scorecardresearch
Monday, 3 November, 2025
होममत-विमतपाकिस्तान के ‘जनरल शांति’ को यही होगी असली श्रद्धांजलि

पाकिस्तान के ‘जनरल शांति’ को यही होगी असली श्रद्धांजलि

दुर्रानी को एनएसए बनाकर पाकिस्तान ने बड़ी छलांग लगाई थी, लेकिन हैरानी नहीं कि वे एक साल भी इस पद पर नहीं रह पाए. 26/11 कांड को पाकिस्तानी फौज/आईएसआई की धोखाधड़ी मानते हुए परेशान होकर उन्होंने किनारा कर लिया.

Text Size:

बहुत पहले रिटायर हो चुके पाकिस्तान के मेजर जनरल महमूद दुर्रानी को पिछले हफ्ते 84 साल की उम्र में दिल की बीमारी ने हरा दिया. उन्हें यह बीमारी फौज में रहते हुए ही हो गई थी. यही बीमारी आगे चलकर उनकी तरक्की में रुकावट बन गई और वे सेना में ऊंचे पद तक नहीं पहुंच सके.

लेकिन उन्होंने इस कमज़ोरी को अपनी ताकत बना लिया और खुद को एक शांति-प्रेमी सिपाही के रूप में ढाल लिया. पाकिस्तान के भारत-विरोधी उर्दू अखबारों ने उनका मज़ाक उड़ाने के लिए उन्हें “जनरल शांति” कहना शुरू कर दिया. उर्दू में शांति को “अमन” कहा जाता है, लेकिन उन्हें अपमानित करने के लिए प्रेस “जनरल शांति” ही कहता था.

लगभग दस साल तक शांति के लिए काम करने के बाद, 2008 में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की सरकार ने उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) बनाया. उस वक्त बेनज़ीर भुट्टो की हत्या हो चुकी थी और आसिफ अली ज़रदारी राष्ट्रपति थे. दुर्रानी ने पहले भी मुशर्रफ की सुलह की कोशिशों में मदद की थी. मुशर्रफ ने उन पर भरोसा दिखाते हुए उन्हें अमेरिका में राजदूत भी बनाया, जहां वे पाकिस्तान की नकारात्मक छवि सुधारने में जुट गए.

हालांकि, एनएसए बनने के बाद वे ज्यादा दिन पद पर नहीं टिक सके. 26/11 मुंबई हमले के बाद उन्होंने इसे पाकिस्तान की फौज और आईएसआई की साज़िश बताया और शांति को नुकसान पहुंचाने वाली कार्रवाई कहा. ज़रदारी ने दबाव में आकर उन्हें भारत भेजा ताकि जांच में सहयोग दिया जा सके, लेकिन फौज नाराज़ हो गई और यह फैसला रद्द कर दिया गया.

कुछ हफ्तों बाद, जनवरी 2009 में, दुर्रानी ने मीडिया में साफ कहा कि अजमल कसाब पाकिस्तानी है और इसे छिपाना गलत है. इसके बाद उन्हें तुरंत इस्तीफा देना पड़ा.
बाद में वे भारत आए — पहले 2009 में ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन (ओआरएफ) में और फिर 2017 में इंस्टीट्यूट ऑफ डिफेंस स्टडीज़ एंड एनालिसिस (आईडीएसए) में. यहां उन्होंने दोबारा कहा कि आईएसआई ने 26/11 करवाया था.

पाकिस्तान जैसे देश में, जहां फौज की आलोचना करना खतरनाक माना जाता है, दुर्रानी का यह कहना बहुत साहस की बात थी. वे 1965 के युद्ध के बहादुर सैनिक, सम्मानित अधिकारी और पूर्व एनएसए थे, लेकिन उनका मानना था कि देश के लिए सबसे बड़ा हित युद्ध से बचने में है. वे सच्चे देशभक्त थे, लेकिन मानते थे कि असली देशभक्ति अमन में है, लड़ाई में नहीं.

वे मज़ाक उड़ाने वालों से नहीं डरते थे — बल्कि “जनरल शांति” कहलाना फख्र की बात मानते थे.


