चुनाव खत्म हुए, अब उनके नतीजों के विश्लेषण का समय है. कहा जा रहा है कि मतदाताओं का जनादेश कुलीन तबके के खिलाफ है; यह आकांक्षाएं संजोए लोगों की उम्मीदों की अभिव्यक्ति है; मोदी सरकार के कार्यक्रमों से लाभ पाने वालों का कबूलनामा है; और नामदारों पर कामदारों की जीत है. इसे यह सब और इससे भी ज्यादा कुछ माना जा सकता है लेकिन बुनियादी बदलाव बताई जाने वाली इस कहानी में यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि जो विजेता हैं उनके निशाने पर क्या-क्या है और क्या-क्या नहीं.
हम वाम बनाम दक्षिण की बहस से आगे बढ़ चुके हैं. वाम का सफाया हो चुका है और उसकी जगह भरने की तैयारी किसी में नहीं दिख रही है. बल्कि, जो लोग आधे-अधूरे काम कर रही विषमतामूलक व्यवस्था को चला रहे हैं वे वंचितों को और ज्यादा जनकल्याणवाद से संतुष्ट करने का इरादा करते नज़र आ रहे हैं. जब नवनिर्वाचित लोकसभा सदस्यों की मध्यवर्ती संपत्ति 5 करोड़ रुपये और औसत संपत्ति 20.9 करोड़ रु. है, तब जाहिर है कि निर्वाचितों का बहुमत सबसे अमीर वयस्क आबादी का 0.1 प्रतिशत है. संपत्ति के बूते सत्ता हासिल करने वाले इन लोगों का मानना है कि जनकल्याणवाद के साथ अगर धर्म के नाम पर होने वाली सक्रियता जुड़ जाए तो यह ढांचागत परिवर्तन की जगह केवल दर्दनाशकों को बढ़ावा देती है.
फिर, नामदार बनाम कामदार का क्या? यह जुमला नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गांधी की सीधी टक्कर के चलते चल गया. लेकिन वरुण गांधी, हरसिमरत कौर (घोषित संपत्ति 40 करोड़), दुष्यंत सिंह (पता : सिटी पैलेस, ढोलपुर), राजकुमारी दियाकुमारी (पता : सिटी पैलेस, जयपुर) सरीखे कुछ और भी हैं जो शासक गठबंधन के सदस्य के तौर पर चुनाव जीते हैं.
इसका सकारात्मक पहलू यह है कि महत्वाकांक्षी कामदार की परिभाषा में व्यवसायी लोग भी गिने जाते हैं, और हजारों स्टार्टअप का गुणगान किया जाता है. नया भारत देंग की तरह यह मानता है कि अमीर बनना शान की बात है. इसलिए, व्यवसाय के लोग नोटबंदी के बावजूद मोदी के चलते सुरक्षित महसूस करते हैं. निशाने पर लिये जाने वाले नामदार केवल राजनीतिक विरोधियों में हैं और बाड़ पर खड़े सुरक्षित लक्ष्यों में विजय माल्या और नीरव मोदी जैसे लोग शामिल हैं.
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इसका क्या अर्थ है? यही कि बदलाव की इस कहानी में यथास्थिति को बनाए रखने का एक गहरा पुरातनपंथी प्रयास भी जारी है. और बड़ा बदलाव लुटियन की दिल्ली के उन लोगों के लिए आरक्षित है, जो ‘खान मार्केट गैंग’ के नए अवतार में प्रकट हो रहे हैं. यह विशेषण मूलतः उन सांसदों के लिए गढ़ा गया था जिन्हें संसद की कैंटीन के सस्ते व्यंजनों के मुक़ाबले उस आला मार्केट के रेस्तराओं के व्यंजन ज्यादा अच्छे लगते हैं. लेकिन मोदी ने इस जुमले का सटीक इस्तेमाल उपनिवेशकाल के बाद नेहरू-गांधी दौर में फले-फूले, उस दौर के कर्ताधर्ताओं के लिए किया.
आरएसएस के एक विचारक ने कहा कि मीडिया, संस्कृति और शिक्षा जगत इस ‘गैंग’ को ‘खारिज’ कर देगा. हम किसी महल पर कब्जा नहीं करने जा रहे मगर हम इंडिया इन्टरनेशनल सेंटर में जरूर घुसपैठ करना चाहते हैं.
संघर्ष के लिए तैयार नहीं दिख रहा यह कमजोर पड़ता समूह आखिर इतना अहम क्यों है? क्योंकि यह अभी भी भारत नामक उस पुराने विचार को मजबूती दे रहा है.
इसका समन्वयवाद उस सभ्यता की नैतिक सहिष्णुता का एक प्रतीक है, जो सभ्यता ताकत की पूजा नहीं करती, कमजोर की रक्षा के लिए उद्दत रहती है. इस आख्यान को उखाड़ फेंकना है और इसके साथ ही खत्म करना है यूरोपीय ज्ञान से उधार लिये और इंग्लैंड में पढ़े-लिखे बैरिस्टरों द्वारा लागू किए गए संवैधानिक विचारों और औपनिवेशिक व्यवस्थाओं को. इनकी जगह लाना है इस्लामी दौर से पहले यानी औपनिवेशिक काल से पहले के देसी मूल्यों को, जिनकी गंभीर व्याख्या की जानी है. दैनंदिन शासन की वास्तविकता पहले ही बदल चुकी है; अब उसकी वैधानिकता भी बदली जानी है. और इसकी राह में कोई रोड़ा बनकर खड़ा नहीं हो सकता.
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हमले के कारण बाबर की अवैध संतानें डर से खामोश हो गई हैं, जबकि मेकाले के कुछ परपोते आर्थर कोस्लर के प्रसिद्ध उपन्यास ‘डार्कनेस एट नून’ के बंदी कमिसार रुबाशोव जैसे बन गए हैं, जो ‘अपना विरोधी तेवर छोड़ने और अपनी भूलों की भर्त्सना’ करने को तैयार हैं. इसलिए नहीं कि उन्हें किसी ‘एजेंसी’ का सामना करना होगा (यह अभी भी प्रायः उन लोगों के लिए है जो किसी काम के नहीं थे) बल्कि इसलिए कि वे अप्रांसगिक न हो जाएं. दिल्ली में रहें और अपनी कोई वक़त न हो तो यह दांते के नरक के छठे सर्कल में रहने के समान है, जो विधर्मियों के लिए आरक्षित होता है.
लेकिन, मोदी ने बड़ी मेहनत से जो असाधारण लोकप्रियता हासिल की है उसे मूल आधार बनाकर अगर सिंगापुर सरीखी ताकतवर नेता वाली व्यवस्था (हमने नेता का अपमान करने वाले को जेल भेजना शुरू भी कर दिया है) बनाने की कोशिश की जाएगी, जिसमें आलोचना के लिए अपमानजनक हमले किए जाते हों और देसी मिथकों तथा वैज्ञानिक तथ्यों में भेद करना मुश्किल हो या इतिहास की किताबों को आरएसएस की विश्वदृष्टि के मुताबिक ढाला जाता हो और पुलिस सड़कछाप छापामारों में बदल जाए, और उपयुक्त हाथों के तहत काम कर रहे संस्थान राजनीतिक हवा के दबाव में डोलने लगें, तब खतरा यही है कि चौबे से छब्बे बनने के चक्कर में हम दुबे भी न रह जाएं.
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