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सोमवार, 21 अप्रैल, 2025
होममत-विमतअनेक कांग्रेसी पार्टी नेतृत्व पर प्रणब मुखर्जी के विचारों से सहमत होंगे, लेकिन वे मुंह नहीं खोलेंगे

अनेक कांग्रेसी पार्टी नेतृत्व पर प्रणब मुखर्जी के विचारों से सहमत होंगे, लेकिन वे मुंह नहीं खोलेंगे

पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अपने संस्मरणों की आगामी तीसरी किस्त में लिखा है कि सोनिया गांधी पार्टी मामलों को संभालने में असमर्थ थीं.

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राजनीतिक नेताओं को एक बात सीखनी चाहिए कि अतीत को इतना मत कुरेदो कि उससे भविष्य के लिए मुश्किलें पैदा हो जाए. पूर्व राष्ट्रपति और दिग्गज कांग्रेसी नेता प्रणब मुखर्जी के संस्मरण, संभवत: सिरीज़ का अंतिम, के प्रकाशन से बहुतों को परेशानी होने की संभावना है. पुस्तक में शायद उससे कहीं अधिक रहस्य, तथ्य और विरासत संबंधी मुद्दे हैं जितने कि पूर्व राष्ट्रपति ने अंत तक अपने मन में दबाकर रखा होगा.

प्रणब मुखर्जी ने जनवरी 2016 में अपने संस्मरणों के दूसरे खंड ‘द टर्बुलेंट इयर्स (1980-1996)’ के विमोचन समारोह में कहा था कि वह कुछ चीजों को गोपनीय रखना चाहते हैं. उन्होंने कथित तौर पर कहा, ‘कुछ तथ्य मेरे साथ ही दफन होंगे.’ शायद वह उस समय कुछ तथ्यों को सामने नहीं लाना चाहते होंगे क्योंकि वे तब भारत के राष्ट्रपति थे. नैतिकता और मर्यादा के उच्च मानदंडों, और रणनीतिक सोच वाला शख्स होने के कारण वह निजी बातों को सार्वजनिक तौर पर उछालना नहीं चाहते होंगे. न ही उन्होंने नरेंद्र मोदी सरकार के लिए किसी तरह की असुविधाजनक स्थिति पैदा करना चाहा होगा. (उन्होंने इस संबंध में अपने ‘रूढ़िवादी दृष्टिकोण’ की बात की थी.

उन्होंने कहा, ‘मैं हर दिन अपनी डायरी का कम से कम एक पन्ना लिखता हूं, और इसकी संरक्षक मेरी बेटी [शर्मिष्ठा मुखर्जी] है. मैंने उससे कहा है कि तुम चाहो तो इस सामग्री को डिजिटाइज़ कर सकती हो, लेकिन तुम उन्हें जारी नहीं करोगी. लोगों को इन घटनाओं की जानकारी शायद सरकार द्वारा उस अवधि से संबंधित फाइलें जारी किए जाने पर मिले, न कि किसी के संस्मरणों के ज़रिए. कुछ तथ्य मेरे साथ ही दफन होंगे.’).

प्रणब मुखर्जी के लिखे से किसको डर है?

खुद पूर्व राष्ट्रपति की कही बातों को मानें, तो सारे रहस्यों को छोड़ भी दें तो कम से कम उनकी पुस्तकों और विचारों की उत्तराधिकारी उनकी बेटी प्रतीत होती हैं, नकि बेटे अभिजीत मुखर्जी जिन्होंने पुस्तक के प्रकाशकों को लिखा है कि जब तक वह पूरी सामग्री को खुद देख नहीं लें उनके संस्मरण जारी नहीं किए जाएं. अभिजीत ने यह भी इशारा किया है कि पुस्तक की कुछ सामग्री द्वेषपूर्ण हो सकती है.

उन्होंने ट्वीट किया, ‘मैं संस्मरण द प्रेसिडेंशियल मेम्वायर लिखने वाले का बेटा होने की हैसियत से आपसे आग्रह करता हूं कि संस्मरण का प्रकाशन रोक दिया जाए, और उन अभिप्रेरित हिस्सों का भी, जो पहले ही चुनिंदा मीडिया प्लेटफॉर्मों पर मेरी लिखित अनुमति के बिना चल रहे हैं’.

हालांकि मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, प्रकाशक को पुस्तक के प्रकाशन के लिए उनकी अनुमति की ज़रूरत नहीं है.

