अयोध्या में आम आदमी पार्टी की ‘तिरंगा यात्रा’ दो बातों को रेखांकित करती है- अरविंद केजरीवाल नई दिल्ली से आगे पार्टी के विस्तार के लिए एकदम व्यग्र हैं, और उतना ही ज्यादा उनमें इस सोच का अभाव भी है कि इसे कैसे किया जाना चाहिए.
दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने राज्यसभा सांसद और उत्तर प्रदेश में आप के प्रभारी संजय सिंह के साथ मंगलवार को ‘तिरंगा यात्रा’ शुरू की, जिसमें सिसोदिया ने घोषित तौर पर कहा कि ‘राम राज्य ही शासन की सबसे अच्छी अवधारणा थी.’
डिप्टी सीएम ने कहा, ‘हम एक ऐसी सरकार बनाएंगे जो भगवान राम के बताए आदर्शों पर चलती हो. हम श्री रामचंद्र जी का आशीर्वाद लेंगे, तिरंगा फहराएंगे (और) वास्तविक राष्ट्रवाद सिखाएंगे.’
अब जबकि अगले लोकसभा चुनाव में तीन साल से भी कम का समय बचा है और तमाम विपक्षी दल नरेंद्र मोदी और उनकी टीम के खिलाफ बिगुल फूंकने वाली ब्रिगेड की अगुआई करने की जुगत भिड़ा रहे हैं, केजरीवाल जानते हैं कि व्यापक स्तर पर अपनी उपस्थिति का अहसास कराने और खुद को एक ऐसे नेता के तौर पर स्थापित करने का समय तेजी से निकलता जा रहा है, जो किसी एक राज्य- खासकर जो राष्ट्रीय राजनीति में प्रभाव से ज्यादा प्रतीकात्मक तौर पर ज्यादा अहम है- तक ही सीमित नहीं है. इसलिए उन्होंने हाई-वोल्टेज राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व पर जोर देने की दिशा में कदम बढ़ाया है.
इससे पता चलता है कि आम आदमी पार्टी यह आकलन करने में भी अक्षम है कि किस तरह की बातें उसके लिए मोदी से मुकाबले और दिल्ली से बाहर अपनी छाप छोड़ने में मददगार साबित होंगी. भाजपा की पसंदीदा उक्तियों- धर्म और राष्ट्रवाद के जबर्दस्त कॉकटेल- का सहारा लेना और पार्टी का उसके ही तौर-तरीकों से मुकाबला करना, शायद ही विवेकपूर्ण, रचनात्मक या फायदेमंद कोशिश साबित हो पाए. एक ऐसी पार्टी जो कभी मतदाताओं के दिलो-दिमाग पर एकदम छा गई और अपनी विशिष्ट शैली के बलबूते राष्ट्रीय राजधानी की सत्ता तक पहुंची, उस आम आदमी आदमी पार्टी में अपने विस्तार को लेकर समझ का अभाव निराशाजनक है.
विस्तार आप के लिए एक मजबूरी
मैंने पहले भी तर्क दिया है कि कैसे अरविंद केजरीवाल और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी सबसे मुखर विपक्षी नेता हैं, जो हर कदम पर मोदी सरकार से मुकाबले में डटे हुए हैं. जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं, हर महत्वाकांक्षी क्षेत्रीय नेता मोदी-शाह की जोड़ी के खिलाफ विपक्षी एकजुटता की अगुआई का जिम्मा संभालने का इच्छुक नजर आ रहा है.
हालांकि, सीमित राजनीतिक उपस्थिति केजरीवाल के लिए कमजोरी साबित हो रही है. यद्यपि ममता बनर्जी, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाई.एस. जगन मोहन रेड्डी, समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव और राष्ट्रीय जनता दल के तेजस्वी यादव सभी का जादू सिर्फ एक राज्य तक ही सीमित है लेकिन अंतर यह है कि उनके संबंधित राज्य महज सात सीटों वाली दिल्ली की तुलना में लोकसभा में ज्यादा सीटें रखते हैं.
अरविंद केजरीवाल की तरफ से पूर्व में हरियाणा और गोवा में पार्टी के विस्तार की कोशिशें किए जाने का कोई नतीजा नहीं निकला, जबकि पंजाब में पार्टी का प्रदर्शन राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से उतना ध्यान आकृष्ट नहीं कर पाया जितनी उम्मीद की गई होगी.