यह भी पढ़ें: पाकिस्तान की सोच: किराए पर फौज, अवसरवादी विचारधारा, और राष्ट्रवाद का केंद्र सिर्फ भारत-विरोध


उन्होंने भारत-पाकिस्तान के बीच ‘ट्रैक-2 डिप्लोमेसी’ के जरिए अमन के प्रयास किए — यानी सरकारों के बाहर बातचीत की पहल. करीब दो दशक तक वे इन शांति बैठकों का हिस्सा रहे. 1995 से 2005 के बीच “बालुसा ग्रुप” नाम के 12 लोगों के एक छोटे समूह में वे मुख्य सदस्य थे. इसमें भारत से एयर चीफ मार्शल एस.के. कौल, कैबिनेट सेक्रेटरी पी.के. कौल, रॉ के पूर्व प्रमुख जी.सी. सक्सेना जैसे लोग शामिल थे और पाकिस्तान की ओर से पूर्व सेना प्रमुख जहांगीर करामत, शाहिद खाकान अब्बासी और शाह महमूद कुरैशी जैसे नेता आते थे.

इन बैठकों में दोनों देशों के पूर्व अधिकारी और सैनिक खुलकर चर्चा करते थे. लेखक ने भी इनमें से कुछ बैठकों में हिस्सा लिया और लिखा है कि दुर्रानी हमेशा सुलह की बात करते थे.

दुर्रानी खुद कहते थे कि अगर फौज के डॉक्टरों ने उनका दिल का इलाज न किया होता, तो वे शायद सेना प्रमुख बन जाते और तब हम उन्हें एक जनरल के रूप में जानते, न कि ‘जनरल शांति’ के रूप में. उनका मानना था कि पाकिस्तान की कई समस्याओं की जड़ फौजी दखलंदाज़ी है.

मैंने जिन लोगों के नाम गिनाए हैं, उनसे आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि इस बातचीत में ज्यादातर लोग या तो फौजी रहे हैं, या कूटनीति और रणनीति के क्षेत्र से जुड़े रहे हैं — यानी ऐसे लोग जो कभी न कभी विरोधी खेमों की तरफ से भी एक-दूसरे के आमने-सामने खड़े हुए थे.

मेरे जैसे एडिटक के लिए उन तमाम अनुभवी लोगों की बातचीत में शामिल होना बेहद सीख देने वाला अनुभव था. कई बार चर्चाएं घंटों तक टहलते हुए चलती थीं. मैं उनकी यादों को ध्यान से सुनता और अपने नोट्स में दर्ज करता रहता. इन्हीं में एक नोट है, जिसमें मैंने इटली की बेल्लाजियो झील के किनारे जनरल दुर्रानी और कुछ अन्य लोगों से हुई बातचीत का ज़िक्र किया है. आगे मैं उसी बातचीत के कुछ हिस्से साझा कर रहा हूं.

दुर्रानी की कहानी कुछ यूं है—अगर सेना के डॉक्टरों ने उनकी दिल की बीमारी का इलाज न किया होता और वे तीन या चार स्टार वाले जनरल बन गए होते, तो शायद आज हम भारत में उन्हें श्रद्धांजलि नहीं दे रहे होते. वे उन गिने-चुने फौजी अधिकारियों में से थे, जो कभी सत्ता या राजनीति का मोह नहीं पालते थे. उनका साफ मानना था कि पाकिस्तान की ज्यादातर समस्याएं फौज की दखलअंदाजी से ही शुरू होती हैं.

दिल की बीमारी के कारण उन्हें लड़ाई की कमान से हटाकर पाकिस्तान के आयुध कारखाने के बोर्ड का प्रमुख बना दिया गया. अपनी उम्र और अनुभव के कारण उन्होंने पाकिस्तान के दो तानाशाहों—जनरल ज़िया-उल-हक और जनरल परवेज़ मुशर्रफ—दोनों के साथ काम किया. ज़िया के वे मिलिटरी सेक्रेटरी थे, जबकि मुशर्रफ के समय अमेरिका में पाकिस्तान के राजदूत.

