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Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतबजट में लुभावने वादों से परहेज बताता है कि सरकार चुनावी जीत को लेकर बेफिक्र है

बजट में लुभावने वादों से परहेज बताता है कि सरकार चुनावी जीत को लेकर बेफिक्र है

अंतरिम बजट में ‘पीएम किसान योजना’ के तहत दिए जाने वाले उपहार में दोगुना बढ़ोतरी की जा सकती थी. ऐसा नहीं करना बताता है कि भाजपा को अपनी जीत का पूरा भरोसा है; दूसरे, उसका मानना है कि इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास जैसी चीजें ज्यादा कारगर होंगी

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आम चुनाव से पहले वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने जो अंतरिम बजट पेश किया उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि क्या है यह ढूंढने के लिए आप उसका गहन अध्ययन भी कर डालें तो आपको कोई सफलता हाथ नहीं लगेगी.

वैसे, इसकी सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें से कथित ‘पॉपुलिज़्म’ (लोकलुभावनवाद) गायब है. कोई रियायत नहीं, जनकल्याण की कोई योजना नहीं, करों में कोई कटौती नहीं, कोई छूट नहीं, कुछ भी नहीं.

इसलिए, इस बजट को आप आम चुनाव की तारीखों की घोषणा से एक महीना पहले ही चुनाव में अपनी जीत के ऐलान के रूप में पढ़ सकते हैं.

यह कुछ-कुछ वैसा ही है जिसकी उम्मीद हम जैसे पुराने लोगों ने छोड़ दी है. बाद की पीढ़ियों ने या 1989 के बाद से मतदाता बनने वालों ने ऐसा सपाट बजट नहीं देखा होगा. यह सपाटपन चुनावी आत्मविश्वास का बयान है और यही इस बजट का मुख्य संदेश भी है.

कुछ अरसा बीत गया जब चुनाव से पहले का बजट नव-निर्वाचित सरकार द्वारा पूर्ण बजट पेश किए जाने तक सरकारी कामकाज जारी रखने भर के खर्चे जुटाने के लिए लेखानुदान बजट हुआ करता था. धीरे-धीरे इस लेखानुदान बजट ने अंतरिम बजट का रूप ले लिया.

आज वित्तमंत्री के बयान की तुलना 2019 के चुनाव से पहले पीयूष गोयल द्वारा पेश किए गए बजट से कीजिए. उस बजट में ‘पीएम किसान’ नामक जनकल्याण योजना शुरू की गई थी, जिसकी वित्तीय लागत जितनी बड़ी थी उतना ही बड़ा उसका राजनीतिक प्रभाव पड़ने वाला था. उस बजट में आयकर के कई स्लैबों में वृद्धि करके राहत दी गई थी, मतदाताओं के हक़ में कई और बदलाव किए गए थे.

लेकिन आज जो अंतरिम बजट पेश किया उसमें ऐसा कुछ भी नहीं है. सौर ऊर्जा के लिए छतों पर सोलर पैनल लगाने की योजना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा समारोह में ही कर दी थी. बाकी सब उसके आगे की कड़ियां और मौजूदा योजनाओं का विस्तार हैं (मसलन गरीबों के लिए आवास).

वैसे, लोकलुभावनवाद भले गायब हो, राजनीति गायब नहीं है. मोदी सरकार ऐसा कुछ कहती या करती नहीं है जिसमें राजनीति न हो. यहां गौरतलब बात यह है कि भाजपा को जिन दो अहम मुद्दों— सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता— पर सबसे ज्यादा हमला किया जाता है उसका जोरदार जवाब दिया गया है. सामाजिक न्याय का तीन बार जिक्र किया गया है, जबकि धर्मनिरपेक्षता का एक बार. विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ का नया अभियान जाति आधारित सामाजिक न्याय के इर्दगिर्द बुना गया है, जिसके साथ जातीय जनगणना कराने और उसके आधार पर हर एक समूह को उसकी आबादी के अनुपात में लाभों का वितरण करने के वादे किए जा रहे हैं.

इसके जवाब में भाजपा ने पहला राजनीतिक कदम उठाते हुए नीतीश कुमार को अपने पाले में खींच लिया है, जिन्हें जातीय जनगणना के मामले में ‘मैन ऑफ द मैच’ माना जाता है. बजट में, सामाजिक न्याय को बिलकुल अलग अर्थ देने की कोशिश की गई है. विकास की “सर्वांगीण, सर्वव्यापी, और सर्व-समावेशी” परिभाषा देते हुए इसमें कहा गया है कि यह “सभी जातियों और सभी स्तरों के लोगों” के लिए होना चाहिए. इसे थोड़ा और विस्तार देते हुए कहा गया है कि “पहले, सामाजिक न्याय केवल एक राजनीतिक नारा था”.