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अगले कुछ साल अहम हैं. आप कई चुनावी राज्यों- गोवा, पंजाब, गुजरात और उत्तर प्रदेश में खुद को एक खिलाड़ी के तौर पर दिखाना चाहती हैं. अरविंद केजरीवाल यह बात तो अच्छी तरह समझते ही होंगे कि उन्हें सभी राज्यों में बड़ी संख्या में सीटें हासिल करने की अति महत्वाकांक्षा नहीं पालनी चाहिए. विश्वसनीयता के साथ प्रदर्शन सबसे जरूरी है—ताकि इसे एक ऐसी पार्टी के तौर पर गंभीरता से लिया जाने लगे जो केवल दिल्ली ही नहीं बाहर भी अपने पंख फैला रही है.
सबका पसंदीदा रास्ता बना
हालांकि, दुर्भाग्य से आम आदमी पार्टी भी उसी राह को चुन रही है जो अब मोदी की भारतीय जनता पार्टी को हराने के लिए अधिकांश विपक्षी दलों की तरफ से अपनाया जाने वाला और पसंदीदा रास्ता बन चुका है.
मोदी और शाह ने धर्म और राष्ट्रवाद को लेकर निश्चित तौर पर भारतीय राजनीतिक विमर्श को इस कदर बदल दिया है कि विपक्षी दलों को विकल्प खोजने के बजाये एक ही भाषा बोलने पर बाध्य होना पड़ रहा है.
राहुल गांधी की ‘जनेऊधारी ब्राह्मण’ वाली घोषित स्थिति से लेकर ममता बनर्जी के श्लोकों के उच्चारण तक—विपक्ष ने नरम-हिंदुत्व अपनाने से लेकर खुलकर इसकी ब्रांडिंग करने तक कोई कसर नहीं छोड़ी है.
हालांकि, भाजपा ने हिंदुत्व-राष्ट्रवाद के नुस्खे में महारत हासिल कर ली है, और ऐसी उक्तियों को इस्तेमाल करने में कोई भी उसका मुकाबला नहीं कर सकता है. हालांकि, अरविंद केजरीवाल की आप काफी बेहतर कर सकती है. लेकिन दिल्ली में ‘देशभक्ति पाठ्यक्रम’ और शहर भर में झंडे लगाने के लिए अच्छा-खासा बजट निर्धारित करना यह दिखाता है कि मुख्यमंत्री एकदम आंखें मूंदकर भाजपा के नक्शेकदम पर चलने की कोशिश करे हैं, जैसा कि पिछले साल उन्होंने खुद को ‘सच्चा हिंदू’ बताकर भी किया था.
केजरीवाल की शुरुआत
याद कीजिए कि कैसे पार्टी ने अचानक दिल्ली में सत्ता के शीर्ष पर पहुंचकर सबको हैरानी में डाल दिया था और फिर मोदी की लोकप्रियता या अमित शाह की ताकत के आगे इसे कमजोर नहीं पड़ने दिया. केजरीवाल ने मतदाताओं के बीच उस जनभावना को भुनाया जिस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता था और भ्रष्टाचार विरोधी, स्वच्छ शासन और लोगों के आंदोलन को अपनी पहचान बना लिया. इसने पिछले एक दशक में भारतीय राजनीति में सबसे बड़ी सफलता की कहानी रच डाली.
मतदाता अरविंद केजरीवाल को इसलिए नहीं पसंद करते क्योंकि वह एक ‘अच्छे हिंदू’ हैं, बल्कि इसलिए करते हैं कि उन्होंने व्यवस्था से तंग आ चुके ‘आम आदमी’ के विचार को कुछ नए और अलग अंदाज में सामने रखा जिसने झाड़ू ली है, और एक नए युग की शुरुआत कर रहा है. उनकी राजनीतिक शैली में एक नयापन है, भले ही आप के शासन के तरीके में एक अनाड़ीपन क्यों न झलकता हो. दिल्ली के बाहर जनमानस के बीच केजरीवाल को उनके ‘मैं-भी-हिंदू-हूं’ वाले नजरिये के बजाये उनकी तरफ से शुरू की गई अनोखी शैली या ‘आम आदमी’ वाली सरकार का संदेश देने के कारण अपनाए जाने की संभावना ज्यादा है.
यह बहुत अफसोस की बात है कि किसी ऐसी पार्टी, जिसने अतीत में साहसिक रुख अपनाकर राजनीतिक में एक नया प्रयोग करके दिखाया, को राष्ट्रवाद और हिंदुत्व का मिलाजुला मार्ग अपनाने के लिए बाध्य होना पड़ रहा है. भाजपा ने भले ही राजनीति का व्याकरण बदलकर रख दिया हो लेकिन केजरीवाल के पास अपने ही अंदाज में इसका मुकाबला करने की ताकत जरूर है. निश्चित तौर पर उनकी विशिष्ट शैली ही कोई अंतर ला पाएगी, और आम आदमी पार्टी को राष्ट्रीय परिदृश्य में सही मायने में स्थापित कराने में मददगार साबित होगी.
(व्यक्त विचार निजी हैं)
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