झील किनारे हुई उस लंबी बातचीत के दो हिस्से मुझे आज भी याद हैं.

पहला तब का है जब मैंने पूछा—“क्या ज़िया वाकई उतने ही कट्टर इस्लामवादी थे, जितना माना जाता है?”

दुर्रानी ने कहा, “नहीं, शुरू में वे बिल्कुल साधारण मुसलमान थे, लेकिन तख्तापलट, जेल और भुट्टो की फांसी के बाद उनके आस-पास के लोगों ने उन्हें यह विश्वास दिला दिया कि वे खुदा के चुने हुए हैं, जिन्हें पाकिस्तान में इस्लाम की शान वापस लानी है.”

उन्होंने बताया कि सोवियत हमले के बाद अफगानिस्तान में चल रहे जिहाद ने इस सोच को और मजबूत किया. चापलूस लोग उन्हें कहने लगे, “देखिए, हमने कहा था न, अल्लाह ने आपको चुना है. भुट्टो को हटाना और आपको सत्ता देना उसी की मर्ज़ी है.”

धीरे-धीरे ज़िया खुद भी इस पर यकीन करने लगे. दुर्रानी ने बताया कि वे ज़िया के साथ मक्का भी गए थे, जहां ज़िया एक आम मुसलमान की तरह नमाज़ पढ़ते थे, रोते थे, लेकिन सत्ता और चापलूसी ने उन्हें धार्मिक उन्मादी बना दिया और यही सोच आखिरकार उनकी मौत का कारण बनी.

दुर्रानी ने यह भी बताया कि वे मुशर्रफ के प्रशिक्षक रह चुके थे. जब मुशर्रफ ने भारत के खिलाफ आतंकी गतिविधियां बढ़ाईं, तो दुर्रानी ने जाकर उन्हें कड़ी फटकार लगाई.

शायद मुशर्रफ में कुछ समझ बाकी थी, इसलिए जब उन्होंने बाद में भारत से सुलह की कोशिशें शुरू कीं, तो उन्होंने दुर्रानी को अमेरिका में राजदूत बनाया. यह वही दौर था जब मुशर्रफ के अटल बिहारी वाजपेयी और बाद में मनमोहन सिंह से सीधे संपर्क थे.

दुर्रानी ने 1965 में एक घुड़सवार सेना के मेजर के रूप में सियालकोट सेक्टर में भारत के खिलाफ युद्ध लड़ा था. उन्होंने कहा कि शुरू में उन्हें भारतीय सेना के घुड़सवार कमांडरों की क्षमता पर शक था, लेकिन युद्ध में कर्नल ए.बी. तारापुर ने जो चाल चली, वह उन्हें बहुत प्रभावशाली और अप्रत्याशित लगी.

उन्होंने कहा, “वह हमला इतना चतुराई भरा था कि हम पीछे हटने पर मजबूर हो गए.” तारापुर के टैंक पर एक गोला गिरा और वे शहीद हो गए. बाद में उन्हें परमवीर चक्र मिला. संयोग से, 1971 के युद्ध में उसी रेजीमेंट के अरुण खेत्रपाल को भी यही सम्मान मिला.

दुर्रानी ने बताया, “जब जंग खत्म हुई, हमने तारापुर के टैंक का मलबा देखा. मैंने उसकी टोपी और छड़ी उठाकर रख ली.”

मैंने उनसे कहा था कि अगर वे यह चीज़ें तारापुर के परिवार या उनकी रेजीमेंट को लौटा दें, तो यह शांति की दिशा में एक सुंदर कदम होगा. मुझे नहीं पता कि उन्होंने ऐसा किया या नहीं, लेकिन अगर उनका परिवार आज यह पढ़ रहा हो, तो इन वस्तुओं को लौटाना ‘जनरल शांति’ की असली विरासत को सलाम करने जैसा होगा.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: ट्रंप, मुनीर और शरीफ की ओवल ऑफिस तस्वीर में छुपा है बड़ा संकेत. भारत को गौर से देखना होगा


 

share & View comments