सीतारमण ने कहा कि उनकी सरकार के लिए “सामाजिक न्याय शासन का एक प्रभावी और जरूरी मॉडल है” और “सभी योग्य लोगों को इसमें शामिल करना ही सच्चा तथा संपूर्ण सामाजिक न्याय है”.

इसी व्याख्या में धर्मनिरपेक्षता को भी शामिल कर दिया गया है. उन्होंने कहा, “यही धर्मनिरपेक्षता का अमली रूप है”. भारतीय राजनीति पर लंबे समय से नजर रखने वाला व्यक्ति इसे इस खांचे में रख सकता है : जहां मोदी-शाह की भाजपा सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता को जोड़कर देखती है और दोनों के जवाब में अपना नारा “सबका साथ, सबका विकास” देती है.

यह सोच-समझकर अपनाया गया राजनीतिक सुर है. सीतारमण ने कहा, “संसाधनों का न्यायोचित बंटवारा किया जाता है. समाज में चाहे किसी का कोई भी दर्जा हो, अवसरों के दरवाज़े सबके लिए खुले हैं”. विचार यही है कि “उन व्यवस्थागत असमानताओं को खत्म किया जाए जिन्होंने समाज को जकड़ रखा है”. राजनीतिक सुर यह है कि पहचान को सामाजिक-आर्थिक हैसियत और राष्ट्रीय संसाधनों की भागीदारी से अलग किया जाए.

इस क्षेत्र के विशेषज्ञ और अर्थशास्त्री आंकड़ों पर गौर करेंगे. मुझे तो सकारात्मक और महत्वपूर्ण बात यह लगती है कि एक सरकार इन्फ्रास्ट्रक्चर, भौतिक और आभासी संपत्तियों के निर्माण के अपने एक रेकॉर्ड के साथ चुनाव लड़ने जा रही है, और नये साल के लिए एक बड़ा आवंटन कर रही है. इन्फ्रास्ट्रक्चर अगर वोट दिलाने वाला मुद्दा बनता है तो यह भारतीय राजनीतिक के लिए महत्वपूर्ण सकारात्मक बात होगी.

इस बात पर गौर कीजिए. इसी बजट में ‘पीएम किसान योजना’ के तहत दिए जाने वाले उपहार में दोगुना बढ़ोत्तरी की जा सकती थी. ऐसा नहीं किया गया, यह तीन बातें बताती है. एक तो यह कि भाजपा को अपनी जीत का पूरा भरोसा है, और वह बेफिक्र तक है. दूसरे, उसका मानना है कि इन्फ्रास्ट्रक्चर, ज्यादा शिक्षण संस्थाएं और उद्यमियों के लिए आसान कर्ज़ जैसी चीजें ज्यादा कारगर होंगी. और तीसरे, चुनावी वर्ष में भी उसने वित्तीय सावधानी बरतने से परहेज नहीं किया है.

इसी वजह से सरकार की एक और अहम उपलब्धि यह है कि वह न केवल वित्तीय घाटे के बारे में अपने वादे को पूरा करने का श्रेय ले पा रही है, बल्कि इसे थोड़ा और कम करने की उम्मीद भी जता रही है. किसी चुनावी वर्ष में इसकी उम्मीद नहीं की जाती क्योंकि ऐसे मौके पर तो खुल कर खर्च किए जाने की अपेक्षा की जाती है, और कहा जाता है कि वित्तीय अनुशासन की फिक्र अगले साल कर लेंगे.

लेकिन बेशक दूसरे पहलू भी हैं, और वे सब सकारात्मक नहीं हैं. हमारे विचार से, सबसे बड़ी नकारात्मक बात यह हो सकती है कि सरकार विनिवेश में दिलचस्पी खो रही है.

पिछले लक्ष्य अधूरे पड़े हैं, और नये लक्ष्य ऊंचे नहीं हैं. कहा जा सकता है कि सरकारी उपक्रमों का मूल्यांकन और उनकी शेयर कीमतों में वृद्धि हुई है तो उन्हें बेचा क्यों जाए. लेकिन जब उनकी शेयर कीमतें गिरी हुई होती हैं तब यही बहाना बनाया जाता है कि कम कीमतों में क्यों बेचना? हम उनके बढ़ने का इंतजार करें.

यह कहने का लालच हो सकता है, और मैं यह निष्कर्ष निकाल सकता हूं कि इस भाजपा में भी निजीकरण को लेकर वैचारिक प्रतिबद्धता उतना ही कम है जितनी अटल बिहारी वाजपेयी की थी. सारी सरकारें कारोबार के खिलाफ बोला करती हैं लेकिन उन्हें कारोबार में मजा भी आता है. कहा जाए, तो सैद्धांतिक रूप से यही वह सुधार है जिसका भारतीय राजनीति को अभी भी इंतजार है. दो कार्यकाल पूरा कर चुकी, पूर्ण बहुमत वाली इस सरकार के अनुभवों से तो यही जाहिर होता है कि यह इंतजार और लंबा ही होने वाला है.

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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