यह स्पष्ट नहीं है कि क्या उन्हें पुस्तक की विषयवस्तु की पूर्व जानकारी या उसके प्रकाशन को रोकने का लिखित अधिकार है भी कि नहीं, जोकि पुस्तक के लेखक यानि उनके पिता ने दिया हो. उनका डर बेबुनियाद नज़र आता है कि पुस्तक की सामग्री, प्रकाशित होने पर, असहज तथ्यों को सामने ला सकती है. अभिजीत मुखर्जी ने जो संकेत दिया है उससे यही लगता है कि पुस्तक में संभावित कुछ टिप्पणियों के कारण कांग्रेस के मौजूदा शीर्ष नेतृत्व को शायद असुविधा हो सकती है.

यहां ये उल्लेखनीय है कि कई कांग्रेसी नेताओं ने पुस्तक के प्रकाशन की प्रतीक्षा करने, उसे पढ़ने और फिर उसके बाद टिप्पणी करने का विकल्प चुना है. संभवतः उनमें से कई मन ही मन वर्तमान नेतृत्व पर दिवंगत नेता के विचारों से सहमत होंगे, जिसे वे सार्वजनिक रूप से व्यक्त करने जोखिम नहीं ले सकते.

कांग्रेस और 2004

प्रकाशक द्वारा किताब छपने से पूर्व जारी अंशों के अनुसार, पूर्व राष्ट्रपति ने अपने राष्ट्रपतीय कार्यकाल के दौरान आने वाली कुछ चुनौतियों का जिक्र किया है. उन्होंने सोनिया गांधी के नेतृत्व पर भी सवाल उठाए हैं. संभव है कि उन्हें सचमुच में यकीन रहा हो कि कांग्रेस उन्हें 2004 में प्रधानमंत्री चुनेगी, या कम से कम 2014 में भाजपा के नरेंद्र मोदी के खिलाफ उतारेगी. हालांकि, इस बात पर संदेह ही है कि ऐसा हुआ होता.

इसके अलावा, प्रणब मुखर्जी संभवत: एक ऐसे राजनेता थे जिन्होंने राष्ट्रपति पद समेत देश के कई शीर्ष संवैधानिक पदों को संभाला था, जबकि 2004 तक उन्होंने लोकसभा का कोई चुनाव तक नहीं जीता था. यहां तक कि 2004 में भी, उनकी खुद की पार्टी प्रमुख को उनकी जीत का भरोसा नहीं था और उनसे कहा गया था, ‘आपको अपनी हार का पक्का भरोसा होने तक इंतजार करने की ज़रूरत नहीं है; तुरंत वापस आ जाएं.’ अतीत पर नज़र डालते हुए यह कहना सुरक्षित होगा कि 2014 में नरेंद्र मोदी ने जैसा चुनाव अभियान चलाया था, उसके सामने प्रणब मुखर्जी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को भी हासिल सीटों के ऊपर एक भी अतिरिक्त सीट नहीं मिली होती.

इसी के मद्देनज़र उन्होंने कांग्रेस पार्टी के कुछ नेताओं की इस मान्यता को खारिज कर दिया था, कि यदि वह 2004 में प्रधानमंत्री बने होते तो शायद पार्टी को 2014 के लोकसभा चुनावों में करारी हार नहीं झेलनी पड़ती. लगता नहीं है कि उन्होंने देश के कामकाज, विशेष रूप से आर्थिक मामलों को किसी भी तरह से पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से अलग ढंग से चलाया होता.

मुखर्जी ने अपनी अप्रकाशित पुस्तक, पिछले सप्ताह जिसके अंश जारी किए गए थे, में लिखा है, ‘हालांकि मैं इस विचार (2004 में उनके प्रधानमंत्री बनने की बात) से इत्तेफाक नहीं रखता, पर मैं यह मानता हूं कि मेरे राष्ट्रपति बनने के बाद पार्टी नेतृत्व ने राजनीतिक दिशा खो दी. सोनिया गांधी जहां पार्टी के मामलों को संभालने में असमर्थ थीं, वहीं डॉ. सिंह की सदन से लंबी अनुपस्थिति के कारण अन्य सांसदों के साथ किसी भी तरह के व्यक्तिगत संपर्क पर विराम लग गया.’
प्रणब मुखर्जी द्वारा विशेष रूप से हाल के प्रधानमंत्रियों की कार्यशैलियों की तुलना दिलचस्प होने की संभावना है. उम्मीद है कि दोनों राष्ट्रीय दलों के नेता प्रणब दा की किताब की कुछ बातों को गंभीरता से लेंगे.

(लेखक ‘ऑर्गनाइज़र’ के पूर्व संपादक हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने केलिए यहां क्लिक करें)

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