड़े. मोदी पर लोगों का इतना अधिक भरोसा है, जैसा कि कई राज्यों में हम देख चुके हैं, कि लोग मोदी नियुक्त किसी भी मुख्यमंत्री से संतुष्ट हो जाते हैं. पश्चिम बंगाल में भाजपा की रणनीति वैसी ही है जो कि उसने त्रिपुरा में अपनाई थी. उसने पहले ही वामदलों को खोखला कर दिया है, उनके कैडरों को लुभा कर, रातोंरात कम्युनिस्टों को हिंदुत्व समर्थकों में बदल कर. अब एक पार्टी के रूप में तृणमूल कांग्रेस को खोखला करने पर उसका ध्यान है और तृणमूल के दिग्गज नेता रहे मुकुल राय इसके लिए सही व्यक्ति हैं. बंगाल में उनकी भूमिका वही है. जो पूर्वोत्तर में हिमंत विश्व शर्मा की.
ममता बनर्जी के पक्ष में जो एक बात है वो है समय या ये भी नहीं? किसी मुख्यमंत्री के लिए अपनी छवि बदलने, अपने नौसिखे प्रतिद्वंद्वी से निपटने और बाजी पलटने के लिए दो साल का वक्त काफी होता है. जहां तक अग्रिम चेतावनी की बात है तो ये ममता बनर्जी को कुछ ज़्यादा ही दिन रहते मिल गई है.
समस्या ये है कि वह शायद वापसी नहीं कर पाने के बिंदु तक पहले ही पहुंच चुकी हैं और उनकी स्थिति निरंतर कमज़ोर होती जा रही है. लोकसभा चुनावों के नतीजे नहीं, बल्कि उसके बाद के घटनाक्रम इस बात को जाहिर करते हैं कि ममता बनर्जी नियंत्रण खो रही हैं. वह 2011 के यूपीए-2 के समान ही अक्षम नज़र आती हैं और याद रहे कि यूपीए-2 ने अगले तीन वर्षों तक अपनी स्थिति को बद से बदतर ही बनाया था.
विचारों की दरिद्रता
ममता बनर्जी का पतन पिछली गर्मियों में हुए पंचायती चुनावों से शुरू हुआ था. चुनाव इतने लोकतांत्रिक और हिंसक रहे कि एक तिहाई सीटों पर विजेता निर्विरोध चुने गए थे. जिनके खिलाफ किसी ने चुनाव लड़ने की हिम्मत नहीं दिखाई थी. यदि बिना सेफ्टी वाल्व वाले किसी प्रेशर कूकर को अधिक गर्म किया जाए तो उसका फटना तय है.
ममता बनर्जी की सबसे बड़ी नाकामी उनका अंहकार या टीएमसी कैडरों को काबू में नहीं रख पाना या भाजपा की ताकत को कम आंकना या मुस्लिम पहचान की राजनीति को लेकर उनका उत्साह नहीं है. ये सब बातें सच हैं पर उनकी सबसे बड़ी नाकामी रही है. पश्चिम बंगाल में नए तरह की राजनीति की कल्पना नहीं कर पाना. 2016 में लगातार दूसरे कार्यकाल के लिए प्रचंड बहुमत से जीतने के बाद ममता बनर्जी ने शासन के माकपा के तौर-तरीकों को भुलाने की ज़रूरत नहीं समझी.
उन्होंने वाम मोर्चे को हराने के लिए, उसके 34 वर्षों के अबाध शासन को खत्म करते हुए, उनके ही तौर-तरीकों का इस्तेमाल किया था. उन्होंने उनके कैडरों को अपनी तरफ किया, उन्हें राजनीतिक हिंसा में भाग लेने दिया, शासन का राजनीतिकरण किया, विरोधियों को आड़े हाथों लिया और चुनावों में हेराफेरी की. इन तरीकों से ही वामपंथियों ने पश्चिम बंगाल पर 34 वर्षों तक राज किया था और इन्हीं के सहारे तृणमूल कांग्रेस राज्य में पिछले आठ वर्षों से सत्तारूढ़ है और इनके ज़रिए ही भाजपा राज्य की सत्ता पर कब्ज़ा करना चाहती है.
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बेशक, भाजपा बंगाल में कतिपय उन अवधारणाओं पर काम करेगी. जिन्हें कि अभी तक राज्य में उतना महत्व नहीं मिला है. मसलन धार्मिक झगड़े और जातीय विभाजन पर राज्य की राजनीति कुल मिलाकर हिंसक और अलोकतांत्रिक बनी रहेगी. ममता बनर्जी को 2011 से 2018 तक राज्य में खुली छूट मिली हुई थी. यही वो वक्त था. जब वह पश्चिम बंगाल की राजनीति संस्कृति की पुनर्कल्पना कर सकती थीं और उन्हें ऐसा करना भी चाहिए था. इस काम को अब शुरू करने में शायद बहुत देर हो चुकी है.
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(व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)